रमज़ान-17
हे ईश्वर, इस महीने में अच्छे कामों के लिए मेरा मार्गदर्शन कर, और मेरी ज़रूरतों और इच्छाओं को पूरा कर, हे जिसे ज्ञान और प्रश्नों की ज़रूरत नहीं है, हे वह जो दुनिया वालों के दिलों के राज़ जानता है, मोहम्मद और उनके परिवार पर दुरुद भेज।
रमज़ान क़ुरान का महीना है। क़ुरान ने परलोक के महत्व पर काफ़ी बल दिया है। इस दुनिया के कर्म, परलोक में हमारे जीवन का आधार बनेंगे और उसका कोई अंत नहीं होगा। प्रलय पर विश्वास का इस्लाम में इतना अधिक महत्व है कि क़ुरान की 1200 आयतों में इसका ज़िक्र किया गया है। इसके अलावा भी दूसरी आयतों में अप्रत्यक्ष रूप से प्रलय और उस दिन होने वाले हिसाब किताब का ज़िक्र है।
जैसा कि क़ुरान की आयतों और मासूमीन की रिवायतों से स्पष्ट है, प्रलय या क़यामत एक बहुत ही कठिन दिन है, जिस दिन ज़मीन और आसमान उलट-पुलट हो जायेंगे, सूरज, चांद और तारे बुझ जायेंगे, पहाज़ उखड़ जायेंगे। उस दिन कोई भी दुनिया में किए गए अपने कर्मों को छिपा नहीं सकेगा, क्योंकि हमारे अंग हमारे कर्मों की गवाही देंगे।
इमाम हसन (अ) की एक हदीस के मुताबिक़, क़यामत के दिन रमज़ान का महीना, लोगों के बीच एक सुन्दर चेहरे के रूप में प्रकट होगा और ईश्वर से उन लोगों के लिए पुण्य का अनुरोध करेगा, जिन्होंने दुनिया में उसका सम्मान किया था। हां, दुनिया एक सफ़र है और आख़िरत एक अनन्त जीवन का ठिकाना। आईए और इस दुनिया से आख़िरत के लिए कुछ प्रबंधन कर लें। रोज़ा रखकर, क़ुरान की तिलावत करके और दूसरों के साथ भलाई करके अपनी अख़िरत अच्छी कर लें।
हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) ने इस इबादत पर एक अलग ही आयाम से नज़र डाली है, जो बहुत ही दिलचस्प है। वे रोज़े का हक़ और उसका महत्व बताते हुए कहते हैः यह जान लो कि रोज़ा, एक पर्दा और एक ऐसा हिजाब है, जिसे ईश्वर ने तुम्हारी ज़बान, कान, आंख और पेट पर डाल दिया है, ताकि तुम्हें नरक की आग से सुरक्षित रख सके। पैग़म्बरे इस्लाम की एक हदीस में भी रोज़े को नरक की आग के मुक़ाबले में ढाल क़रार दिया गया है। इसलिए अगर तुम्हारे अंग इस पर्दे में सुकून महसूस करें, तो तुम आशा रखो कि तुम सुरक्षित हो। लेकिन अगर तुमने उन्हें आज़ाद छोड़ दिया और पर्दे को हटा दिया तो तुम प्रलय के दिन सुरक्षित नहीं रह सकोगे।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन के मुताबिक़, रोज़ेदार को सिर्फ़ खाने और पीने से दूर नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसकी आंख, कान, दिल और ज़बान भी रोज़े की हालत में होने चाहिए। यानी इंसान को अपनी ज़बान को दूसरों की बुराई से रोकना चाहिए। कानों को बुरी बातों के सुनने से रोकना चाहिए, इसके अलावा शरीर के दूसरे अंगों को भी बुरे काम अंजाम देने से रोकना चाहिए। क्योंकि ईश्वर ने रोज़े को नरक की आग के मुक़ाबले में ढाल बनाया है। स्पष्ट है कि झूठ, किसी को पीठ पीछे बुरा कहना, आरोप मढ़ना और वासना रोज़े को उसके सही मक़सद से दूर कर देते हैं। बुराईयों से दूरी भी इंसान को आध्यात्मिक रूप से ऊपर उठाती है और ईश्वर से निकट कर देती है। इसी को तक़वा या धर्म-परायणता कहते हैं, जो रोज़ें में से एक है। जैसा कि ईश्वर ने र्ण प्रभाव हैताा भी इंसान ाया है। बुरी बातों के सुनने से रोकना चाहिएं भी के सबसे महत्वपूर्ण प्रभावों में से एक है। जैसा कि ईश्वर ने क़ुरान में कहा हैः हे ईमान वालों, रोज़ा तुम पर वाजिब है, जिस तरह से कि तुमसे पहले वालों पर भी वाजिब था, ताकि तुम तक़वा या धर्मपरायणता हासिल कर सको।
रमज़ान का पवित्र महीना आत्मनिर्माण के लिए एक महत्वूर्ण अवसर है, और इसकी शुरूआत आत्म-ज्ञान से होती है। पहले इंसान ख़ुद को अच्छी तरह से पहचान ले, ताकि ख़ुद में सुधार कर सके और अपना आत्मनिर्माण कर सके। क्योंकि आत्म-ज्ञान से ही ईश्वर की पहचान होती है। जो कोई ईश्वर को पहचान लेता है, वह उसकी ओर बढ़ता है और उसका आचरण और व्यवहार ईश्वर की मर्ज़ी के मुताबिक़ होता है। ईश्वर भी उसे आध्यात्मिक वास्तविकताओं को समझने का अवसर प्रदान करता है। उसकी मिसाल उस चालक की है जो सड़क पर जितना आगे बढ़ता है, नए दृश्य उसके सामने आते जाते हैं। इसी तरह से बंदा जितना ईश्वर की ओर आगे बढ़ता है, उसके सामने अधिक रहस्यों से पर्दा उठता है और उतना ही ईश्वर पर उसका विश्वास मज़बूत होता है।
