रमज़ान-3
आज पवित्र रमज़ान की तीन तारीख़ है। कार्यक्रम शुरु करने से पहले हम आज की दुआ सुनते हैं।
तीसरे दिन की दुआ का अनुवाद इस तरह है, हे ईश्वर आज के दिन मुझे चेतना और जागरुकता प्रदान कर तथा अज्ञानता और व्यर्थ बातों को दूर कर दे और हे सबसे बड़े दानी, आज के दिन तू जो भी भलाई उतारेगा, मुझे भी उससे लाभान्वित कर।
पवित्र रमज़ान की तीसरी तारीख़ है, बंदगी और उपासना का महीना चल रह है। तीन दिन से आसमान के दरवाज़े खुले हुए हैं और ईश्वरीय अनुकंपाओं की नदियां कल कल करती बह रही हैं। रमज़ान एसी अनुकंपा और नेअमत है जिसका कभी भी अंत नहीं होता, हम किस तरह से इस महान अनुकंपा का शुक्र अदा करेंगे? ईश्वर की सारी अनुकंपाएं बड़ी हैं और सभी का शुक्र अदा करना हमारे ऊपर अनिवार्य है।
पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम का एक प्रसिद्ध कथन है कि ईमान के दो हिस्से हैं, आधा हिस्सा सब्र और धैर्य है और दूसरा आधा शुक्र और आभार व्यक्त करना है। ईश्वर के आदेशों, उसके अनुसरण तथा गुनाह छोड़ने पर धैर्य और अनुकंपाओं पर शुक्र करना। हर नेमत पर वास्तविक शुक्र यह है कि उस नेमत का सभी ढंग से इस्तेमाल किया जाए, उसे बर्बाद न किया और उसको बर्बाद होने से बचाया जाए। अगर अल्लाह ने हमें ज़बान दिया है तो उसे हम ईश्वर का गुणगान करने और सत्य की ओर निमंत्रण देने के लिए प्रयोग करें और लोगों के साथ नर्म रवैया अख़्तियार करें। अपनी ज़बान से किसी की पीठ पीछे बुराई न करें, किसी पर आरोप न लगाएं, किसी को गाली न दें या किसी को बुरे नाम से न पुकारें। अपनी आंखों को बुरे कर्मों और और बुरी चीज़ों से बंद रखें, अपने हाथों से दूसरों की मदद करें और अपने हाथों से दूसरों को तकलीफ़ न पहुंचाएं और अपने दिल को पापों में ग्रस्त न करें, यह सभी चीज़ों का ख़याल रखना चाहिए,अगर हमने इन सब चीज़ों का ध्यान नहीं रखा तो यह सब ईश्वरीय नेमतों को बर्बाद करने के अर्थ में होगा।

हम सबको चाहिए और साथ ही हम सबको यह याद रखना चाहिए कि हमारे पास जो भी नेमत है, छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीज़, सब अल्लाह की दी हुई है, हमारा सारा वजूद उसकी नेमत है, इन सब चीज़ों को प्रदान करने के लिए ईश्वर ने हमें कुछ नहीं चाहा, हम से कुछ करने को नहीं कहा, इसी लिए हमको भी बिना किसी भूमिका के उसकी नेमतों और अनुकंपाओं पर शुक्र अदा करना चाहिए।
आत्मशुद्धता और आत्मनिर्माण का परिणाम, ईश्वर की बंदगी है। बंदगी यानी ईश्वर के सामने पूर्ण रूप से नतमस्तक होना, इसका अर्थ व्यापक है जो इबादत से अधिक विस्तृत है। ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए किसी भी काम को अपनी इच्छा से छोड़ना या उसे अंजाम देना बंदगी का ही भाग है। अगर इंसानों को मोक्ष प्राप्ति और कल्याण प्राप्ति के लिए नमाज़ पढ़ने और रोज़ा रखने का आदेश दिया गया है तो वह इसलिए कि इन कार्यों में बंदगी भी उन्हें अन्य इबादतों की भांति लक्ष्य की ओर मार्गदर्शित करती है।
बंदगी, ईश्वर के ज़िक्र और उसके गुणगान के साथ होती है, यही ज़िक्र मोक्ष प्राप्ति का एक ज़रिया है। क़ुरआन के अनुसार, अल्लाह का अधिक ज़िक्र करो, शायद तुम्हें मोक्ष प्राप्त हो जाए। जो लोग ईश्वर का ज़िक्र करते हैं, वे जानते हैं कि ईश्वर के नामों से ज़बान और दिल को प्रकाशमय करने से ईश्वर के साथ संपर्क स्थापित होता है और ईश्वर की पहचान हासिल होती है। इंसान की आत्मा ईश्वर के गणगान से शुद्ध होती है और इससे पारदर्शिता प्राप्त होती है। ईश्वर अपने गुणगान को दिलों को प्रकाशमय करने का कारण मानता है।
निराशा और मायूसी, इंसान को अँधेरे में डुबो देती है, इस प्रकार से कि हज़रत अली (अ) अपने बड़े को पहली नसीहत करते हुए दिल को तरो-ताज़ा रखने पर बल देते हुए कहते हैं, मेरे प्यारे बेटे, मैं तुम्हें बुराईयों से दूर रहने, ईश्वर के आदेशों का पालन करने, दिल और आत्मा को तरो-ताज़ा रखने और ईश्वरीय रस्सी को मज़बूती से पकड़े रहनी की नसीहत करता हूं।

