जनरल क़ासिम सुलैमानी के संबंध में विशेष कार्यक्रम (1)
(last modified Wed, 29 Dec 2021 14:14:55 GMT )
Dec २९, २०२१ १९:४४ Asia/Kolkata
  • जनरल क़ासिम सुलैमानी के संबंध में विशेष कार्यक्रम (1)

जनरल क़ासिम सुलैमानी वह महान हस्ती थे जो प्रतिरोध के मार्ग में मुसलमानों के मध्य एकता के आदर्श में बदल गये।

जनरल क़ासिम सुलैमानी न केवल ईरान बल्कि इराक़، फिलिस्तीन، लेबनान، भारत और पाकिस्तान सहित इस्लामी दुनिया के महानायक हैं. वह अत्याचार और आतंकवाद के खिलाफ संर उनका उद्देश्य महान ईश्वर की राह मेाा वह मज़लूमों का सहारा थे، उनके अस्तित्व से अत्याचार के खिलाफ संघर्ष करने वालों को शक्ति मिलती है उनका मनोबल बढ़ता था.

यही नहीं जहां उनके अस्तित्व से अल्लाह की राह में जेहाद करने वालों को ताकत मिलती थी वहीं दुश्मनों और अत्याचारियों की आंखों का वह कांटा बने हुए थे। वह अत्याचारियों के मुकाबले में प्रतिरोध और जेहाद को अल्लाह की इबादत समझते थे। ईरान की इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई उनके बारे में कहते हैं” शहीद जनरल क़ासिम सुलैमानी प्रतिरोध की अंतरराष्ट्रीय हस्ती हैं और समस्त प्रतिरोधी व संघर्षकर्ता उनके खून का बदला लेने के इच्छुक हैं।

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प्रतिरोध व संघर्ष एक धारणा है और बहुत से लोगों का मानना है कि इस्राईल जैसे रक्त पिपासु से अपने अधिकारों को वापस लेने का एकमात्र मार्ग संघर्ष है और संघर्ष के बिना अपने अधिकारों को वापस लेने की कामना करना उस स्वप्न की भांति है जो कभी भी साकार होने वाला नहीं है।

इस्लामी गणतंत्र ईरान वह देश है जहां 42 साल पहले शाह की तानाशाही व अत्याचारी शाह की सरकार थी। शाह वह अत्याचारी तानाशाह था जिसे अमेरिका और ब्रिटेन का व्यापक समर्थन प्राप्त था और इन्हीं शक्तियों के समर्थन से वह सत्ता में पहुंचा था और हमेशा वह काम करता था जिससे अमेरिका और ब्रिटेन को लाभ पहुंचे। वह सस्ते दामों पर तेल बेचता था और उससे होने वाली आमदनी को अपने एश्वर्य और भोग विलास पर खर्च करता और अमेरिका से हथियार खरीदता था। इस प्रकार से कि 42 साल पहले शाह क्षेत्र में अमेरिका और ब्रिटेन के हितों के सबसे बड़े रक्षक में परिवर्तित हो गया था।

शाह और उसकी तानाशाही सरकार को जनसमर्थन प्राप्त नहीं था। अगर शाह और उसकी सरकार को जनसमर्थन प्राप्त होता तो वह ईरान में चुनाव करवाता और अमेरिका और ब्रिटेन भी उसका समर्थन करते मगर अमेरिका, ब्रिटेन और खुद शाह को बहुत अच्छी तरह ज्ञात था कि उसे और उसकी सरकार को जनसमर्थन प्राप्त नहीं है और अगर वह चुनाव करवाता  तो उसकी तानाशाही सरकार का अंत हो जाता और जिस तरह से वह ईरानी जनता की सम्मत्ति का दोहन व शोषण कर रहा था नहीं कर सकता था। इसलिए उसने कभी भी ईरान में न चुनाव करवाया और न ही चुनाव करवाने के बारे में सोचा। क्योंकि उसे चुनावों के नतीजों और उसके परिणामों का भली-भांति ज्ञान था। इसलिए उसने कभी भी चुनाव कराने की ग़लती नहीं की।

