रमज़ान-15
हे ईश्वर, इस महीने में मुझे विनम्र लोगों की आज्ञाकारिता प्रदान कर और मुझे विनम्र लोगों की तरह अपनी ओर पलटने का अवसर प्रदान कर, हे भयभीतों को सुरक्षा प्रदान करने वाले, मुझे भी सुरक्षा प्रदान कर।
तपस्वी लोगों की एक निशानी, क्रोध को नियंत्रित करना और उसे दबाना है। क़ुरान के सूरए आले इमरान की 134वीं आयत के मुताबिक़, तपस्वी वे लोग हैं, जो अमीरी और ग़रीबी में दान देते हैं, और अपने क्रोध को दबाते हैं, और लोगों की ग़लती को माफ़ कर देते हैं, और ईश्वर अच्छे कर्म करने वालों से प्यार करता है।
तपस्या और धर्मपरायणता का क्रोध पर क़ाबू पाने से मज़बूत संबंध है। पैग़म्बरे इस्लाम ने धैर्यवान और सब्र करने वाले व्यक्ति को ख़ुद से सबसे नज़दीक क़रार दिया है। क्रोध पर क़ाबू पाना इतना महत्वपूर्ण है कि हज़रत इमाम अली (अ) सिरफ़ारिश करते हैं: अगर आप सहिष्णु नहीं हैं, तो ख़ुद को सहनशील दिखाओ, क्योंकि बहुत ही कम ऐसा होता है कि कोई शख़्स ख़ुद को किसी समूह की तरह दिखाने का प्रयास करे और जल्द ही वह वैसा नहीं हो जाए।
इस्लाम में ग़ुस्से पर क़ाबू पाने के कई रास्ते सुझाए गए हैं। पैग़म्बरे इस्लाम का कहना है कि जब ग़ुस्सा आए तो वज़ू कर लो, क्योंकि ग़ुस्सा शैतानी कार्य है, शैतान आग से बना है और आग पानी से बुझ जाती है। वे एक दूसरे स्थान पर कहते हैं कि जो कोई भी अपने ग़ुस्से पर क़ाबू पाएगा, ईश्वर उसे अपने प्रकोप से सुरक्षित रखेगा।
ग़ुस्से पर क़ाबू पाने, धैर्य और परिपक्वता के बीच बहुत गहरा ताल्लुक़ है। वास्तव में जो कोई भी उस चीज़ पर धैर्य रखे, जिससे उसे ग़ुस्सा आता है, तो वह अपने ग़ुस्से पर क़ाबू हासिल कर सकता है। हज़रत अली (अ) ग़ुस्से की व्याख्या करते हुए कहते हैः सब्र का मतलब यह है कि इंसान मुश्किल के समय सब्र करे और जिस चीज़ से उसे ग़ुस्सा आता है, उसे नज़र अंदाज़ कर दे।
हम सभी ने पैग़म्बरे इस्लाम के सब्र और विनम्रता के क़िस्से सुन रखे हैं। उनकी इसी विशेषता की वजह से बड़ी संख्या में यहूदियों और मूर्ति की पूजा करने वालों ने इस्लाम स्वीकार किया था। एक बूढ़ी यहूदी महिला हर रोज़ पैग़म्बरे इस्लाम पर कूड़ा फेंका करती थी। पैग़म्बरे इस्लाम उसके इस व्यवहार पर सब्र किया करते थे और कभी भी ग़ुस्सा नहीं करते थे। एक दिन जब पैग़म्बरे इस्लाम उसी रास्ते से और उस बूढ़ी महिला के घर के सामने से गुज़रे तो उन्होंने देखा कि उन पर उस महिला ने कूड़ा नहीं फेंका। पैग़म्बरे इस्लाम ने इसका कारण पूछा, लोगों ने बताया कि बूढ़ी बीमार हो गई है। पैग़म्बरे इस्लाम तुरंत उसका हालचाल पूछने उसके घर में गए। वह बूढ़ी महिला उनके इस आचरण और व्यवहार से बहुत प्रभावित हुई और उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया।
