वसीम जैसे मसख़रे और भारतीय संस्कृति पर होते हमले
समाज और रिवाज दो अलग अलग शब्द हैं और इन दोनों शब्दों के मतलब भी अलग अलग ही है लेकिन फिर भी इन दोनों शब्दों की विशेषता यह है कि ये दोनों शब्द अलग अलग होते हुए भी इंसान को उसके आस-पास के माहौल और लोगों से जोड़ने का काम करते हैं।
एक इंसान इन्हीं दो शब्दों की मान मर्यादा रखने की वजह से शरीफ़ और भला भी कहलाता है। अलबत्ता कभी कभी ऐसा भी होता है कि इन दोनों शब्दों के किरदार अपनी असलियत से इंसाफ़ न करते हुए जोड़ने के बजाए तोड़ने का काम कर रहे होते हैं लेकिन अब ऐसा भी नहीं है कि ये दोनों किरदार इस लिए ही संजोए गए हों बल्कि इन दोनों किरदारों की सीधी चलती गाड़ी अपनी पटरी से तब उतरती है जब या तो कोई साज़िश हो या फिर कोई अनहोनी!
अब अगर हम अपनी इस बात (बिगड़े हुए समाज) का जीता जागता किरदार देखना चाहें तो हमारे पास हमारे ही देश भारत से अच्छा उदाहरण कौन हो सकता है? जी हां!! आपने सही पढ़ा, वही भारत जो अपने समाज और रिवाज, अपनी संस्कृति और सभ्यता के लिए पहचाना जाता था, आज वही भारत, टोह में बैठे कुछ बेशर्म राजनैतिक चेहरों, उनके माउथ पीस बने मीडिया हाउसेस और उनके चमचों की असामाजिक उथल-पुथल की बदौलत दुनिया भर में मज़ाक़ बन कर रह गया है!!
दरअसल ये वो असामाजिक तत्व हैं कि जिन्होंने समाज को एक सुनियोजित ढंग से ऐसी अफ़ीम चटाई है कि आज एक पूरी आबादी न सिर्फ़ अपनी बदहाली से अंजान है बल्कि दूसरों और यहां तक कि पड़ोसियों, नातेदारों और बचपन के दोस्तों की बर्बादियों का जश्न तक मना रही है! बल्कि हद तो यह है कि आज दुनिया को दानवीर कर्ण, भरत और अब्दुल हमीद जैसे किरदार देने वाले भारतीय समाज में एक बार फिर ऐसी शूर्पणखाओं ने दोबारा जन्म ले लिया है कि जो न सिर्फ़ दिलों को दूर कर रही हैं बल्कि हर वह काम कर रही हैं जो महज़ एक विशेष नफ़रती वर्ग को ख़ुश करने का काम करता है।
इससे भी ज़्यादा मज़े की बात यह है कि ऐसे नफ़रती चिंटू किसी धर्म विशेष में ही नहीं हैं बल्कि कहीं ये कपिल मिश्रा की शक्ल में हैं तो कहीं वसीम रिज़वी जैसे मसख़रे के रूप में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने और अपने पेट की आग में समाज और संस्कृति को जलाने में जुटे हुए हैं। जबकि ऐसे ख़तरनाक नफ़रती ज़हर में डूबी हुई इस कड़ी की विशेषता यह है कि इसके सिरे, अंजाम से अंजान नफ़रती आईटी सेल की दिहाड़ी मज़दूरी को कमाई का संसाधन बनाए हुए ग़रीब तबक़े से शुरू होकर भारत का नेतृत्व करती जनता का भविष्य तय करने वाली उच्च स्तर की आबादी तक से जुड़े हुए हैं..!!
