13 रमज़ानः महान ईश्वर से कौन लोग डरते हैं?
हे मेरे अल्लाह मुझे अपने नेक बंदों के आभूषणों से सजा और मुझे पवित्र लोगों के वस्त्र पहना। ऐसा वस्त्र जिससे न्याय को स्थापित कर सकें और क्रोध को दबा सकें, मुझे ऐसा बना कि समाज में फैली गंदगियों को साफ़ कर सकूं और लोगों की आपसी दुश्मनियों को ख़त्म करा सकूं और मोमिनों के बीच एकता व एकजुटता पैदा कर सकूं। दोस्तो इन्हीं शब्दों के साथ सबसे पहले चलते हैं और तेहरवें दिन की दुआ और उसका अनुवाद सुनते हैं।
तेहरवें दिन की दुआः “हे मेरे अल्लाह आजके दिन मुझे बुराईयों और अपवित्र बातों से पवित्र बना दे, तेरे द्वारा निर्धारित बातों एवं सुखद व कटु घटनाओं पर धैर्यवान बना और अपनी सहायता से मुझे पवित्रता अपनाने तथा भले लोगों का साथ प्राप्त करने का सामर्थ प्रदान कर, हे असहायों के सहारे।”
महान व कृपालु ईश्वर ने इस पवित्र महीने में समस्त इंसानों के लिए अपनी असीम कृपा का द्वार खोल दिया है। हर इंसान अपनी क्षमता व योग्यता के अनुसार इस पवित्र महीने की बरकतों से लाभ उठाता है। हालांकि रोज़े में इंसान विदित रूप से खाता-पीता नहीं है लेकिन रोज़े से सही अर्थों में लाभ उठाने के लिए रोज़ेदार को चाहिए कि उसके शरीर के समस्त अंग भी रोज़ा रखें। दूसरे शब्दों में रोज़ेदार को चाहिए कि वह अपनी ज़बान से कोई पाप अंजाम न दे किसी की बुराई न करे अपने हाथों से कोई ग़लत कार्य अंजाम न दे और आंखों से हराम अर्थात वर्जित चीज़ न देखे। कानों से किसी की बुराई न सुने। संक्षेप में यह कि रोज़ेदार को चाहिए कि वह अपने शरीर के अंगों को भी हर प्रकार के पाप से बचाए। जो वास्तविक रोज़ेदार होता है वह अपनी ज़बान को झूठ बोलने, दूसरे की बुराई करने, दुसरों को बुरा-भला कहने और दूसरों पर आरोप लगाने से रोक कर रखता है। इसी तरह वह अपने कानों को बुरी चीज़ों को सुनने से रोके रखता है। वास्तविक रोज़ेदार अपनी आंखों को किसी भी नजाएज़ चीज़ देखने की अनुमति नहीं देता है। समाज में बहुत सी ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें देखने से इंसान के अंदर पाप करने की भावना उत्पन्न होती है यानी वे चीज़ें इंसान को पाप करने के लिए उकसाती हैं तो वास्तविक रोज़ेदार को चाहिए कि जो दृश्य उसे पाप करने के लिए उकसायें उन्हें देखने से परहेज़ करे।

रोज़े का एक लाभ यह है वह इंसान के अंदर पापों से दूर रहने की क्षमता उत्पन्न करता है। जो लोग अपने आपको पापों से नहीं रोक पाते हैं रमज़ान का पवित्र महीना ऐसे लोगों के लिए बेहतरीन अवसर है। यह मेहमानी किसी एक दिन की नहीं बल्कि पूरे महीने की होती है। यह अवसर, स्वयं को सुधारने का उचित अवसर है। एक महीने की ईश्वरीय मेहमानी में लोगों के हृदय नर्म हो जाते हैं, आत्मशुद्धि का अवसर प्राप्त होता है और लोग आत्मनिर्माण के लिए अधिक तैयार होते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं कि वे पाप करते हैं और बाद में प्रायश्चित कर लेते हैं। इसके विपरीत कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो इतना अधिक पाप कर लेते हैं कि उनके लिए पाप करना एक सामान्य सी बात होती है। ऐसा व्यक्ति जिसके लिए पाप करना एक सामान्य बात है वह धीरे-धीरे ईश्वर की रहमत से दूर होता जाता है। इस प्रकार से वह ग़लत रास्ते पर बढ़ता जाता है। यही कारण