रमज़ान की 15वीं तारीख़ से एक सुखद महक आती है। इस दिन ईश्वरीय आतिथ्य शिया मुसलमानों के दूसरे इमाम, हज़रत हसन मुजतबा के शुभ जन्म दिवस से सजी हुई है। वे एक ऐसी हस्ती थे, रमज़ान आते ही जिनकी हालत बदल जाती थी और वे इस महीने में दुआ और इबादत के लिए विशेष रूप से उत्हासित रहते थे। वे इस महीने को विशेष महत्व देते थे और रमज़ान से विशेष कई दुआएं पढ़ते थे, जो आज भी मौजूद हैं।
इक़बालुल आमाल किताब के मुताबिक़, इमाम हसन फ़रमाते थेः इफ़्तार के वक़्त, हर रोज़ेदार की एक दुआ स्वीकार होती है। इसलिए इफ़्तार के पहले लुक़मे के साथ कहना चाहिएः हे ईश्वर कि जिसकी क्षमा शक्ति अपार है, मेरे गुनाहों को बख़्श दे। एक दूसरी हदीस में इमाम हसन (अ) ने अपने भाई और ज़रूरतमंद इंसान की मदद को रोज़ा रखने और रातों को इबादत करने से भी श्रेष्ठ क़रार दिया है। इमाम हसन के मुताबिक़, ईश्वर ने रमज़ान के महीने को अपने बंदों के लिए प्रतिस्पर्धा का मैदान बना दिया है। कुछ लोग इस महीने में ईश्वर की इबादत और आज्ञापालन करके दूसरों से आगे निकल जायेंगे, जबकि कुछ लोग लापरवाही के कारण, नुक़सान उठायेंगे।
इस मुबारक महीने में जिन चीज़ों का ख़याल रखा जाना चाहिए उनमें से एक इच्छाओं को पूरा करने के लिए मन का डोलना है। वासना का सामान्य और व्यापक अर्थ है, जिसमें आनंद और इच्छा की ओर रुझान शामिल है। यह रुझान और इच्छा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए इंसान की विशेषता है। उदाहरण स्वरूप, अगर खाने की इच्छा नहीं होगी तो इंसान का स्वास्थ्य ख़तरे में पड़ जाएगा। इंसान की नस्ल भी इच्छा के परिणाम स्वरूप जारी रहती है। इसलिए इंसान की इच्छा का ईश्वर के उद्देश्य के अनुरूप होना, अच्छा होता है। लेकिन इच्छा और वासना उस वक़्त अवांछित होती है, कि जब वह बुद्धि के मातहत होने के बजाए, उस पर सवार हो जाए और उसका संतुलन बिगाड़ दे।
इसी तरह रमज़ान के महीने में रोज़ा रखना और इस महीने की बरकतों से लाभ उठाया जाना चाहिए। अफ़सोस की बात है कि कुछ लोग अतिवाद का शिकार हो जाते हैं और इस तरह से ख़ुद को नुक़सान पहुंचाते हैं। इस तरह की समस्याएं और नुक़सान, सहरी और इफ़्तार में खाने-पीने में संतुलन खो देने से उत्पन्न होती हैं। कुछ समस्याएं इबादत और धार्मिक संस्कार अंजाम देने में अति करने से उत्पन्न होती हैं। जबकि न केवल रोज़ा, बल्कि इस्लाम की बुनियाद संतुलन पर आधारित है और ज़्यादती से बचना है।
दोस्तो पिछले कार्यक्रमों की तरह कार्यक्रम के इस भाग में भी हम रोज़े के कुछ नियमों का उल्लेख करेंगे। जैसा कि आप जानते हैं, कफ्फ़ारे या प्रायश्चित का वाजिब होना, उसकी मात्रा और उसकी गुणवत्ता रोज़े के महत्वपूर्ण नियमों में से एक है। आज हम रमज़ान मुबारक में जानबूझकर रोज़ा तोड़ने के कफ्फ़ारे का उल्लेख करेंगे।
