ईश्वरीय आतिथ्य-10
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दसवें दिन की दुआ और उसका अनुवाद... हे मेरे स्वामी आज के दिन मुझे उन लोगों में सम्मलित कर जो तुझ पर भरोसा करते हैं, तेरे समक्ष कल्याण व मोक्ष तथा तेरा सामिप्य प्राप्त करते हैं, तुझे तेरे उपकार की सौगंध, हे चाहने वालों की अंतिम इच्छा।
(last modified 2023-04-09T06:25:50+00:00 )
Apr १२, २०२२ १५:२६ Asia/Kolkata

दसवें दिन की दुआ और उसका अनुवाद... हे मेरे स्वामी आज के दिन मुझे उन लोगों में सम्मलित कर जो तुझ पर भरोसा करते हैं, तेरे समक्ष कल्याण व मोक्ष तथा तेरा सामिप्य प्राप्त करते हैं, तुझे तेरे उपकार की सौगंध, हे चाहने वालों की अंतिम इच्छा।

रोज़ेदार दोस्तो और साथियों आपकी नमाज़े और उपासनाएं क़बूल हों।  रमज़ान का पवित्र महीना चल रहा है, यही वह महीना है जिसमें हम अपने जीवन में ईश्वर की उपस्थिति और अपनी उपस्थिति को ईश्वर के समक्ष पहले से अधिक आभास कर रहे हैं। जी हां हम सब ईश्वर के समक्ष मौजूद हैं। हमारे दिल, धर्म और ईमान तथा हमारे जीवन के अर्थ एक नये ही रंग व रूप में ढल गये हैं। इस पवित्र महीने में पाया जाने वाला माहौल हर चीज़ और हर इंसान के जीवन को इस्लामी जीवन शैली की ओर मार्गदर्शित करता है।

रमज़ान जिस तरह से रोज़ा रखने वाले के मन और आत्मा को बदलता और स्वच्छ करता है उसी तरह से इस्लामी देशों के शहरों को भी अलग रंग में रंग देता है । दुआओं की आवाज़ें, इफ्तार की तैयारी , दावतें और शाम के वक्त बाज़ारों में खास तरह की चहल पहल , ऐसी चीज़े हैं जो रमज़ान के महीने में ज़्यादा स्पष्ट रूप से और अलग तरह से नज़र आती हैं। ईरान में भी अन्य इस्लामी देशों की भांति रमज़ान का विशेष रूप हर नगर में देखने को मिलता है  लेकिन मशहद और कुम जैसे पवित्र नगरों में अंदाज़ , ज़रा अलग होता है और अलग होने के साथ ही इतना मनमोहक होता है कि हर आस्थावान का मन मोह लेता है।

इस्लामी जीवन शैली में कुछ बिन्दु बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। सबसे पहले आरंभ में हमे आंतरिक स्थिति के साथ ही साथ बाहरी हालात पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए, दूसरा समाज और लोगों को महत्व देना और अंत में सामाजिक और व्यक्तिगत व्यवस्थाओं का ख़याल रखना। इस कार्यक्रम में हम कुछ अन्य विषयों पर रोशनी डालेंगे, हमारे साथ रहिए।

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इस्लाम धर्म में इंसान की आस्था व ईमान तथा उसके बर्ताव के बीच बहुत ही गहरे संबंध पाए जाते हैं, यह हो ही नहीं सकता कि कोई ईश्वर और प्रलय पर ईमान तो रखता हो लेकिन धार्मिक न हो। इस तरह से अगर कोई यह दावा करे कि उसने कर्म की आंतरिक स्थिति को हासिल कर लिया है तो वह इबादत के विदित रूप से माफ़ है, उसका यह तर्क स्वीकार ही नहीं किया जाएगा। पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम ख़ुद भी बातिनी दर्जे के सबसे ऊच्च स्थान पर थे और कभी भी उन्हें कर्म के विदित रूप को भी नहीं छोड़ा, बल्कि वह अनिवार्य चीज़ों को अंजाम देने और वर्जित चीज़ों को छोड़ने में दूसरे से ज़्यादा ध्यान देते थे।

पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम चीज़ों की आंतरिक स्थिति पर ध्यान देकर मोमिनों को ज़ाहिरी अमल से नहीं रोकता, जैसा कि धर्म के विदित मामलों में व्यस्त रहने की वजह से उसे आंतरिक मामलों से निश्चेत रहने की अनमति नहीं देते। मूल रूप से कर्म के आंतरिक व विदित रूप, एक वास्तविकता के दो रूप हैं कि इनमें से एक पर ध्यान दिए बिना दूसरे पर ध्यान रखने का कोई फ़ायदा नहीं है, मानो आपने उस वास्तविकता को अधूरा ही समझा और उसे पूरा समझने के लिए आपको दूसरे अंश की आवश्यकता होगी।

