Jul ०९, २०२१ २०:२६ Asia/Kolkata
  • सिविल सोसायटी, सरकार की जवाबदेही तय करने में अपनी नाकामी को माने

काम के अहम क्षेत्र के रूप में संस्थाओं और संतुलन व नियंत्रण सिस्टम की मज़बूती की अहमियत को अगर हम नहीं समझ रहे हैं, तो यह हमारी सामूहिक नाकामी है, जिसे तुरंत दूर करने की ज़रूरत है।

कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान, सरकार की जवाबदेही तय करने में एक देश की हैसियत हमारी नाकामी जगज़ाहिर है। मीडिया हल्क़ों से बहुत सी आवाज़ें उठीं जिसमें इस बात को माना गया कि प्रेस का बड़ा हिस्सा उन मुद्दों पर सवाल करने के बजाए जो बहुत अहम थे, उन बहसों में उलझा रहा जो सरकार ने ध्यान भटकाने के लिए सेट की थीं। सिविल सोसायटी को भी शायद अपने रोल को फिर से परखना होगा। क्या हम भी-सिविल सोसायटी के सद्स्य की हैसियत से-सरकार की जवाबदेही तय करने में नाकाम नहीं रहेॽ

परोपकारी संस्थाएं, दंड के डर से, भारत के प्रजातंत्र को मज़बूत करने वाले उपायों और उसकी जवाबदेही तय करने वाले मेक्निज़म का समर्थन करने में ख़ुद को असहाय पाती हैं।

नीतियों के संबंध में जारी राजनीति को नज़रअंदाज़ करके और टेक्नोक्रेटिक हल पर बहुत ज़्यादा ध्यान लगाकर सिविल सोसायटी भी स्थिति को समझने में नाकाम रही।

मैकेन्ज़ी ऐन्ड कंपनी की रिपोर्ट में अनुमान है कि भारत में क़रीब 90 फ़ीसदी परोपकारी संस्थाएं, प्राइमरी शिक्षा, बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल, ग्रामीण ढांचागत सुविधाओं, आपदा राहत को लक्ष्य बनाती और मानवाधिकार तथा शासन प्रणाली पर कम से कम फ़न्डिंग करती हैं।

अफ़सोस कि सिविल सोसायटी की तरफ़ के मज़बूत समर्थन न होने की वजह से हमारी प्रजातांत्रिक संस्थाएं सुधार के लिए भीतर से प्रेरित नहीं हैं, जिसका नतीजा सामने है कि भारत के सबसे संकटमय समय में भी मौजूदा सरकार की जवाबदेही तय करने वाला प्रभावी तंत्र हमारे पास नहीं था। न्यापालिका की बेबसी साफ़ ज़ाहिर थी, जजों को सरकार से जवाब मिलने में मुश्किलों का सामना था।

हम में जो भी, भारत की प्रजातांत्रिक संस्थाओं का अध्ययन करते हैं, हमारे प्रजातंत्र में नियंत्रण और संतुलन के लड़खड़ाते सिस्टम की ओर से लंबे समय से चिंतित हैं, जिसे पैन्डेमिक ने और चर्चा का रूख़ दिया। हमें अपने संसदीय नियमों की फिर से समीक्षा करने की ज़रूरत है जो हुकूमत के समर्थन में झुके हुए हैं, न्यायपालिका के हाथ मज़बूत करने, संघीय व्यवस्था को मज़बूत करने और आज़ाद मीडिया को मज़बूत करने की ज़रूरत है, साथ में कार्यकारी के भीतर फ़ैसला लेने की प्रक्रिया में पारदर्शिता पैदा करने की भी ज़रूरत है।

पेन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी के सेंटर फ़ार हाई इम्पैक्ट फ़िलेन्थ्रॉपी द्वारा बनाया गया फ़्रेमवर्क कहता है कि परोपकारियों को चाहिए कि ऐसी पहल को फ़न्ड करें जिससे नागरिक ताक़तवर हो, प्रक्रिया पारदर्शी बने, उत्तरदायित्व तय करने की मांग करे, सूचना व संवाद नेटवर्क को मज़बूत करे और सामाजिक एकजुटता को मज़बूत करे। ये वे ताक़ते हैं जो किसी प्रजातंत्र की बुनियाद बनाती हैं। सीविल सोसायटी संगठनों को भी अपने एजेंडे में ऐसे मुद्दों को शामिल करने की ज़रूरत है जिससे भारतीय संस्थाएं मज़बूत हों। इसी तरह सिविल सोसायटी को चाहिए कि नीति निर्माण के सभी क्षेत्र व स्तर पर अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग करने वाली आवाज़ को एक स्वर में उठाने में सहयोग करे। इसके लिए सरकार की ओर से किसी भी उल्लंघन पर कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाए, सही तरह से काम करने वाले प्रजातंत्र से अपेक्षाओं के बारे में जनमत तैयार करे और ऐसे साधन व फ़ोरम बनाए जिससे नागरिक, नीति बनाने में शामिल होने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा तैयार रहे।

अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि इस बात की कोई अहमियत नहीं है हम नीतियों की कितनी चुटकी लेते हैं, नागरिक सेवाओं के लिए कितने प्लेटफ़ार्म बनाते हैं, विकास से जुड़ी चुनौतियों के हल के लिए कितने सुबूत इकट्ठा करते हैं, अगर हमने लोक हित में काम करने के लिए राजनैतिक प्रेरक की रक्षा नहीं की, तो हमने अपनी सारी कोशिश बर्बाद कर दी। काम के अहम क्षेत्र के रूप में संस्थाओं और संतुलन व नियंत्रण सिस्टम की मज़बूती की अहमियत को अगर हम नहीं समझ रहे हैं, तो यह हमारी सामूहिक नाकामी है, जिसे तुरंत दूर करने की ज़रूरत है।

(साभारः इंडियन एक्सप्रेस, यह लेखक के अपने विचार हैं, जिससे पार्सटुडे का सहमत होना ज़रूरी नहीं है।)

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