है कि मनुष्य को सदैव बुराइयों से बचते रहना चाहिए। सदैव ही स्वयं को बुराइयों से दूर करने की प्रक्रिया को ही तक़वा या ईश्वरीय भय कहा जाता है। एसा व्यक्ति जो अपनेआप को हमेशा बुराइयों से दूर रखता है उसे "मुत्तक़ी" कहते हैं। तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय रखने वाले दुनिया में सराहनीय व अच्छे लोग हैं। क़ुरआन की आयतों और मासूमीन (अ) के कथनों के अनुसार, रोज़ा रखने का फ़लसफ़ा ही तक़वे तक पहुंचना है।
तक़वा यानी स्वयं का ध्यान रखना व निरीक्षण करना। इस बात पर ध्यान रखना कि क्या-क्या चीज़ें अल्लाह को पसंद है और कौन-कौन सी चीज़ें उसे नहीं भाती है। एक मोमिन व्यक्ति खुले नेत्रों से और जागरुक दिल से जीवन के मामलों व समस्याओं का सामना करता है। इस बात का ध्यान रखता है कि उसका कोई कार्य महान ईश्वर की इच्छा और धर्म के खिलाफ़ न हो। लेकिन एक मोमिन का जीवन सिर्फ एक निजी जीवन नहीं है बल्कि इसके कई सामाजिक पहलू हैं। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम सहीफ़े सज्जादिया की बीसवीं दुआ में तक़वे के संबंध में फ़रमाते हुए कहते हैं कि “हे मेरे अल्लाह मुझे अपने नेक बंदों के आभूषणों से सजा और मुझे पवित्र लोगों के वस्त्र पहना। ऐसा वस्त्र जिससे न्याय को स्थापित कर सकें और क्रोध को दबा सकें, मुझे ऐसा बना कि समाज में फैली गंदगियों को साफ़ कर सकूं और लोगों की आपसी दुश्मनियों को ख़त्म करा सकूं और मोमिनों के बीच एकता व एकजुटता पैदा कर सकूं।” इमाम सज्जाद (अ) ने इस दुआ में जितनी भी बातें की हैं उन सभी का समाजिक पहलू है। इससे यह साबित होता है कि तक़वे का अर्थ इस्लाम में केवल कोई व्यतिगत काम नहीं है। बल्कि व्यक्तिगत तक़वा उसी वक़्त अपने चरम पर पहुंचता है जब वह सामाजिक पवित्रता की ओर ले जाए और जब सामाजिक पवित्रता प्राप्त होती है, तो यह समाज में व्यक्तियों को उनके विश्वास को मज़बूत करने में मदद करती है।

समाजिक तक़वे की अर्थ यह है कि समाज ख़ुद इस बात का ध्यान रखे कि अल्लाह के आदेशों का उल्लंघन न हो। कहा जा सकता है कि अपने मन को आंतिरक इच्छाओं के हवाले करना और उसका अंधा अनुसरण, तक़वा न होने का चिन्ह है। यह कार्य उच्च लक्ष्यों तक पहुंचने में बाधा बनता है। इसके विपरीत तक़वा अर्थात पापों से बचाव ईश्वरीय अनुकंपाओं को आकर्षित करता है और लोगों तथा राष्ट्रों के कल्याण तथा उनके गर्व का कारण बनात है। यहां पर तक़वे से हमारा तात्पर्य केवल स्वर्ग की कामना तथा मोक्ष की प्राप्ति नहीं है बल्कि यह विशेषता इस नश्वर संसार में भी अपने बहुत से प्रभाव प्रकट करती है। वह समाज जो अपने मार्ग का सही ढ़ंग से चयन करता है और बड़ी ही दृढ़ता तथा दूरदर्षिता से उस पर चलता है ऐसे समाज में जीवन का वातावरण स्वस्थय और सदस्यों के बीच परस्पर सार्थक सहकारिता पर आधारित होता है। पवित्र क़ुरआन ने सही मार्ग का मानव के लिए मार्गरदर्शन किया है। वह चाहता है कि मनुष्य हर स्थिति में इस बात का ध्यान रखे कि उसके क्रियाकलापों पर ईश्वर नज़र रखे हुए है। अतः मनुष्य को विनम्र होना चाहिए ताकि वह मोक्ष और कल्याण को प्राप्त कर सके। सीधे मार्ग पर चलने के लिए हमे तक़वे की आवश्यकता है। पवित्र माहे रमज़ान के रोज़े तक़वे की प्राप्ति तक पहुंच की भूमिका प्रशस्त करते हैं।