जिन अवसरों पर कफ्फ़ारा देना वाजिब होता है वह यह हैः रोज़ेदार जानबूझकर और बिना किसी जायज़ वजह के अपना रोज़ा तोड़ ले। रमज़ान में अगर कोई शख़्स जानबूझकर और बिना किसी जायज़ वजह के कोई ऐसा काम करता है कि जिससे रोज़ा टूट जाता है, तो उसे उस दिन के रोज़े के बदले में रमज़ान के बाद रोज़ा रखना होगा और उसका प्रायश्चित भी करना होगा। इसी तरह से अगर कोई किसी नुक़सान के डर से या संभावित रूप से स्वास्थ्य को पहुंचने वाले डर के कारण अपना रोज़ा तोड़ेगा तो उसे उसके बदले रोज़ा रखना पड़ेगा, लेकिन कफ्फ़ारा वाजिब नहीं होगा।
एक महत्वपूर्ण बिंदू यह है कि अगर कोई शख़्स किसी वजह से यह अनुमान लगाए कि रमज़ान में उस पर रोज़ा रखना वाजिब नहीं है और इसी वजह से रोज़ा भी नहीं रखे, लेकिन उसके बाद उसे पता चले कि उस पर रोज़ा वाजिब था, तो वह उसके बदले रोज़ा रखने के बजाए, कफ्फ़ारा भी देना होगा।
अगर कोई शख़्स धार्मिक निर्देशों से अनजान होने के कारण कोई ऐसा काम करे कि जिससे रोज़ा टूट जाता है, उदाहरण के तौर पर वह नहीं जानता है कि रोज़े की हालत में पानी में सिर डुबाने से रोज़ा टूट जाता है और वह अपना सिर पानी में डुबो ले, तो उसका रोज़ा टूट जाएगा, उसे उसके बदले रोज़ा रखना होगा, लेकिन उस पर कफ्फ़ारा वाजिब नहीं होगा। लेकिन अगर किसी वजह से उसके लिए रोज़ा तोड़ना जायज़ या वाजिब हो जाए, जैसे कि उसे ऐसे काम के लिए मजबूर किया जाए जिससे रोज़ा टूट जाता है, या किसी डूबने वाले व्यक्ति को बचाने के लिए वह पानी में कूद जाए, तो इस स्थिति में उस पर कफ्फ़ारा वाजिब नहीं होता है, लेकिन उसके बदले रोज़ा रखना होगा।
इसके अलावा, अगर रोज़ेदार के पेट से कोई खाने की चीज़ उसके मुंह में लौट आए, तो उसे फिर से नहीं निगलना चाहिए, लेकिन अगर वह जानबूझकर निगल ले तो उस पर क़ज़ा और कफ्फ़ारा दोनों वाजिब हैं। अगर कोई बताए कि सूर्यास्त हो गया है, लेकिन उस पर भरोसा नहीं होने के बावजूद रोज़ा खोल लिया जाए, बाद में रोज़ेदार को पता चले कि सूर्यास्त नहीं हुआ था, तो उस पर क़ज़ा और कफ्फ़ारा दोनों वाजिब हैं।
एक दिन हज़रत दाऊद ने ईश्वर से पूछाः हे ईश्वर, अगर कोई तेरे लिए एक दिन रोज़ा रखे, तो तू उसे क्या देगा? ईश्वर ने कहाः रोज़ा मेरे लिए है और उसका इनाम भी मैं दूंगा। रोज़ेदार दो बार ख़ुश होता है, एक जब वह इफ़्तार करता है और दूसरे जब वह इसका इनाम पाता है। मैं उसे दस चीज़ें प्रदान करता हूं। उसके गुनाहों को माफ़ कर देता हूं, उसे बहुत सा पुण्य देता हूं, उसे अपनी रहमत से निकट कर देता हूं, उसे उस द्वार से स्वर्ग में प्रवेश दूंगा जो रोज़ेदारों विशेष है, प्रलय के दिन वह प्यासा नहीं होगा, वह मेरी रहमत में डूबा हुआ है, मैं रोज़ेदार को तपस्वी लोगों की वेशभूषा प्रदान करूंगा, उसका नाम सच्चे लोगों की सूचि में लिखूंगा, उसकी दुआ को स्वीकार करूंगा और उसे बुद्धि प्रदान करूंगा।
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