रमज़ान-24
हे ख़ुदा, तू मुझे हर उस काम को अंजाम देने का अवसर प्रदान कर, जिससे तू ख़ुश होता है और हर उस चीज़ से दूर रख, जिससे तू नाराज़ होता है, मैं तुझसे तेरे आज्ञापालन का अवसर प्रदान करने की विनती करता हूं और तेरी अवज्ञा से पनाह मांगता हूं, हे दलायु।
दोस्तो रमज़ान की नूरानी रातों में आपका साथ, हमारे लिए ख़ुशी का कारण है, लेकिन अफ़सोस यह मौक़ा हाथ से जा रहा है। आईए इस मौक़े पर एक साल की रसद जमा कर लें और अगले साल तक के लिए रमज़ान के नूर और रौशनी को अपने अंदर समा लें। ख़ुदा ने हमें रमज़ान का 24वां रोज़ा रखने का अवसर प्रदान किया है। हम ख़ुदा से दुआ करते हैं कि आज के दिन हम पर अपनी रहमतें नाज़िल कर और हमारे दिलों को अपने नूर से रौशन कर दे।
क़ुरान कहता हैः हे मेरे बंदो, तुमने फ़ुज़ूल ख़र्ची की और अपने ऊपर अत्याचार किया, लेकिन ख़ुदा की रहमत से निराश न हो, क्योंकि ख़ुदा समस्त गुनाहों को माफ़ करने वाला है, और वह बहुत ही मेहरबान और बख़्श देने वाला है। ख़ुदा गुनहगारों को अपना बंदा कह कर संबोधित कर रहा है और वादा कर रहा है कि वह समस्त गुनाहों को बख़्श देगा। लेकिन इसके लिए शर्त यह है कि उसकी रहमत और कृपा से निराश नहीं होना चाहिए। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि इंसान जो दिल में आए वह करे। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) फ़रमाते हैः ख़ुदा की रहमत पर भरोसा रखो, ऐसा भरोसा, जो तुम्हें गुनाह करने से रोके और ख़ुदा से डरते रहो, ऐसा डर कि जो तुम्हें उसकी रहमत से निराश नहीं होने दे।
रमज़ान महीने के संस्कारों से इंसान के शरीर से ज़्यादा उसकी आत्मा की परवरिश होती है। दूसरे शब्दों में हालांकि रोज़े के व्यक्ति और समाज के लिए काफ़ी भौतिक लाभ होते हैं, लेकिन रमज़ान के महीने का मूल उद्देश्य, इंसान की आत्मा और रूह का शुद्धिकरण करना है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि कम खाना और संतुलन बनाए रखना, उत्कृष्टता तक पहुंचने का मार्ग है, इसीलिए हद से ज़्यादा खाना, उत्कृष्टता तक पहुंचने के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट मानी जाती है। इस संदर्भ में इमाम ख़ुमैनी का कहना हैः ईश्वर ने रमज़ान के महीने में दस्तरख़्वान बिछाया है, वह चाहता है कि अपने मेहमानों को इस दस्तरख़्वान पर बैठाए और उन्हें वह चीज़ें परोसे जो उनके लिए तैयार की हैं। अल्लाह के उस दस्तरख़्वान का भोजन, क़ुराने मजीद को क़रार दिया है। उसके बाद इमाम ख़ुमैनी कहते हैः यह सवाल दिमाग़ में आता है कि शबे क़द्र रमज़ान की शुरूआत में क्यों नहीं है?
