रमज़ान-27
हे ख़ुदा, मुझे शबे क़द्र की बरकत प्रदान कर और मेरे कठिन कार्यों को आसान बना दे, मेरी तौबा को स्वीकार कर ले और मेरी गर्दन से गुनाहों के बोझ को कम कर दे, हे नेक बंदों के लिए दयालु।
पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते हैः रमज़ान वह महीना है, जिसकी शुरूआत रहमत, जिसका मध्य क्षमा और अंत स्वीकृति और नरक से मुक्ति है। इसका मतलब है कि रमज़ान के पहले दस दिनों में ख़ुदा अपने बंदों पर रहमत नाज़िल करता है, दूसरे दस दिनों में लोगों की तौबा स्वीकार होती है और आख़िरी दस दिनों में उनके गुनाह माफ़ कर दिए जाते हैं और उन्हें नरक से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। हमें आशा है कि रमज़ान के आख़िरी दिनों में हमारे ऊपर भी ख़ुदा की कृपा होगी।
क़ुरान के सूरए बक़रा की 177वीं आयत में ख़ुदा ईमान और नेक कामों को भलाई के रूप में परिभाषित कर रहा है। आयत कहती है कि सबसे पहला नेक कार्य, ख़ुदा, उसकी किताब, उसके पैग़म्बर और प्रलय पर ईमान लाना है। उसके बाद नेक कार्य, ख़ुदा के लिए दान करना है। तीसरे चरण में नमाज़ अदा करना, ज़कात देना, वादा पूरा करना और कठिनाई के समय धैर्य रखना है।
इस आयत में हमारा ध्यान इस बिंदू की ओर खींचा गया है कि हमारे समस्त नेक कार्यों के स्वीकार होने की शर्त यह है कि सबसे पहले हम ख़ुदा और उसके पैग़म्बर पर ईमान रखते हों। दूसरे यह कि नमाज़ पढ़ना और रोज़ा रखना भी नेक कार्य हैं और हमें उन्हें अंजाम देने में देर नहीं करनी चाहिए, लेकिन इन कार्यों के स्वीकार होने की शर्त यह है कि लोगों के साथ भलाई करें। अर्थात, ख़ुदा का हक़ अदा करने से पहले लोगों के अधिकारों का सम्मान करना होगा।
क़ुरान की एक दूसरी आयत में हैः जो लोग खुलेआम या गुप्त रूप से ख़ुदा के मार्ग में ख़र्च करते हैं, उनका पुण्य ख़ुदा के पास है और उन्हें कोई डर या भय नहीं है। हज़रत अली (अ) फ़रमाते हैः ज़रूरमंदों की मदद को कल पर नहीं टालो, क्योंकि तुम्हें नहीं पता है कि कल तुम्हारे साथ या उनके साथ क्या घटना घट सकती है। हमें नहीं पता है कि कल हमारी स्थिति क्या होगी और क्या हम आज की स्थिति में होंगे या नहीं।
दूसरे के साथ भलाई, दर असल ख़ुद अपने साथ भलाई है। जो कुछ हम दूसरों को देते हैं, ख़ुदा उसका कई गुना हमें प्रदान करता है। हमें हमेशा ईश्वर की कृपा की ज़रूरत होती है। इसलिए हम जब भी दुसरों की मदद करें, तो उन पर एहसान नहीं लादें। क्योंकि दान देना या दूसरों की मदद करना एक अवसर है, जो ईश्वर की कृपा से हमें हासिल हुआ है। हमें ज़रूरमंदों का स्वागत करना चाहिए और उन्हें कभी झिड़कना नहीं चाहिए। इंसान माल के अलावा, ज्ञान और दूसरे रास्तों से भी दूसरों की मदद कर सकता है। हमें इस बात के लिए आश्वस्त रहना चाहिए कि जो कुछ ख़ुदा की राह में दान करते हैं, उससे हमारे माल या इल्म में कोई कमी नहीं होगी, बल्कि उसमें वृद्धि ही होगी।
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रमज़ान के महीने के अंतिम दिनों में एक विशेष इबादत जिसकी बहुत सिफ़ारिश की गई है, एतकाफ़ है। शरीयत में एतकाफ़ का अर्थ है, मस्जिद में रहकर इबादत करना। इसीलिए अहले बैत (अ) ने रमज़ान में एतकाफ़ की बहुत सिफ़ारिश की है और वे ख़ुद भी रमज़ान में एतकाफ़ करते थे, विशेष रूप से रमज़ान के अंतिम 10 दिनों में। इमाम सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं, रमज़ान के अंतिम 10 दिनों में ही एतकाफ़ होता है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) रमज़ान में एतकाफ़ करते थे। रमज़ान के महीने में एतकाफ़ को वे इतना महत्व देते थे कि अगर रमज़ान में किसी कारणवश एकतकाफ़ नहीं कर पाते थे तो बाद में उसकी क़ज़ा करते थे। उदाहरण स्वरूप, एक साल बद्र युद्ध के कारण वे एतकाफ़ में नहीं बैठ सके थे तो अगले वर्ष रमज़ान में उन्होंने बीस दिन का एतकाफ़ किया। इमाम सादिक़ (अ) के मुताबिक़, पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते थे कि रमज़ान में दस दिन का एतकाफ़ दो हज और दो उमरे के बराबर है।