तक़वे का शाब्दिक अर्थ होता है ईश्वरीय भय लेकिन यह भय से पहले स्वयं को हर प्रकार की बुराई और पाप से दूर करने के अर्थ में है। मनुष्य को केवल बाहरी तक़वे को पर्याप्त नहीं समझना चाहिए बल्कि आंतरिक तक़वे की ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए। इसका अर्थ होता है कि रमज़ान के पवित्र महीने में अपने भीतर से ईर्ष्या, क्रोध, मोह, भ्रष्टाचार, छल-कपट, धोखाधड़ी, उत्पीड़न, विश्वासघात और शोषण सहित अन्य नैतिक बुराइयों को दूर करके अच्छी विशेषताओं को अपनाना चाहिए। मनुष्य के भीतर पाई जाने वाली अच्छी बातें स्वस्थ मन की परिचायक हैं। नैतिकशास्त्र के गुरूओं का कहना है कि यदि कोई अपने भीतर से बुरी बातों को नहीं निकालता तो दिखावे की बातों से कुछ होने वाला नहीं है। कितना अच्छा हो कि मनुष्य रमज़ान के पवित्र महीने में स्वयं से मन की बीमारियों को दूर करते हुए तक़वे को अधिक मज़बूत बनाए। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि तक़वा एक एसी स्थिति का नाम है जो मनुष्य को हर प्रकार की बुराइयों से रोके रखती है ताकि वह ग़लत रास्ते पर अग्रसर न होने पाए। यह एक कवच की भांति है जो मनुष्य को हर हमले से बचाए रखती है। यह बात केवल धार्मिक या आध्यात्मि मामलों तक सीमित नहीं है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में मनुष्य को सुरक्षित करती है। वास्तविकता यह है कि हर वह मुत्तक़ी व्यक्ति, ईश्वर के भय से बुरे कामों से बचे तो ईश्वर भी उसकी सहायता करता है। ईश्वर ऐसे व्यक्ति के लिए समस्याओं के समय मुक्ति के मार्ग पैदा करता है। ऐसे व्यक्ति के लिए ईश्वर उन स्थानों से उसके लिए मदद पहुंचाता है जिसके बारे में उसने सोचा भी नहीं होगा। वह व्यक्ति जो कल्याण और परिणपूर्णता के मार्ग पर अग्रसर हो एसा व्यक्ति, अपने प्रयास से पीछे नहीं हटता।

तक़वे की एक अहम चीज़ अमल है और जो कार्य तक़वे के साथ अंजाम दिया जाता है उसका विशेष महत्व होता है। इंसान तक़वे के चरणों को तय करने के लिए पापों से दूरी करता है, अपने दिल और ज़बान को बुरे कार्यों से दूर रखता है। अच्छे कार्यों को अंजाम देकर अपने तक़वे की शक्ति व क्षमता को अधिक करता है। अलबत्ता समस्त इंसानों में अच्छे कार्यों को अंजाम देने की भावना मौजूद होती है परंतु जो लोग तक़वा रखते हैं यानी महान ईश्वर से डरते हैं उनमें अच्छे कार्य अंजाम देने की भावना अधिक होती है और रमज़ान के पवित्र महीने में यह भावना अधिक हो जाती है क्योंकि यह दिलों को स्वच्छ बनाने का महीना है। जो इंसान तक़वा रखते हैं यानी मुत्तकी हैं उनके भले कार्य अंजाम देने और वे इंसान जो तक़वा नहीं रखते हैं उनमें भले कार्य अंजाम देने में अंतर यह है कि जो इंसान ईश्वरीय भय रखता है वह केवल महान ईश्वर की प्रसन्नता के लिए भले कर्म करता है और यही शुद्ध नियत है जो आध्यात्मिक सुन्दरता को सैक़ल देती है जबकि जो इंसान तक़वा नहीं रखते हैं संभव है कि वे दूसरे कारणों से भले कार्यों को अंजाम दें। पवित्र क़ुरआन की दृष्टि में भले कार्य की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता शुद्ध नियत के साथ उसे अंजाम देना है। यानी अपने को बड़ा बताने और लोगों को दिखाने के लिए नहीं बल्कि तक़वा रखने वाला इंसान केवल महान ईश्वर की प्रसन्नता के लिए भले कार्यों को अंजाम देता है।