रमज़ानः 23 रोज़ा रखने का वास्तविक उद्देश्य क्या है?
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आज रमज़ान महीने की 23 तारीख है। यह इबादत करने, कुरआन की तिलावत करने, आत्म शुद्धि और इंसान बनने का बेहतरीन महीना है।
(last modified 2023-04-09T06:25:50+00:00 )
Apr २५, २०२२ १६:२५ Asia/Kolkata

आज रमज़ान महीने की 23 तारीख है। यह इबादत करने, कुरआन की तिलावत करने, आत्म शुद्धि और इंसान बनने का बेहतरीन महीना है।

यह वह महीना है जिसमें इंसान न केवल स्वंय को पवित्र बनाता है बल्कि दूसरे भी उसके सदाचरण को देखकर अच्छा इंसान बनने की कोशिश करते हैं। इस महीने में इंसान जो रोज़ा रखता है, अपने पालनहार की जो उपासना करता है, अपनी अंतरआत्मा को जो पवित्र बनाता है उन सबका उद्देश्य स्वंय को एक अच्छा इंसान बनाना है। महान ईश्वर और हम सबका पालनहार पवित्र कुरआन में कहता है कि हे ईमान लाने वालों तुमसे पहले भी जो लोग थे उन पर भी रोज़ा अनिवार्य किया गया था ताकि तुम मुत्तक़ी अर्थात ईश्वर से डरने वाला और सदाचारी बनो। यानी नमाज़, रोज़ा और दूसरी समस्त इबादतों का अस्ल उद्देश्य सदाचारी व भला इंसान बनना है। अगर एक महीने का रोज़ा रखने के बाद भी किसी के अंदर कोई बदलाव न आये तो वास्तव में वह पेट का रोज़ा था। उसने इस पवित्र महीने की विभूतियों और नेअमतों से सही ढंग से लाभ नहीं उठाया। अगर सही से लाभ उठाता तो उसके अंदर ज़रूर बदलाव होता।

अगर कोई एक महीने तक लगातार दवा खाये और उसके बाद भी उसकी हालत में कोई बदलाव व सुधार न हो तो दूसरे क्या कहेंगे कि दवा फायदा नहीं कर रही है मगर जब डाक्टर महान विधाता हो जिसने इंसान की रचना की है, उसे पैदा किया है उससे बेहतर कौन जानता है कि इंसान को कब कौन सी दवा देनी चाहिये और किस दवा का क्या फायदा है? वह खुद कह रहा है कि यह महीना एक हज़ार महीनों से बेहतर है, यह वह महीना है जिसमें कुरआन नाज़िल हुआ है, यह वह महीना है जो रहमतों और बरकतों का महीना है उसके बावजूद कोई व्यक्ति एक महीने तक रोज़ा रखने के बाद कहे कि हमारे अंदर कोई बदलाव नहीं हुआ तो यह बात दो हालत से खाली नहीं है। या माअज़ल्लाह महान ईश्वर ग़लत कह रहा है और इंसान सही या इसका उल्टा है। यानी इंसान ग़लत कह रहा है और यही दूसरी बात सही है। क्योंकि महान ईश्वर ग़लत कहे इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। इंसान गलत या झूठ उसी वक्त बोलता है जब उसमें कोई फायदा होता है। महान ईश्वर झूठ या ग़लत क्यों कहेगा? उसे हमारी नमाज़ों, रोज़ों और दुआओं से क्या फायदा है? सारी दुनिया का हर इंसान नमाज़ पढ़े और रोज़ा रखे तो उससे उसे कोई लाभ नहीं होगा और सारी दुनिया काफिर हो जाये और उसकी अवज्ञा करे तब भी उसे कोई नुकसान नहीं होगा। सारांश यह है कि अच्छे या बुरे काम के नतीजे का संबंध हमसे है न कि महान ईश्वर से।