क्योंकि जिस शबे क़द्र में ईश्वर अतिरिक्त अनुकंपनाएं देना चाहता है, उसके लिए महीने की शुरुआत में आवश्यक तैयारी नहीं होती है। इस भूख और प्यास और शारीरिक तपस्या के ज़रिए, आप थोड़ा शारीरिक और भौतिकवादी होने से दूर हो जाएं और आध्यात्मिक होने के क़रीब हो जायें, ताकि ईश्वरीय ज्ञान और अनुकंपाओं की प्राप्ति के लिए तैयार हो जाएं।
दुआ के ज़रिए एक ज़रूरतमंद इंसान अपनी ज़रूरतों को ईश्वर के सामने रखता है। जिसने दुआ के लिए हाथ उठाए हैं, उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिसे वह संबोधित कर रहा है वह उसका मालिक और निर्माता है। ध्यान दिए बिना बात करना, वास्तव में जिसे संबोधित किया जा रहा है, उसकी अनदेखी और अनादर करना है। ईश्वर अनजाने में की गई दुआ का उत्तर नहीं देता है। इसलिए दुआ के समय पूरा ध्यान अपने पालनहार की ओर होना चाहिए, उसके बाद उसके स्वीकार होने का भी विश्वास होना चाहिए। अगर दुआ ध्यान से की जाए, तो उसमें भय और आशा दोनों होते हैं, पाप का डर कि कहीं दुआ के अस्वीकार होने का कारण बन जाए, और ईश्वर की कृपा और दया की आशा का भरोसा, उसके स्वीकार होने की उम्मीद देता है। ईश्वर कहता है कि भय और आशा की स्थिति में दुआ करो।
रमज़ान के महीने में नमाज़ के बाद जिन दुआओं के पढ़ने की सिफ़ारिश की गई है, उनमें से एक दुआए फ़रज है। यह दुआ हर ज़रूरतमंद के लिए है, वह किसी भी धर्म या जाति से संबंध रखता हो। दुआए फ़रज पूर्ण रूप से एक सामाजिक दुआ है, जो हर जाति, रंग और धर्म के लोगों से संबंधित है। एक मुसलमान के लिए दूसरे मुसलमानों और ग़ैर मुस्लिम भाईयों की मदद में कोई अंतर नहीं है। मुसलमान अंहकार के ख़ोल से बाहर आ जाता है, इसलिए वह सभी का भला चाहता है। इसीलिए रमज़ान महीने की दुआ में कुल शब्द आया है, जिसका अर्थ है समस्त। हे ईश्वर समस्त ज़रूरतमंदों की ज़रूरत पूरी कर और समस्त भूखों का पेट भर दे। इस दुआ की व्यापकता इतनी अधिक है कि न केवल धरती पर मौजूद समस्त इंसानों के लिए है, बल्कि मुर्दे भी इसमें शामिल हैं और उनकी शांति के लिए प्रार्थना की गई है।
इस्लाम दान देने पर काफ़ी बल देता है, ताकि धन वितरण में संतुलन बन सके। दान उस समय अपने शिखर पर होता है, जब इंसान अपनी पसंदीदा चीज़ को दान करता है। कुछ लोगों का मानना है कि दूसरों की उस समय मदद करनी चाहिए जब उन्हें ख़ुद को ज़रूरत न हो। हालांकि वास्तविक भले लोगों के स्थान तक पहुंचने के लिए इंसान को अपनी पसंदीदा चीज़ों को दान में देना चाहिए। जैसा कि क़ुरान में उल्लेख है, कदापि वास्तविक भले लोगों तक नहीं पहुंचोगे, या यह कि जो चीज़ तुम्हें पसंद है उसे ईश्वर के मार्ग में दे दो। इसका मतलब है कि आप दूसरों को ख़ुद से अधिक पसंद करते हैं और जो चीज़ आपको पसंद है वह उन्हें उपहार में दे देते हैं।