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रोचक बात है कि अमेरिका और ब्रिटेन पूरी दुनिया में स्वंय को डेमोक्रेसी और लोकतंत्र का आदर्श समझते हैं और दूसरों को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाते फिरते हैं उन्होंने कभी भी ईरान में चुनाव कराने की बात नहीं की। यही नहीं इन देशों ने न केवल ईरान में चुनाव कराने की बात नहीं की बल्कि ईरान में शाह की तानाशाही सरकार का व्यापक समर्थन किया। अमेरिका और ब्रिटेन विशेषकर अमेरिका शाह की तानाशाही सरकार के मूल समर्थक थे उसने कभी भी ईरान में डेमोक्रेसी सरकार की स्थापना की बात नहीं की।

यही नहीं जब एक- एक दिन में सैकड़ों ईरानियों को शाह की अत्याचारी सरकार शहीद व घायल करती थी तब भी ये देश शाह की तानाशाही सरकार का न केवल व्यापक समर्थन करते थे बल्कि उन्होंने कभी भी ईरानी जनता पर किये जा रहे अत्याचारों की भर्त्सना तक नहीं की। क्योंकि इन देशों को अच्छी तरह ज्ञात था कि शाह की तानाशाही सरकार में वे जिस तरह से ईरानी जनता व राष्ट्र की सम्पत्ति लूट रहे हैं उस तरह वे ईरान में लोकतांत्रिक सरकार के सत्ता में आ जाने पर लूट- खसोट नहीं कर सकते। शाह की अत्याचारी सरकार के काल में अमेरिका और ब्रिटेन के क्रिया- कलापों को देखकर इस बात का पता बहुत आसानी से लगाया जा सकता है कि डेमोक्रेसी के उनके दावे की वास्तविकता व सच्चाई क्या है।

अमेरिका और ब्रिटेन को न तो डेमोक्रेसी व लोकतंत्र से कोई प्रेम है और न ही तानाशाही सरकारों से बैर है। इन देशों को केवल अपने हितों से प्रेम है। इन देशों के हित जिस प्रकार की सरकारों से पूरे होते हैं वे उसी के समर्थक होते हैं। सऊदी अरब, बहरैन, जार्डन और संयुक्त अरब इमारात जैसे देशों में तानाशाही सरकारों के प्रति इनके समर्थन और आशीर्वाद को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।

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बहरहाल अमेरिका सहित विश्व में बहुत से वर्चस्वादी देश हैं जो न केवल तानाशाही सरकारों का समर्थन करते हैं बल्कि उन्हीं के समर्थन की छत्रछाया में तानाशाही सरकारें जनता और जनांदोलनों का दमन करती हैं और बहुत से लोगों का मानना है कि प्रतिरोध के बिना अपने अधिकारों को प्राप्त नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में खून दिये बिना न तो अपने अधिकारों को प्राप्त किया जा सकता है और न ही तानाशाही और अत्याचारी सरकारों का अंत किया जा सकता है। शाह की अत्याचारी सरकार के खिलाफ ईरानी जनता के साहसिक व एतिहासिक प्रतिरोध को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।

ईरानी जनता के बलिदानों के परिणाम में न केवल शाह की अत्याचारी सरकार का अंत हो गया बल्कि ईरानी जनता का प्रतिरोध प्रेरणा का स्रोत बन गया। ईरान की इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता कहते हैं” ईरानी राष्ट्र ने उस दुनिया में बहुत बड़ा काम अंजाम दिया है जिसमें वर्चस्ववादियों का आधार ज़ोरज़बरदस्ती और दूसरों की सम्पत्ति की लूट- खसोट है और दुनिया के बहुत से क्षेत्रों के कमजोर राष्ट्र इन्हीं वर्चस्ववादियों के दबाव में हैं। ईरानी राष्ट्र ने वर्चस्ववादी व्यवस्था को नकार दिया।“

