बहरैन क्रांति की 11वीं वर्षगांठ, युवाओं में नया जोश...रिपोर्ट
14 फ़रवरी को बहरैन की क्रांति की 11वीं वर्षगांठ थी और इस दिन जनता ने आले ख़लीफ़ा परिवार का मुक़ाबला करने के लिए एकता पर बल दिया।
14 फ़रवरी 2011 को बहरैन की जनता बहरैन की आले ख़लीफ़ा सरकार के विरुद्ध उठ खड़ी हुई थी, यद्यपि यह क्रांति भी ट्यूनीशिया और मिस्र की क्रांतियों की सफलता के साथ ही शुरु हुई थी लेकिन बहरैनी जनता के जनसंघर्ष का इतिहास ज़्यादातर अरब देशों से अधिक है। 1971 में बहरैन की स्वाधीनता के साथ ही बहरैन की आले ख़लीफ़ा शासन से जनता का संघर्ष भी शुरु हुआ। इस बीच बहरैन की आले ख़लीफ़ा सरकार विरोधियों को कुछ विशिष्टताएं देने पर मजबूर हुई।
बहरैन में शैख़ ईसा बिन सलमान की मौत और उनके पुत्र व वर्तमान नरेश हमद बिन ईसा के सत्ता में पहुंचने के बाद, आले ख़लीफ़ा शासन की ओर से तनाव को ख़त्म करने और राजनैतिक स्थिरता पैदा करने के प्रयास शुरु हुए।
हमद बिन ईसा ने फ़रवरी 2001 में राष्ट्रीय घोषणापत्र में सुधार के लिए जनमत संग्रह कराने का फ़ैसला किया। बिन सलमान के सुधार के पक्ष में 98.4 मत पड़े। इस सुधार के अंतर्गत चयनित संसद के गठन, पालिकाओं को अलग करने, न्याय पालिका की स्वाधीनता, राजनैतिक महिलाओं के अधिकारों के समर्थन और नागरिक आज़ादी जैसी चीज़ों का वादा किया गया था लेकिन यह घोषणापत्र ढाई साल भी नहीं चल सका और आले ख़लीफ़ा शासन के हाथों इसकी धज्जियां उड़ गयीं।
अलवेफ़ाक़ पार्टी ने 2006 और 2010 के चुनाव में भाग लिया और क्रमशः 17, 18 और 40 सीटों पर विजय दर्ज की लेकिन यह भागीदारी देश पर सत्तासीन तानाशाही व्यवस्था को ज़्यादा कमज़ोर करने के मक़सद से थी न कि सहयोग के मक़सद से। बहरैनी की तानाशाही सरकार 2011 की जनक्रांति से बुरी तरह बौखला गयी थी क्योंकि उसे यह अंदाज़ा हो गया था कि देश की यह जनक्रांति मिस्र और ट्यूनीशिया की तरह उसकी सत्ता को उखाड़ फेकेगी, इसीलिए उसने सऊदी अरब, अमरीका और इस्राईल के समर्थन से विरोधियों और विपक्षी दलों को किसी भी प्रकार की विशिष्टता देने से इन्कार कर दिया।
बहरहाल बहरैन की जनता की क्रांति जारी है और आले ख़लीफ़ा शासन के भीषण दमन के बावजूद जनता मैदान में है और उसने देश में लोकतंत्र की स्थापना का संकल्प कर रखा है। (AK)
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