ज़रा सोचिए!
क्या यह मात्र संयोग है कि जिन अरब देशों ने अपने रासायनिक हथियार हवाले कर दिए वह अमरीकी हमले और क़ब्ज़े का निशाना बने? क्या उत्तरी कोरिया इससे पाठ लेगा?
इसको मात्र संयोग नहीं माना जा सकता कि अमरीकी हमले का निशाना बनने वाले अरब देशों ने अमरीकी मांग और संयुक्त राष्ट्र संघ की स्वीकृति के अनुसार अपने पास मौजूद महाविनाश के हथियारों को हवाले किया, अपने परमाणु कार्यक्रम बंद किए लेकिन इसके बाद भी उन पर अमरीका का हमला हो गया और कुछ पर अमरीका ने क़ब्ज़ा भी कर लिया। अमरीका पहले संतुष्टि कर लेता है कि ताक़तवर हथियार नहीं हैं तब हमला करता है। इस संदर्भ में तीन अरब देशों का उदाहरण बिल्कुल साफ़ है। यह देश इराक़, लीबिया और सीरिया हैं जिन्होंने अपने रासायनिक हथियार हवाले किए और जांचकर्ताओं से भरपूर सहयोग किया लेकिन बाद में उन्हें भयानक घेराबंदी और विनाशकारी हमलों का सामना करना पड़ा।
बुश जूनियर की सरकार को भलीभांति पता था कि इराक़ महाविनाश के हथियारों से पूरी तरह ख़ाली हो चुका है। जो जांचकर्ता इराक़ भेजे गए थे उन्में कई तो अमरीका के जासूस थे। जब अमरीका पूरी तरह संतुष्ट हो गया कि इराक़ के पास महाविनाश के हथियार नहीं हैं तब उसने हमला शुरू कर दिया।
लीबिया के शासक जनरल क़ज़्ज़ाफ़ी पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के धोखे में आ गए। ब्लेयर ने क़ज़्ज़ाफ़ी को रासायनिक हथियार तथा परमाणु संयंत्र हवाले करने पर तैयार कर लिया था और इसके बाद क़ज़्ज़ाफ़ी और उनकी सरकार को सुरक्षा देने की बात कही थी लेकिन जैसे ही हथियार और संयंत्र लीबिया से बाहर निकले लीबिया पर हमले की योजना तैयार होने लगी। क़ज़्ज़ाफ़ी का शासन ख़त्म कर दिया गया और इस समय लीबिया एक विफल देश बन चुका है जहां अशांति और अराजकता फैली हुई है। इस देश के अलग अलग भागों पर अलग अलग गुटों का क़ब्ज़ा है।
सीरिया को भी इसी साज़िश का सामना है। अमरीका ने सीरिया पर हमले की तैयारी कर ली और इस स्थिति का लाभ उठाकर सीरिया से उसके रासायनिक हथियार ले लिए गए और दो हफ़्ते पहले सीरिया की शुएरात सैनिक छावनी पर अमरीका ने मिसाइल हमला कर दिया। यह मिसाइल हमला इदलिब के ख़ान शैहून इलाक़े में रासायनिक हमले के संदिग्ध आरोपों के आधार पर किया गया।
सीरिया के 100 से अधिक आम नागरिक मौत के घाट उतार दिए गए जब वह फ़ूआ और कफ़रिया से उस समझौते के तहत बाहर निकल रहे थे जिसकी निगरानी संयुक्त राष्ट्र कर रहा था। यह नागरिकों के साथ बहुत बड़ा धोखा किया गया जबकि अरब जगत और विश्व के अन्य देश इस पर ख़ामोश रहे। वह अरब देश भी चुप्पी साधे रहे जो इस समझौते की निगरानी कर रहे थे।
उत्तरी कोरिया के शासक किम जोंग ऊन ने अरब देशों के अंजाम को ज़रूर दृष्टिगत रखा होगा इस लिए वह अमरीकी जाल में पड़कर परमाणु और मिसाइल परीक्षण नहीं बंद करेंगे। इस लिए कि उन्हें मालूम है कि अपनी रक्षा के लिए इन हथियारों की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है। उन्होंने अमरीका के हर हमले पर उसी स्तर पर जवाब देने की धमकी दी है, शायद यही धमकी उत्तरी कोरिया की रक्षा करती रहेगी।
महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तरी कोरिया के समर्थक अर्थात रूस और चीन अरब घटकों की तरह नहीं हैं, चीन और रूस अपने इस घटक को उस तरह अकेला नहीं छोड़ेंगे जैसे अरब देश विशेष कर फ़ार्स खाड़ी के कुछ अरब देश अपने घटकों को अकेला छोड़ देते हैं और यही सबसे बड़ा अंतर है।
अमरीका दूसरे देशों विशेषकर उत्तरी कोरिया और ईरान को डराने के लिए अरब देशों पर हमले कर रहा है। अमरीका ने अफ़ग़ानिस्तान में जो महाबम गिराया है या सीरिया की शुएरात छावनी पर टामहोक मिसाइलों से उसने जो हमला किया वह उत्तरी कोरिया और ईरान को कड़ा संदेश देने के लिए था।
अरब देशों की कितनी दुदर्शा हो गई है कि वह अमरीका को भरोसेमंद घटक समझते हैं हालांकि उनकी भी बारी आना तय है, अमरीका अलग अलग तरीक़ों से शासनों को बदलता है, इस क्रम में सबसे नया तरीक़ा है दीवालिया बना देना और यही हथियार अरब देशों की ओर बढ़ रहा है।
अरब जगत के प्रख्यात लेखक और टीकाकार अब्दुल बारी अतवान के लेख का हिंदी अनुवाद