हज़रत फ़ातेमा ज़हरा अपने विवाह से ठीक पहले, शादी का अपना जोड़ा एक भिखारी को दान कर देती हैं, जब पैग़म्बरे इस्लाम (स) को इस बात की ख़बर मिली तो उन्होंने फ़राया, तुम्हारा नया जोड़ा कहां है? हज़रत फ़ातेमा ने फ़रमाया, मैंने वह भिखारी को दे दिया। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, क्यों नहीं अपना कोई पुराना वस्त्र दे दिया? उन्होंने कहा, उस समय मुझे क़ुरान की यह आयत याद आ गई कि जो चीज़ तुम्हें पसंद है, उसे दान में दो, इसिलए मैंने भी अपना शादी का नया जोड़ा दान कर दिया। इस घटना से पता चलता है कि इस्लाम ग़रीबों की मदद पर कितना बल देता है। जैसा कि दुआए फ़रज में उल्लेख है कि हे ईश्वर, समस्त नंगों के शरीर वस्त्रों से ढांप दे।
इस्लाम की सुन्दर परंपराओं में से एक सिलए रहम यानी अपने रिश्तेदारों से मेलजोल और उनकी मदद करना है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) ख़ुत्बए शाबानिया के नाम से मशहूर एक ख़ुत्बे में फ़रमाते हैः इस महीने में ज़्यादा से ज़्यादा रिश्तेदारों से मेलजोल बढ़ाओ, क्योंकि जो कोई सिलए रहम करता है, ख़ुदा क़यामत के दिन उस पर अपनी रहमत नाज़िल करता है, और जो कोई अपने रिश्तेदारों से नाता तोड़ लेता है, ख़ुदा क़यामत के दिन अपनी रहमत से उसे वंचित कर देता है।
सिलए रहम का मतलब सिर्फ़ आना-जाना, दावत करना और एक दूसरे के साथ बैठना नहीं है, बल्कि इसका मतलब इससे कहीं व्यापक है। रिश्तेदारों से मोहब्बत करना, उनकी वित्तीय ज़रूरतों को पूरा करना, शादी ब्याह में और शिक्षा में मदद करना, ज़रूरत पड़ने पर नसीहत और मार्गदर्शन करना, उन्हें बुराईयों से रोकना और अच्छाईयों की सिफ़ारिश करना, बीमारी के समय उनकी देखभाल करना और उनका भला चाहना वास्तव में उनके वे अधिकार हैं, जो सिलए रहम की परिभाषा में आते हैं। इमाम सादिक़ (अ) फ़रमाते हैः सिलए रहम करो, अपने भाईयों के साथ भलाई करो, चाहे वह अच्छी तरह से सलाम करना और सलाम का जवाब देने की हद तक ही क्यों न हो। एक दूसरी जगह फ़रमाते हैं कि सिलए रहम करो, चाहे वह शरबत के ज़रिए ही क्यों न हो।
रिवायतों और हदीसों में सिलए रहम के अनेक अच्छे परिणामों और बरकतों का उल्लेख किया गया है। हज़रत इमाम ज़ाफ़र सादिक़ (अ) फ़रमाते हैः सिलए रहम से अख़्लाक़ या आचरण अच्छा होता है, इंसान में दान करने की आदत पैदा होती है, आत्मा शुद्ध होती है, आजीविका में वृद्धि होती है और मौत टल जाती है। क़यामत के दिन हिसाब-किताब आसान हो जाता है और इंसान की बुरी मौत टल जाती है। इसके विपरीत, रिश्तेदारों से नाता तोड़ने के बहुत बुरे परिणामों का ज़िक्र भी मौजूद है। हदीसों में है कि एक व्यक्ति पैग़म्बरे इस्लाम के सामने उपस्थित हुआ और उसने पूछाः ख़ुदा के निकट सबसे बुरा कार्य क्या है? हज़रत ने फ़रमायाः अनेकेश्वरवाद। उस व्यक्ति ने पूछा उसके बाद, हज़रत ने जवाब दिया रिश्तेदारों से नाता तोड़ना। जो ऐसा करता है, उससे ख़ुदा की रहमत दूर हो जाती है।
कितना अच्छा होगा, अगर हम इस पवित्र महीने में इस्लाम की इस सुन्दर परंपरा को ज़िंदा रखें और सिलए रहम के ज़रिए अपनी सूखी आत्मा को ख़ुदा की असीम रहमत से नम कर लें। ख़ुदा का बहुत बहुत शुक्र कि उसने अपने बंदों को कल्याण और मोक्ष का मार्ग दिखाया और स्वर्ग के द्वार उन पर खोल दिए।