आत्मनिर्माण का मतलब यह है कि इंसान अपने अंदर विशेष ध्यान दे और भौतिकता पर ध्यान कम दे और अपनी आत्मा का नैतिक गुणों की ओर मार्गदर्शन करे। इसीलिए पवित्र रमज़ान इंसान के लिए अपनी हक़ीक़त की ओर पलटने और अपनी मानवीय स्थिति और सार को समझने का एक अवसर है। इसी तरह से लोगों के साथ होने के बावजूद एक क्षण के लिए भी ईश्वर की याद से दूर नहीं होना चाहिए। कहा जाता है कि कुछ लोगों ने ख़ुदा के एक बंदे से कहाः हे शेख़, फ़लां व्यक्ति पानी पर चलता है और डूबता भी नहीं है। शेख़ ने कहाः बहुत आसान काम है, क्योंकि मेंढक भी ऐसा करता है। फिर उन्होंने कहाः हम एक ऐसे व्यक्ति को जानते हैं कि जो हवा में उड़ता है। शेख़ ने जवाब दियाः यह भी एक आसान काम है, क्योंकि मक्खी और मच्छर भी ऐसा करते हैं। किसी ने कहा हे शेख़, मैं एक ऐसे शख़्स को जानता हूं, जो पलक झपकते ही एक शहर से दूसरे शहर चला जाता है। शेख़ मुस्कराए और कहाः यह काम दूसरे कामों से आसान है, क्योंकि शैतान भी पलक झपकते ही पूरब से पश्चिम चला जाता है। ऐसे कामों का कोई महत्व नहीं है। उसके बाद शेख़ ने खड़े होकर कहाः आदमी वह होता है जो अपने साथियों के बीच उठता-बैठता है और खाता-पीता है और बाज़ार में अपने साथियों के बीच व्यापार करता है। लोगों के साथ जीवन व्यतीत करता है और एक पल के लिए भी ईश्वर को नहीं भूलता है।
दोस्तो रमज़ान की नूरानी रातों में आपका साथ, हमारे लिए ख़ुशी का कारण है, लेकिन अफ़सोस यह मौक़ा हाथ से जा रहा है। आईए इस मौक़े पर एक साल की रसद जमा कर लें और अगले साल तक के लिए रमज़ान के नूर और रौशनी को अपने अंदर समा लें।
ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनई इस संदर्भ में कहते हैः हर साल रमज़ान का महीना, स्वर्ग का एक टुकड़ा होता है, जिसे ईश्वर हमारी इस भौतिक दुनिया के भभकते हुए नरक में भेजता है और हमें इस ईश्वर की इस मेज़बानी का लाभ उठाने और इस महीने में स्वर्ग में प्रवेश करने का मौक़ा देता है। कुछ लोग सिर्फ़ तीस दिनों के लिए स्वर्ग में प्रवेश करते हैं। कुछ लोग इन तीस दिनों की बरकत से पूरे साल के लिए और कुछ लोग पूरी उम्र के लिए स्वर्ग कमा लेते हैं। कुछ लोग लापरवाही में उसके निकट से गुज़र जाते हैं, जो अफ़सोस की बात है। आईए हम लापरवाही करने वालों में शामिल न हों।
रोज़ा आत्म-सुधार का एक साधन है, परिवर्तन के लिए एक आधार है, जो मानव स्वभाव के मुताबिक़, उत्कृष्टता प्राप्त के लिए होता है। रमज़ान का पवित्र महीना, विकास और आत्मा के शुद्धिकरण का एक मौक़ा है, इसी के साथ इस्लाम की जीवनदायक शिक्षाओं की छाया में नैतिक और मानवीय मूल्यों की ओर बढ़ने का अवसर है। ईश्वर ने इस पवित्र महीने का जो आध्यात्मिक प्रभाव रखा है, उसके कारण हमारे दिल ईश्वरीय मूल्यों की ओर अधिक झुक रहे हैं। इसलिए समाज अनजान रूप से इस आध्यात्मिकता की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है, जिसके परिणामस्वरूप ईश्वर की भौतिक अनुकंपाएं व्यापक होती हैं।
रोज़ा इस्लाम के स्तंभों में से एक है, प्रत्येक बालिग़ व समझदार मुस्लिम पुरुष और महिला पर एक महीने के लिए अनिवार्य है। लेकिन जिनके पास रोज़ा नहीं रखने की कोई धार्मिक वजह हो और वह रोज़ा नहीं रख सकते हों। उन्हें ईश्वर और उसके रसूल की ओर से रोज़ा नहीं रखने की अनुमति हासिल है। इस बीच, कुछ बिंदुओं पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए अगर कोई व्यक्ति बुढ़ापे के कारण रोज़ा रखने में असमर्थ है, या उसके लिए कठिन है, तो रोज़ा रखना उसके लिए वाजिब नहीं है, लेकिन उसे प्रत्येक दिन के बदले लगभग 750 ग्राम गेहूं या जौ दान में देना होगा। इसी तरह से अगर किसी व्यक्ति ने बुढ़ापे के कारण रोज़ा नहीं रखा है, अगर वह रमज़ान के बाद रोज़ा रख सकता है, तो वाजिब एहतियात के तौर पर उसे उन दिनों के बदले रोज़ा रखना चाहिए, जिन दिनों में उसने नहीं रखा था।