यहां एक बिन्दु का उल्लेख ज़रूरी है और वह यह है कि जब कोई बीमार कोई दवा खाता है तो आम तौर पर वह कुछ चीज़ों से परहेज़ करता है ताकि दवा अच्छी तरह से फायदा करे। अगर वह दवा खाये और उन चीजों से परहेज़ न करे जो दवा के असर को बेअसर करती हैं तो आप क्या कहेंगे? दवा की कमी व खराबी है या दवा खाने वाले की? जवाब बिल्कुल स्पष्ट है। हर इंसान यही कहेगा कि अगर चाहते हैं कि दवा सही से फायदा करे तो परहेज़ ज़रूरी है। ठीक उसी तरह रमज़ान महीने का रोज़ा है। जो इंसान यह चाहता है कि रमज़ान महीने के रोज़े का असर उसके अंदर दिखाई दे तो उसे चाहिये कि उन चीज़ों से परहेज़ करे जो रोज़े के असर को प्रभावहीन बनाती हैं। रोज़े के प्रभाव को जो चीज़ें प्रभावहीन व निष्क्रिय बनाती हैं वह पाप हैं।

रोज़ा रख कर पाप करने वाला इंसान उस बीमार की भांति है जो उपचार के लिए दवा खाता है और साथ में उन चीज़ों को भी खाता है जो दवा के असर को बेअसर करती हैं। रोज़ा रखने वाला एक महीना नहीं बल्कि पूरे साल रोज़ा रखे या पूरी ज़िन्दगी रोज़ा रखे और उन चीज़ों से परहेज़ न करे जो रोज़े को प्रभावहीन बनाती हैं तो उसके अंदर कोई बदलाव नहीं होगा। तो जो इंसान यह चाहता है कि उसका रोज़ा असर दिखाये तो उसे सबसे पहले गुनाहों से परहेज़ करना चाहिये। जो इंसान महान ईश्वर की बंदगी का मज़ा चखना चाहता है उसे चाहिये कि सबसे पहले गुनाहों को खैरबाद कहे। पैग़म्बरे इस्लाम से पूछा गया कि रमज़ान महीने में सबसे बेहतरीन अमल क्या है? तो आपने फरमायाः हराम कार्यों व गुनाहों से परहेज़ है।         

दोस्तो जैसाकि आप जानते हैं कि आज रमज़ान महीने की 23 तारीख है। आज की रात को शबे क़द्र कहा जाता है। आज की रात को पवित्र कुरआन नाज़िल हुआ था। पवित्र कुरआन के नाज़िल के बारे में तीन रिवायते हैं 19-21 और 23, शीया मुसलमानों के यहां सबसे विश्वसनीय रिवायत 23 तारीख है और उनका मानना है कि आज ही की रात को पवित्र कुरआन नाज़िल हुआ था। आज की रात को खैर व बरकत लेकर फरिश्ते उतरते हैं। आज बहुत से मुसलमान पूरी रात जागते और महान ईश्वर की इबादत करते हैं, दुआ पढ़ते हैं और अपने गुनाहों की तौबा करते हैं।

आज की रात आसमान के दरवाजे खुले हैं। शैतान को बांध दिया गया है। आज की रात क्षमा याचना की रात है, ईश्वरीय रहमतों के वर्षा की रात है। वह बहुत ही बदनसीब इंसान है जो ईश्वरीय रहमतों की वर्षा से वंचित रह जाये। आज की रात वह रात है जिसमें बहुत से लोग इबादत, दुआ, प्रार्थना करके और अपने गुनाहों से तौबा करके स्वंय को नया इंसान बना लेते हैं। एसे लोग तौबा के निर्मल, स्वच्छ और शीतल जल से अपनी आत्मा को पवित्र कर लेते हैं। वह अपनी आत्मा को नवजात शिशु की भांति पवित्र बना लेते हैं। महान ईश्वर न केवल तौबा करने वालों को माफ करता है बल्कि उन्हें दोस्त रखता है।

दोस्तो सच्ची तौबा की कुछ शर्तें हैं उसमें सबसे मुख्य शर्त यह है कि सबसे पहले इंसान अपने गुनाह को स्वीकार करे और उस पर शर्मिन्दा हो और यह तय करे और पक्का इरादा करे कि अब वह यह कार्य नहीं करेगा पर अगर कोई रोज़ तौबा करता है और सच्चे दिल से उस गुनाह को अंजाम न देने का प्रण नहीं करता है तो यह तौबा नहीं बल्कि खुद का मज़ाक है। इस प्रकार की तौबा स्वंय को भ्रम में रखने की एक शैतानी चाल है।

दोस्तो शबे कद्र यानी क़द्र की रात भलाइयों की रात है। पैग़म्बरे इस्लाम स. फरमाते हैं जो शबे क़द्र से वंचित रह गया वह समस्त अच्छाइयों से वंचित हो गया।