सर्वोच्च नेता का मानना है कि वर्चस्ववादी व्यवस्था के मुकाबले में डट जाना प्रतिरोध के लिए काफी नहीं है बल्कि दुश्मन के कमज़ोर बिन्दुओं की पहचान करके उन पर हमला करना भी प्रतिरोध का भाग है। इसी प्रकार सर्वोच्च नेता प्रतिरोध को धार्मिक और मानवीय कार्य समझते हैं। उनका मानना है कि प्रतिरोध के लिए बहुत सी चीज़ें ज़रूरी हैं उनमें से एक महान ईश्वर के वादों पर भरोसा है। दूसरे शब्दों में महान ईश्वर पर भरोसा प्रतिरोध का आधार होना चाहिये और उस पर ईमान व भरोसे के बिना वास्तविक प्रतिरोध संभव नहीं है। सर्वोच्च नेता बल देकर फरमाते हैं कि महान ईश्वर ने पवित्र कुरआन में बल देकर कहा है कि अल्लाह उसकी ज़रूर मदद करेगा जो अल्लाह की मदद करेगा”।

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महान ईश्वर ने पवित्र कुरआन में मदद करने का जो वादा किया है वह किसी समय या स्थान से विशेष नहीं है। जब भी, जहां भी और जो भी महान ईश्वर के वादे पर भरोसा करके प्रतिरोध करेगा वह उसकी मदद करेगा और वही इंसान ईश्वरीय वादों पर संदेह करेगा जिसके ईमान में कोई कमज़ोरी होगी।

एक चीज़ को ध्यान में रखना बहुत ज़रूरी है और वह यह है कि महान ईश्वर पर भरोसा करके प्रतिरोध करने का यह मतलब नहीं है कि प्रतिरोध को किसी समस्या का सामना नहीं होगा। क्या पैग़म्बरे इस्लाम ने महान ईश्वर पर भरोसा करके उसकी राह में जो जेहाद किया था उसमें उन्हें परेशानियों व समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ा था? जब महान ईश्वर के सर्वोत्तम दूत को उसकी राह में विभिन्न प्रकार की समस्याओं और मुसीबतों का सामना करना पड़ सकता है तो आम इंसानों को बतरीक़े औला मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा और इस बात पर पक्का व गूढ़ विश्वास रखना चाहिये कि अगर महान ईश्वर की मदद होगी तो विजय निश्चित है।

ईरान की इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता कहते हैं कि प्रतिरोध में धैर्य बहुत ज़रूरी है। ईश्वर की राह में प्रतिरोध का यह मतलब नहीं है कि प्रतिरोध आरंभ करते ही विजय मिल जायेगी बल्कि लक्ष्य तक पहुंचने के लिए धैर्य और संयंम से काम लेने की ज़रूरत है। इसके लिए पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों की जीवनी को सर्वोत्तम आदर्श के रूप में देखा जा सकता है।

इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता पवित्र कुरआन की विभिन्न आयतें उदाहरण के तौर पर पेश करते और कहते हैं कि महान ईश्वर पैग़म्बरी की घोषणा के आरंभ से विरोधियों और दुश्मनों के मुकाबले में पैग़म्बरे इस्लाम से धैर्य व संयंम से काम लेने की सिफारिश करता है। इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता धैर्य व संयंम से काम लेने को बड़ी विजय की भूमिका मानते हैं पर साथ ही वह कहते हैं कि धैर्य व संयंम से काम लेने और महान ईश्वर पर भरोसा करने का यह मतलब नहीं है कि इंसान कुछ न करे और हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे। धैर्य व संयंम से काम लेने और महान ईश्वर पर भरोसे का अगर यह मतलब होता कि इंसान कुछ न करे और हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे तो पैग़म्बरे इस्लाम को इतनी सारी कठिनाइयां न उठानी पड़तीं।