एतकाफ़ एक ऐसा उचित अवसर है, कि इंसान काम वासना और अन्य भौतिक इच्छाओं से दूर होकर अपने वास्तविक प्रेमी के निकट हो जाता है और अपने मन एवं आत्मा को उसके लिए शुद्ध करता है। इस एकांत में वह स्वयं को महमान और ईश्वर को मेज़बान मानता है। मेहमान का यह मानना है कि अगर वह अच्छा मेहमान भी नहीं है तो मेज़बान अपनी कृपा से उसके साथ अच्छा व्यवहार करेगा। एतकाफ़ में एतकाफ़ करने वाला इबादत के आरम्भिक चरणों से आगे वास्तविक इबादत का आनंद लेता है। ईश्वर अपने बंदे को एकांतवास में बुलाता है ताकि वह उससे निकटता का आभास कर सके। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं, तौरैत में ईश्वर के हवाले से उल्लेख है कि, हे आदम की संतान, मेरी इबादत के लिए ऐसा अवसर उत्पन्न कर कि मैं तुझे समृद्ध बना दूं और बिना मांगे तुझ प्रदान करूं और तेरे दिल को अपने भय से भर दूं, लेकिन अगर तू मेरी बंदगी के लिए कोई ऐसा अवसर उपलब्ध नहीं कराएगा तो तेरे दिल को दुनिया की गतिविधियों में व्यस्त कर दूंगा और तेरी ज़रूरत को पूरा नहीं करूंगा और तेरे प्रयासों को तुझ पर ही छोड़ दूंगा।
हे वह कि जो रात को दिन और दिन को रात के पीछे घुमाता रहता है, हे बुद्धिमान और समझदार, हे राजाओं के राजा और बुज़र्गों के बुज़ुर्ग, तेरे अलावा कोई ईश्वर नहीं है, हे वह कि जो मेरी शहे रग से ज़्यादा मुझसे से निकट है, हे अल्लाह, हे अल्लाह, हे अल्लाह, अच्छाईयां तुझसे विशेष हैं और हर इनाम और परोपकार और महानता तुझसे विशेष है, मैं तुझसे प्रार्थना करता हूं कि मोहम्मद और उनके परिवार के लिए अपनी शुभकामनाएं भेज, और मेरा नाम आज रात के कल्याणकारी लोगों की फ़हरिस्त में दर्ज कर, मेरी आत्मा को शहीदों के साथ शुमार कर, मेरे आज्ञापालन को उच्च स्थान प्रदान कर और मेरी बुराईयों को सुधार दे, मुझे विश्वास प्रदान कर, जो हमेशा मेरे दिल में रहे और मुझे ऐसा ईमान प्रदान कर, जो हर शक और संदेह को मुझसे दूर कर दे। हे ईश्वर, जो कुछ तूने मेरे भाग्य में लिख दिया है, मैं उस पर राज़ी और ख़ुश हूं, लोक और परलोक में जो कुछ भला हो मुझे प्रदान कर दे और मुझे नरक की आग से दूर रख, इस महीने में मुझे इबादत और शुक्र अदा करने का मौक़ा दे, मुझे अपनी निकटता प्रदान कर और मुझे उन कार्यों को करने में सफल कर, मोहम्मद और उनके परिजनों ने अजांम दिए हैं।
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अब हम रमज़ान में भोजन करने के संबंध में कुछ सिफ़ारिशें कर रहे हैं। सही समय पर भोजन करना रोज़ेदारों के लिए रमज़ान का एक पाठ है। इसलिए एक निर्धारित समय पर भोजन करना स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होगा। इसका एक बड़ा लाभ दिन भर के लिए ऊर्जा का और एनर्जी का स्टोर करना है। अव्यवस्थित रूप से भोजन करने के कारण शरीर में ऊर्जा की कमी हो जाती है, लेकिन सही समय पर भोजन करने से शरीर में शुगर की मात्रा संतुलित रहती है, जिसके परिणाम स्वरूप इंसान कमज़ोरी से बचता है। इसके अलावा निर्धारित समय पर भोजन करने से इंसान कभी भी कुछ खा लेने से बचता है। रमज़ान का महीना व्यवस्थित और अच्छा जीवन बिताने का एक अभ्यास है, जिसे रमज़ान के बाद भी जारी रखा जाना चाहिए। खाने और पीने में व्यवस्था से इंसान की सोच भी व्यवस्थित होती है।
धार्मिक हस्तियों ने स्वस्छ भोजन और साफ़ सफ़ाई की काफ़ी सिराफ़िश की है। इसलिए कि स्वस्थ बुद्धि स्वस्थ शरीर में होती है। इसलिए ऐसे खान-पान से बचना चाहिए जो इंसान के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो। यहां यह कहा जा सकता है कि इस्लाम में कुछ चीज़ों के हराम होने का कारण भी यही है। धार्मिक बुज़ुर्गों ने स्वास्थ्य और व्यवस्थित भोजन के संबंध में दो बिंदुओं पर अधिक बल दिया है। पहला यह कि संतुलित भोजन करना चाहिए और दूसरे यह कि निर्धारित समय पर भोजन करना चाहिए।
हज़रत अली (अ) फ़रमाते हैं, जो कोई भी भोजन करने में संतुलन से काम लेगा वह स्वस्थ रहेगा और उसके विचार और बुद्धि में सुधार होगा। रमज़ान के महीने में अगर इस बिंदु पर विशेष ध्यान दिया जाए तो हमें पता चलेगा कि रोज़ा रखने के लिए इफ़तार और सहरी में अधिक खाने की ज़रूरत नहीं है। शरीर में ऐसा मेकानिज़्म है, जो रोज़े में सक्रिय हो जाता है और फ़ालतू चर्बी को जला देता है। इसलिए शरीर को एक संतुलित भोजन की ज़रूरत होती है, ताकि रमज़ान में रोज़ेदार का स्वास्थ्य बना रहे। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अगर किसी को समज़ान में स्वास्थ्य से संबंधित कोई समस्या हो और उसका कारण कोई विशेष रोग नहीं हो तो निश्चित रूप से उसका कारण असंतुलित भोजन करना होगा।