वाह रे यूपी सरकार, कोर्ट में क्यों पेश किया गया ऐसा हलफ़नामा?
(last modified Tue, 13 Oct 2020 16:47:20 GMT )
Oct १३, २०२० २२:१७ Asia/Kolkata
  • वाह रे यूपी सरकार, कोर्ट में क्यों पेश किया गया ऐसा हलफ़नामा?

हाथरस में एक दलित युवती के बलात्कार और हत्याकांड मामले में उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जो हलफ़नामा दाख़िल किया है उसमें अनेक क़ानूनी ग़लतियां हैं।

इस हलफ़नामे में जान-बूझकर भ्रामक तथ्य पेश किए गये हैं। यह हलफ़नामा ऐसी स्थिति में पेश किया गया कि जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने घटना से आहत होकर स्वतः संज्ञान लिया था।

उत्तर प्रदेश सरकार ने शपथपत्र में यह दिखाया है कि पीड़िता ने अपने पहले बयान में बलात्कार का ज़िक्र नहीं किया था जबकि वीडियो में देखा जा सकता है कि युवती ने असह्य पीड़ा में होने के बावजूद 14 सितम्बर को ही आरोपियों द्वारा उससे ‘ज़बरदस्ती’ करने की बात कही थी।

हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लोग यह जानते हैं कि इस क्षेत्र की स्त्रियां विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र की युवतियां शर्म की वजह से बलात्कार शब्द का प्रयोग नहीं करती बल्कि उसके लिए ‘ज़बरदस्ती’ या ‘ग़लत काम’ शब्द का प्रयोग करती हैं।

बहरहाल, 22 सितम्बर को दिए गए बयान में उसने आरोपियों के नाम लिए और कहा कि उन्होंने उससे बलात्कार किया था और उसके दुपट्टे से उसका गला घोंटा था।

बयान लेने वाली महिला हेड कांस्टेबल ने उससे पूछा भी कि उसने पहले तो बलात्कार की बात नहीं की थी, इस पर उसने स्पष्ट किया कि उस वक़्त वो पूरे होश में नहीं थी। इस बयान के बाद 29 सितम्बर को अपनी मृत्यु तक वह कोई और बयान नहीं दे पाई।

सरकार का शपथपत्र पीड़िता के ‘सेक्सुअल असॉल्ट फॉरेंसिक एग्ज़ामिनेशन’ रिपोर्ट के हवाले से कहता है कि पीड़िता का बलात्कार ही नहीं हुआ था।

अब सरकार ने लाखों लोगों को जुटाने की बात कही जबकि लाखों लोगों को जुटाने का निर्णय पार्टी में अत्यंत ऊंचे स्तर पर ही लिया जा सकता है ज़िला-तहसील स्तर के किसी नेता द्वारा नहीं।

एक लाख लोगों को लाने के लिए कोई दो हज़ार बसों की ज़रूरत पड़ती और यह काम कोई पार्टी गुप्त रूप से नहीं कर सकती थी, इसलिए लाखों लोगों के विरोध प्रदर्शन के लिए जमा हो जाने की बात निराधार है। अगर कोई पार्टी उतने लोग जुटाने में सक्षम होती, तो शव के जला दिए जाने के बाद भी वे विरोध प्रदर्शन कर सकते थे। बाद में पार्टियों ने जो लोग वहां भेजे उनकी संख्या मात्र सैकड़ों में थी, सवाल यह है कि उन लाखों लोगों का क्या हुआ? वे कहां ग़ायब हो गए?

अनेक प्रमाण हैं कि घरवालों के लाख गिड़गिड़ाने के बावजूद पीड़िता का शव पुलिस ने ज़बरदस्ती जलवा दिया, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसका स्वतः संज्ञान लेते हुए कहा कि घटनाक्रम ने उनके ‘ज़मीर को झकझोर दिया है।

कोर्ट ने ये भी कहा कि अगर पीड़िता अपने अंगों को धो लेती है तो शुक्राणु 12 घंटों के अंदर भी नहीं मिल सकते हैं. इस केस में तो पीड़िता का ‘सेक्सुअल असॉल्ट फॉरेंसिक एग्ज़ामिनेशन’ आठ दिनों बाद हुआ था!

यह भी संभव है कि इस बीच पीड़िता के अंगों को उसकी जानकारी के बगैर धो दिया गया हो।

पीड़िता के शव का चोरी से जलाया जाना और विरोध प्रदर्शन की आशंका की दलील अमान्य है।

शपथपत्र यह स्वीकार करता है कि हालांकि सफदरजंग हॉस्पिटल पर नारेबाजी हुई थी, लेकिन कोई हिंसा नहीं हुई थी. लोगों ने शांतिपूर्वक शव को ले जाने दिया.

वे यह भी कहते हैं कि जब वे पीड़िता के गांव के समीप पहुंचे तो कोई 200-250 लोग ही जमा थे, ज़ाहिर है कि यह कोई बड़ी बात नहीं थी. फिर भी आपने चोरी से क्यों रातोंरात शव जला दिया गया?

शपथपत्र इसके बाद पटरी बदल लेता है और कहता है कि उनके पास उसी दिन खुफिया सूचना आई थी कि वहां लाखों लोगों की भीड़ जुटने की संभावना थी और कानून-व्यवस्था की भारी समस्या हो सकती थी।

ख़ुफ़िया सूचना के नाम पर कोई भी कुर्तक पेश नहीं किया जा सकता, यह देखा जाना चाहिए कि रिपोर्ट विश्वसनीय है भी या नहीं।

प्रश्न पूछा जाना चाहिए था कि ऐसी ख़ुफ़िया सूचना जिस भी अफ़सर या मुख़बिर ने दी, तो किस आधार पर दी? उन्हें कैसे पता चला?

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