कमाल तो यह भी है कि आज एक सौ पैंतीस करोड़ की आबादी वाले हज़ारों साल की संस्कृति और अब विश्वगुरु बनने का सपना संजोए भारत में न सिर्फ़ ऐसे नफ़रती चिंटुओं की गिनती उंगलियों की पोरों से बाहर है बल्कि इन नफ़रती चिंटुओं के बीच सबसे ज़्यादा बुरा बनने और समाज को गंदा करने की एक होड़ सी लगी हुई है! लेकिन फिर सवाल तो यह भी उठता है कि भारत की इस मौजूदा हालत का ज़िम्मेदार है कौन?
क्या सिर्फ़ अफ़सोस जताने से ही काम हो जाएगा??
क्या मोबाइल या टीवी स्क्रीन के ज़रिए हम इस गंदगी को साफ़ कर सकते हैं???
शायद आपको मेरी यह बात अजीब लगे लेकिन गांठ बांध लीजिए कि न तो हम सऊदी जैसे पेट भरे देश में हैं और न ही कुवैत जैसे छोटे मुल्क में बल्कि इस समय हम भारत जैसे दुनिया की एक चौथाई आबादी वाले देश में हैं जहां यह खेल अभी सिर्फ़ शुरू हुआ है और वसीम रिज़वी जैसे जमूरों का कंधा उछलना तो महज़ एक शुरुआत है जबकि इसका अंत शायद जर्मनी और रुवांडा से भी ख़तरनाक होने वाला है!! क्योंकि अब भारत में करप्शन के साथ ही बेरोज़गारी ने भी अपने पांव पसार लिए हैं जबकि लालच और बेरोज़गारी ही दो ऐसे कारण हैं जो समाज को किसी भी जहन्नुम से बदतर बना देते हैं।
अलबत्ता इसका ज़िम्मेदार कौन है? इस सवाल से ज़्यादा ज़रूरी सवाल यह है कि अब इस हालत को बदलने की ज़िम्मेदारी कौन लेगा? क्या हाय हाय और बॉयकॉट या फिर "वी सपोर्ट" का ट्रेंड चलाने वाला तबक़ा इसकी ज़िम्मेदारी लेगा या फिर सिस्टम से जूझने को फिर कोई गांधी आएगा??
ख़ैर जवाब जो कुछ भी हो लेकिन सच तो यह है कि अब सांप भी निकल चुका है और लाठी भी टूट चुकी है और अब हमारे सामने ऑप्शन के तौर पर सिर्फ़ और सिर्फ़ जान बचाना ही एक रास्ता है और यह जान टूटी हुई लाठी को जोड़ कर ही बच सकेगी!! वास्तव में आज भारत और उसका समृद्ध समाज जिस गर्त में धकेला जा रहा है उसका उपाय सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने धर्म मज़हब की सही पैरवी है। क्योंकि राजनीति के स्टेज पर अगर कपिल मिश्रा जैसे लोग ज़हर उगल रहे हैं तो उनके स्टेजों की बिसात सेट करने वाले भी वसीम रिज़वी जैसे ही लोग होते हैं।
इसलिए अगर आप सच्चे हिंदू हैं तो "वसुधैव कुटुम्बकम्" को मानिए और कु़रआन पर ऐतराज़ की वसीम रिज़वी जैसे लोगों की हरकत से ख़ुश होने के बजाए अपने गरेबान में झांकिए कि क्या आप अपनी क़ौम में वसीम रिज़वी जैसों को पसंद करेंगे?
और यही क़ानून मुसलमानों पर भी लागू होता है!
वैसे इस बात में कोई दो राय नहीं कि आज इन्हीं ओछी मानसिकता वाले सस्ते लोगों की वजह से दिलों में दूरियां आ तो गईं हैं लेकिन यहां भी फिर वही बात है कि जान बचानी है तो लाठी को जोड़ना ही पड़ेगा..!!
(सय्यद इब्राहीम हुसैन दानिश हुसैनी)
नोटः ये लेखक के निजी विचार हैं और इनसे पार्सटूडे का सहमत होना ज़रूरी नहीं है।