सारांश यह कि धैर्य व संयंम से काम लेने का मतलब महान ईश्वर पर भरोसे के साथ डटकर मुसीबतों का मुकाबला करना चाहिये और जो इंसान अल्लाह की राह में प्रतिरोध कर रहा है उसे इस बात पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिये कि वह अकेला नहीं है उसका विधाता उसके साथ है और जिस इंसान को यह विश्वास व यक़ीन होता है कि उसका सर्वशक्तिमान पालनहार उसके साथ है तो वह दुनिया की किसी भी ताकत से नहीं डरता। क्योंकि उसे इस बात का पूरा विश्वास होता है कि महान व सर्वसमर्थ ईश्वर के अलावा जितनी भी चीज़ें व शक्तियां हैं सब कुछ उसके मुकाबले में तुच्छ हैं।

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दूसरे शब्दों में जो भी चीज़ें हैं उनमें जो भी शक्ति है उन सबका स्रोत भी महान ईश्वर ही है। इस प्रकार का इंसान इस बात का पक्का विश्वास रखता है कि ज़मीन-आसमान और जो कुछ भी उनमें है सबकी शक्ति महान व सर्वसमर्थ ईश्वर की शक्ति के मुकाबले में मरे हुए मच्छर के पर के बराबर भी नहीं है। अतः जो लोग दुनिया की चीज़ों पर घमंड करते हैं और ज़मीन पर अकड़ कर बात करते हैं और दूसरों से अहंकार भरा व्यवहार करते हैं वास्तव में इस प्रकार के इंसान मूर्खता के चक्रव्यूह में फंसे होते हैं उनकी नज़रों पर अज्ञानता के पर्द पड़े होते हैं। उन्हें यह बात याद नहीं होती है कि उनके अस्तित्व की बुनियाद नजिस क़तरा व पानी है और अंत नजिस लाश है और पूरे जीवन वह मल- मूत्र ढ़ाते फिरते हैं। जिस इंसान की नज़र इन चीज़ों पर होगी वह कभी भी घमंड नहीं करेगा।

ईरान की इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता की दृष्टि में प्रतिरोध के लिए अंतर्दृष्टि, दुश्मन और उसकी शैलियों की पहचान बहुत ज़रूरी है। जिस इंसान के पास दुश्मन की शैलियों की पहचान न न हो वह सही तरह से प्रतिरोध नहीं कर सकता है। अतः जो इंसान, समाज या देश सही व सफल प्रतिरोध करना चाहते हैं उन्हें दुश्मन और उसकी शैलियों की पहचान भी बहुत ज़रूरी है और सर्वोच्च नेता कहते हैं कि जिस राष्ट्र के पास अंतर्दृष्टि और धैर्य होगा दुश्मन उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता, उसे आघात नहीं पहुंचा सकता और इस प्रकार के राष्ट्र से मुकाबले में दुश्मन को कोई सफलता नहीं मिलेगी।

बहरहाल श्रोताओ जैसाकि आपको ज्ञात है कि जनरल क़ासिम सुलैमानी वह महान हस्ती थे जिन्हें अमेरिका के आतंकवादी सैनिकों ने शहीद कर दिया था. आतंकवाद और आतंकवादी गुटों के खिलाफ संघर्ष के महानायक जनरल क़ासिम सुलैमानी को शहीद करके अमेरिका ने आतंकवाद से मुकाबले में अपने दावे की वास्तविकता व सच्चाई को साबित कर दिया. यही नहीं उसके इस कृत्य ने यह भी साबित कर दिया कि वह मानवाधिकारों की रक्षा में कितना सच्चा है. अमेरिका और वर्चस्ववादी शक्तियों को जान लेना चाहिये कि जनरल कासिम की शहादत से इस्लामी जगत को नुकसान ज़रूर पहुंचा है परंतु जनरल क़ासिम सुलैमानी ने अपनी शहादत से पहले एक नहीं बल्कि हज़ारों क़ासिम सुलैमानी तैयार कर दिये हैं और ईश्वर की राह में उनके प्रतिरोध और जेहाद का मार्ग न केवल रुका नहीं है बल्कि पूरे साहस के साथ जारी है और जारी रहेगा.

 

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