पवित्र क़ुरआन में ईश्वर मुसलमानों को नेक अमल या भले कर्म करने का निमंत्रण देता है, सालेह अमल वह काम है जो स्वच्छ और सच्ची आस्था से पैदा हो लेकिन जब तक वह आस्था और पाक नीयत अमल के चरण में नहीं आएगी तो निश्चित रूप से उसका कर्म भले कर्मों में हिसाब ही नहीं होगा, अब यहां पर यह बात स्पष्ट हो गयी है कि भले कर्म के लिए सच्ची और अच्छी आस्था पर्याप्त नहीं है बल्कि कर्म की निर्भरता समय और स्थान तथा हालात पर है।

इस्लामी जीवन शैली में दूसरा अहम बिन्दु, समाज और व्यक्ति पर ध्यान देना है। इस्लाम धर्म हमेशा इस बात पर बल देता है कि उपासना को एक साथ मिलकर अंजाम देना चाहिए। यहां तक कि जमाअत में लोगों की संख्या दो ही क्यों न हो, यह व्यक्तिगत इबादत से बेहतर है। यहां पर इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि हज वह इबादत है जिसे सामूहिक रूप से अंजाम दिया जाता है या नमाज़े जमाअत के आयोजन पर इस्लाम धर्म में विशेष रूप से ध्यान दिया गया है। इबादत अंजाम देने में विशेष क्रम या व्यवस्था पर ध्यान दिया गया है, विशेषकर जब लोग एक लाइन में नमाज़ पढ़ते हुए नज़र आते हैं या एक ही लाइन में हज को अंजाम देते हैं या काबे का तवाफ़ करते हैं, यह एक अलग ही दृश्य पैदा करता है।

इस्लाम धर्म चाहता है कि यही क्रम, एकता और सहृदयता, मोमिनों के अंदर भी पायी जाए। यह दिली एकता और एकजुटता उसी समय व्यवहारिक हो सकती है जब दुनिया के सारे मुसलमान एक नेतृत्व की छाया में आ जाएं और उसके आदेशों का पालन करें और उसके बताए रास्ते पर चलें। अलबत्ता यहां पर यह शर्त ज़रूरी है कि मुसलमान जिस नेतृत्व और नेता का अनुसरण कर रहे हैं, वह ग़लतियों और पापों से दूर हो, या मासूम हो। इमाम मासूम के नज़रों से ओछल होने के काल में इस्लामी समाज की रक्षा और उसकी एकता के लिए हमें एक पवित्र और पाक दामन धर्मगुरु का अनुसरण करना होगा जो धर्म के बारे में पूरी जानकारी भी रखता है और उसे धर्म के सारे नियम व क़ानून अच्छी तरह पता हों।

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जिस व्यक्ति का हम अनुसरण कर रहे हैं उसे आवश्यक राजनैतिक और सामाजिक जानकारियां होनी चाहिए, अत्याचारियों और ज़ालिमों के मुक़ाबले में डटने की ताक़त भी होनी चाहिए। इस तरह के व्यक्ति का अनुसरण समाज को हर प्रकार की समस्याओं से इमाम मासूम के प्रकट होने तक बचा सकता है। यहां पर इस्लाम धर्म में व्यक्ति और समाज दोनों ही अहम हैं और धार्मिक व सांसारिक विकास और श्रेष्ठता, हमेशा से साथ ही में व्यवहारिक होती है। इस्लाम धर्म में सारी उपासनाओं का व्यक्तिगत आयाम भी है और सामूहिक आयाम भी है, रोज़ा और रोज़ा रखना भी इससे अलग नहीं है।

जैसा कि हमने पहले बताया कि रोज़े का व्यक्तिगत आयाम, आत्म निर्माण और ईश्वर के साथ व्यक्ति के संबंधों में सुधार पर ध्यान केन्द्रित करना है लेकिन रोज़े की सामाजिक वजह, दूसरों की आवश्यकताओं को समझना और सामाजिक न्याय की स्थापना की कोशिश करना है। मुसलमान भूख और प्यास पर धैर्य करके उन लोगों की ज़िंदगी के हालात को अच्छी तरह समझते हैं जो अपनी आजीविका पूरा करने में समक्ष नहीं हैं। मुसलमान इस ज़िम्मेदारी को समझते हुए कि ईश्वर ने इन आवश्यकताओं को दूर करन के लिए उन पर जो ज़िम्मेदारी दी है, इसे बेहतर तरीक़े से अंजाम देने की कोशिश करते हैं।