अनुकंपाएं प्रदान करने वाले ईश्वर का हमारे ऊपर यह हक़ है कि हम केवल उसकी इदाबत करें और किसी को भी उसका समतुल्य और भागीदार क़रार न दें, कुछ लोग ईश्वर की उपासना स्वर्ग में जाने के लिए करते हैं जबकि कुछ लोग नरक की आग से बचने के लिए अल्लाह की इबादत करते हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम की नज़र में एसे लोग व्यापारी हैं। यहां पर कुछ एसे भी लोग हैं जो ईश्वर की उपासना केवल उसका आभार व्यक्त करने और उसका शुक्र अदा करने के लिए करते हैं, इस प्रकार की उपासना करने वालों को स्वतंत्र इबादत करने वाले की इबादत क़रार दिया जाता है, वह उपासना जिसका ईश्वर ही पात्र है।
स्वतंत्र लोग जहां कभी भी होते हैं,वह कभी यह नहीं भूलते कि उन्हें ईश्वर का आभार व्यक्त करना चाहिए। वह कभी भी अलहमदुलिल्लाह को नहीं भूलते, चाहे वह ख़ुशी का माहौल हो या दुख का वातावरण हो, चाहे बीमारी हो या स्वास्थ्य हो, हर समय उसका शुक्र ही अदा करना चाहिए। हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति अल्लाह की किसी नेमत की वजह से अलहदुलिल्लाह कहता है, तो उसने नेमत का शुक्र अदा किया। पवित्र ईश्वर क़ुरआन में वादा करता है कि अगर तुमने मेरी अनुकंपाओं पर शुक्र अदा किया तो निश्चित रूप से तुम्हें ज़्यादा अनुकंपाएं दी जाएंगी। पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों ने भी ईश्वर का आभार व्यक्त करने को अनुकंपाओं में वृद्धि और निर्धनता और ग़रीबी से दूरी का कारण बताया है, जिस नेमत पर शुक्र अदा नहीं किया वह उस गुनाह की भांति रहता है जिसे माफ़ नहीं किया गया हो।
तीस दिन का रोज़ा वास्तव में वे दिन हैं जिसमें इंसान स्वयं को उन चीज़ों से भी रोकता है जो वैध होती हैं और वह इंसान को पसंद भी होती हैं। रोज़े की हालत में इंसान हर वह कार्य करने का प्रयास करता है जिससे इंसान तक़वे तक पहुंचता है। जैसे सामूहिक रूप से पढ़ी जाने वाली नमाज़ों में भाग लेना, मुस्तहब व ग़ैर अनिवार्य नमाज़ें पढ़ना, पवित्र कुरआन की तिलावत करना और रातों को जाग कर महान ईश्वर की उपासना करना।
पवित्र कुरआन ने परिपूर्णता और स्वर्ग प्राप्त करने को तक़वे पर निर्भर बताया है और स्वर्ग की असंख्य नेअमतों को मुत्तक़ीन अर्थात तक़वा रखने वालों को देने का वादा किया है। सावधान रहने वाले हर उस चीज़ से दूरी करते हैं जिससे दूरी करने के लिए बुद्धि और धर्म दोनों कहते हैं और इस मार्ग से वे मानवीय परिपूर्णता का मार्ग तय करते हैं।

किसी हद तक अपनी क्षमता के अनुसार ख़ुद को संवारने का प्रयास करता है। रमज़ान के महीने में ईश्वर का ज़िक्र और गुणगान हो रहा है, यह आत्मनिर्माण और बंदगी का महीना है, इस महीने में रोज़ेदार ईश्वर की मेज़बानी और प्रेम का लुत्फ़ उठाते हैं। इस महीने में उन लोगों को इस मूल्यवान दावत का फल मिलता है। इसका मूल्यवान फल, स्वयं से संपर्क, ईश्वर से संपर्क और उसके बंदों से संपर्क करना है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के मुताबिक़, यह महानता, गौरव और सम्मान का महीना है और इसे अन्य महीनों पर प्राथमिकता दी गई है। बेहतर होगा प्रेम और शुद्ध नीयत के साथ इससे लाभान्वित हों और उसके सुन्दर दिनों और आध्यात्मिक सुबहों को ईश्वर से बातचीत एवं प्रेमपूर्वक दुआओं के लिए लाभ उठाएं और कल्याण प्राप्त करें।