पैग़म्बरे इस्लाम न केवल शबे क़द्र बल्कि रमज़ान महीने के अंतिम दस दिनों में पूरी तरह अपना बिस्तर लपेट देते थे और मस्जिद में ही रहकर महान ईश्वर की इबादत करते थे।

पैग़म्बरे इस्लाम स. फरमाते हैं जो शबे क़द्र को जाग कर गुजारे अगले साल तक उससे अज़ाब व प्रकोप को उठा लिया जायेगा।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम इस बारे में फरमाते हैं पैग़म्बरे इस्लाम अपने बिस्तर को लपेट देते थे और रमज़ान महीने के अंतिम दस दिनों में उपासना करने के लिए हिम्मत बांध लेते थे और अपने परिजनों को रमज़ान महीने की 23 की रात को बेदार रखते थे और जिन लोगों को नींद आती थी उनके चेहरों पर पानी छिड़क दिया करते थे ताकि शबे क़द्र में जागकर इबादत करने से वंचित न रह जायें। पैग़म्बरे इस्लाम स. शबे क़द्र को बहुत महत्व देते थे यहां तक कि जब वर्षा होती थी तब भी वह शबे क़द्र की रातों को पवित्र नगर मदीना की मस्जिद में महान ईश्वर की उपासना करके बिताते थे। रोचक बात यह है कि उस वक्त मदीना की मस्जिद में छत नहीं थी और दूसरों को अपने अमल से महान ईश्वर की इबादत के लिए बुलाते थे।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम भी पूरे साल रातों को जागते थे परंतु जब शबे क़द्र आती थी तो उनकी विशेष हालत हो जाती थी और वे बुरे से बुरे हालात में भी रातों को जागकर महान ईश्वरी की उपासना करते थे।

पैग़म्बरे इस्लाम की प्राणप्रिय सुपुत्री हज़रत फातेमा ज़हरा सलामुल्लाह के बारे में आया है कि वह शबे क़द्र को विशेष महत्व देती और महान ईश्वर की इतनी अधिक उपासना करती थीं कि उनके बड़े बेटे इमाम हसन अलैहिस्सलाम फरमाते हैं कि फातेमा से ज्यादा उपासना करने वाली इस दुनिया में कोई नहीं थी, इबादत में वह इतनी अधिक देर तक खड़ी रहती थीं कि उनके पैर सूज जाते थे। हज़रत फातेमा को ज़हरा भी कहा जाता है। उसकी वजह यह है कि रातों को हज़रत फातेमा ज़हरा की उपासना का प्रकाश आसमान पर चमकता था।

शबे क़द्र में हज़रत फातेमा ज़हरा सलामुल्लाह की विशेष स्थिति होती थी। वह शबे क़द्र में न केवल बेदार रहती थीं बल्कि अपने बच्चों को भी बेदार रखती थीं। रिवायत में है कि शबे क़द्र में हज़रत फातेमा ज़हरा स. का तरीक़ा यह था कि खुद बहुत कम खाना खाती थीं और अपने बच्चों को भी कम खाना देती थीं और रात को अगर उनके मासूम बच्चों को नींद आती थी तो उनके चेहरों पर पानी छिड़क दिया करती थीं ताकि वे शबे कद्र की बरकतों व रहमतों से लाभ उठा सकें। हज़रत फातेमा ज़हरा स. फरमाती हैं वह व्यक्ति वंचित है जो शबे क़द्र की खैर व बरकत से वंचित रहे।

इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम फरमाते हैं जो व्यक्ति शबे क़द्र को जागता है कृपालु ईश्वर उसके गुनाहों को माफ कर देता है। सातवें इमाम, इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के बारे में आया है कि पूरे साल रातों को बहुत जागते और इबादत करते थे, महान ईश्वर की बारगाह में रोते और लंबा सज्दा करते थे। जब इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की हालत ग़ैरे रमज़ान महीने में यह होती थी तो रमज़ान महीने में इमाम की स्थिति का वर्णन नहीं किया जा सकता। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम शबे क़द्र को न केवल जागते और उपासना करते बल्कि दूसरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करते थे। इमाम फरमाते हैं जो व्यक्ति शबे क़द्र को ग़ुस्ल करता और सुबह तक जागता है तो ईश्वर उसके गुनाहों को माफ कर देता है।