रमज़ान के पवित्र महीने में मुसलमान हमेशा दस्तरख़ान बिछाते हैं और ग़रीबों और निर्धनों को अपने दस्तरख़ान पर दावत देते हैं। मुसलमान इस पवित्र महीने में एक दूसरे की भागीदारी से क़र्ज़दारों का क़र्ज़ अदा करने का प्रयास करते हैं और उन लोगों को जेल से आज़ाद कराने की कोशिश करते हैं जो वित्तीय संकट की वजह से जेल की सलाखों के पीछे होते हैं। नौजवानों और जवानों के लिए रोज़गार पैदा करना, वह काम है जो इस महीने में सबसे ज़्यादा मुसलमान अंजाम देते हैं। समाज का युवा वर्ग सामूहिक काम करके तथा समाज में सक्रिय रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज करके ईश्वर की प्रसन्नता भी हासिल करते हैं और समाज में रौनक़ भी पैदा करते हैं और ज़रूरतमंदों की ज़रूरतों को भी पूरा करते हैं।

यह महीना पापों का प्रायश्चित कर ईश्वर की ओर पलटने का महीना है। जिस व्यक्ति के इस महीने में पाप क्षमा न किए गए तो किस महीने क्षमा किए जाएंगे। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, ईश्वर हर रात पवित्र रमज़ान को तीन बार कहता है, क्या कोई मांगने वाला है कि उसे मैं दू, या कोई प्रायश्चित करने वाला है कि मैं उसके प्रायश्चित को क़ुबूल करूं? क्या कोई पापों की क्षमा मांगने वाला है कि मैं उसे क्षमा कर दूं?

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पवित्र रमज़ान पापों की क्षमा चाहने और प्रायश्चित करने का महीना है। जिन लोगों ने अपने जीवन में ग़लती की है और ऐसे मार्ग का चयन किया है जिसमें बर्बादी के सिवा कुछ और नहीं है, तो पवित्र रमज़ान का महीना उनके लिए प्रायश्चित करने का बेहतरीन महीना है क्योंकि इस पवित्र महीने में रोज़ेदार के मन में क्रान्ति पैदा हुयी है और उसके लिए व्यवहारिक रूप से क़दम उठाने का अवसर मुहैया हुआ है। सद्कर्म से बुराईयों से पाक होता और ईश्वर के प्रकोप से दूर होता है। इस तरह रोज़ेदार पापों के अंधकार से निकलकर नैतिक भलाइयों और प्रायश्चित के प्रकाश में दाख़िल हो जाता है। इस तरह वह ईश्वर की कृपा का पात्र बनता है।

जो चीज़ मनुष्य के कल्याण का कारण बनती है वह यह समझना है कि वह ईश्वर व उसकी महानता के समक्ष एक छोटा व तुच्छ बंद है जिसका, अपना कुछ भी नहीं है। सभी अच्छाइयां ईश्वर की ओर से हैं और जो भी समस्याएं या बुराइयां हैं उनमें वह अपने बुरे कर्मों के कारण ग्रस्त हुआ है। इंसान को यह समझना चाहिए कि अगर वह ग़लत चयन के कारण बुरे रास्ते पर चलता है तो व्यवहारिक रूप से ईश्वर से लड़ता है। उसे अपने आपको ईश्वर से भय और उससे आशा के बीच की स्थिति में बाक़ी रखना चाहिए यानी ऐसा सोचना चाहिए कि संभव है कि अत्यधिक उपासना के बावजूद किसी बड़ी ग़लती के चलते उसका अंजाम बुरा हो जाए लेकिन उसे हर हाल में ईश्वर की दया की ओर से आशावान रहना चाहिए।

ईश्वर ने स्वयं से निराशा को बड़े पापों की श्रेणी में रखा है। मनुष्य चाहे जितना बड़ा पापी हो, उसे ईश्वर की दया की ओर से निराश नहीं होना चाहिए। ईश्वर की दया इतनी व्यापक है कि अगर मनुष्य सच्चे मन से तौबा व प्रायश्चित करके उसकी ओर लौट आए तो ईश्वर उसे क्षमा कर देगा। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पर पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि कोई भी ईमान वाला बंदा ऐसा नहीं है जिसके हृदय में दो प्रकाश न हों, एक ईश्वर से भय का प्रकाश और दूसरे उससे आशा का प्रकाश और अगर इन दोनों को तौला जाए तो इनमें से किसी को भी दूसरे पर श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है।

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