घर परिवार और बच्चे-१६
बच्चों के सकारात्मक विकास के लिए प्यार और स्नेह का प्रदर्शन बहुत ज़रूरी है।
प्यार और स्नेह का प्रदर्शन शाब्दिक और व्यवहारिक दोनों रूप में प्रभावी होता है।
बच्चे फूल की भांति होते हैं, जो उचित वातावरण और उचित समय पर खिलते हैं, लेकिन अगर वह समय से पहले ही खिल जायेंगे तो जल्दी ही कुम्हला भी जायेंगे। यूं तो इंसान को जीवन भर प्रेम और भाईचारे की ज़रूरत होती है, लेकिन बच्चों को इसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है। उनके व्यक्तित्व के विकास और सही परवरिश के लिए प्यार और स्नेह की शैली सबसे अधिक प्रभावशाली होती है।
बच्चों के प्रति प्यार और स्नेह प्रकट करने के तरीक़े उनकी आयु के अनुसार, विभिन्न होते हैं। शिशु रोते हुए इस दुनिया में प्रवेश करता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि वातावरण में परिवर्तन के कारण, इंसान रोते हुए इस दुनिया का स्वागत करता है। रोना एक जटिल प्रक्रिया है और वह विभिन्न प्रकार का हो सकता है। ज़रूरत प्रकट करने और दुख ज़ाहिर करने के लिए रोने में अंतर होता है। शिशु अपनी शारीरिक ज़रूरतों की ओर ध्यान खींचने के लिए रोता है। ज़रूरत पूरी होने पर उसका रोना बंद हो जाता है। यहां तक कि मां का स्नेह और लाड प्यार अशांत और शैतान बच्चे को भी शांत बना देता है।
जन्म के बाद से एक वर्ष की आयु तक मां-बाप की ओर से मिलने वाला प्यार और स्नेह शिशु को आत्मविश्वास और आत्मसम्मान प्रदान करता है। अविश्वास उस समय उत्पन्न होता है कि जब शिशु की ज़रूरतों को उचित समय पर पूरा नहीं किया जाए और उसकी ज़रूरतों को पूरा करते समय कठोर व्यवहार अपनाया जाए। अगर मां शिशु की ज़रूरतों की आपूर्ति के समय कठोरता से पेश आती है तो शिशु में अपने इर्दगर्द के लोगों के प्रति अविश्वास पैदा होता है और आगे चलकर इस बच्चे के भ्रष्ट होने की संभावना अधिक होती है।
जैसा कि हमने उल्लेख किया था कि बच्चों के प्रति प्यार और स्नेह प्रकट करने के तरीक़े उनकी आयु के अनुसार विभिन्न होते हैं, हम यहां आयु को आधार बनाकर इस बात की चर्चा करेंगे कि किस आयु के बच्चों के साथ किस प्रकार से प्यार और स्नेह प्रकट किया जाना चाहिए।
जन्म के बाद एक वर्ष तक के शिशु को चूमना, प्यार और दुलार करना, गोद में लेना, उनकी ओर मुस्कराहट भरी नज़रों से देखना, समय पर उनकी ज़रूरतों को पूरा करना ऐसा स्नेह है कि जिसका शिशु अपने पूरे अस्तित्व से आभास करता है।
एक से तीन वर्ष की आयु तक का दौर ऐसा दौर होता है, जिसमें बच्चों में बोलने की क्षमता विकसित होती है और वह बोलना सीखते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह काल मानसिक दृष्टि से स्वाधीनता के आभास का काल होता है। इस काल में मां-बाप को बच्चों से कुछ अपेक्षाएं होती हैं, उदाहरण स्परूप सही तरह से भोजन करना, खिलौनों को एकत्रित करने में सहायता करना, वस्त्र धारण करना और बड़ों का आदर करना आदि। इस आयु में बच्चे ‘न’ और ‘मैं ख़ुद कर सकता हूं’ कहकर अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं। वे हर कार्य ख़ुद करना चाहते हैं और अपने व्यक्तित्व को महत्व देते हैं। मां-बाप को चाहिए कि इस आयु में बच्चों को इतना समय दें कि वे अपनी ग़लतियों में सुधार कर सकें, बहुत ही विनम्रता से उनका ग़लतियों की ओर शसप आकार कराएं और उनकी कटु आलोचना से बचें। तीन वर्ष की आयु के बाद बच्चे ऐसे कार्य अंजाम देते हैं कि जिसकी अपेक्षा मां-बाप को नहीं होती। कुल मिलाकर इस आयु में बच्चों के साथ संतुलित प्रेमपूर्ण और स्नेहपूर्ण व्यवहार उनके भीतर आत्मविश्वास और आत्म सम्मान की नींव मज़बूत करता है। इस आयु में प्राप्त होने वाला आत्मविश्वास और आत्मसम्मान जीवन में आगे आने वाली विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए रचनात्मक योग्यता प्रदान करता है और उन्हें जीवन के प्रति आशावान बनाता है।
बच्चों की आयु में वृद्धि के साथ ही उनसे प्यार और स्नेह जताने की शैली में भी परिवर्तन होता है। तीन वर्ष की आयु के बाद बच्चे अपनी पसंद और नापसंद को ज़ाहिर करना चाहते हैं और जो कुछ अपने बड़ों से सुनते हैं और व्यवहारिक रूप से देखते हैं, उसके आधार पर किसी भी चीज़ के सही और ग़लत होने को परखते हैं। इस आयु में बच्चे अगर अपने बड़ों के व्यवहार में किसी भी प्रकार का विरोधाभास देखते हैं तो बहुत ही सरलता से उसे उजागर कर देते हैं।
जर्मन मनोवैज्ञानिक एरिक एरिक्सन बचपने को पूर्ण रूप से फलने फूलने का दौर क़रार देते हैं। जिन बच्चों की परवरिश, प्रेम और स्नेह के साथ होती है, उनमें आत्मविश्वास अधिक होता है और उनके संबंध मां-बाप से अच्छे होते हैं। किसी भी आयु की तुलना में इंसान अपने बचपन में अधिक जिज्ञासा रखा रखता है, जिसे मोविज्ञान की भाषा में आत्मनिर्भरता और ऊंची उड़ान कहा जाता है। बच्चे नई नई चीज़ों को परखना चाहते हैं और नई स्थितियों को अपने क़ाबू में करने का प्रयास करते हैं। खेल खेल में पुलिस बनना, डाक्टर बनना और शिक्षक का रूप धारण करना, वास्तव में भविष्य में आदर्श सामाजिक भूमिका के प्रति एक प्रकार की जिज्ञासा है। जो मां-बाप बच्चों के साथ उनके खेल में भाग लेते हैं, वे खेल खेल में ही उनके लिए आदर्श सामाजिक भूमिका खोजने में उनकी सहायता करते हैं।
बच्चे अपने बारे में अधिक सोचते हैं। वे अपने नाम, वस्त्रों, खिलौनों और व्यवहार द्वारा स्वयं को समझने का प्रयास करते हैं। मां-बाप को चाहिए कि बच्चों की अच्छी आदतों जैसे कि दया, अनुशासन और आत्मविश्वास को मज़बूती प्रदान करने का प्रयास करें और तुम दयालु हो, तुम अनुशासन रखते हो और तुम सहयोगी हो जैसे वाक्यों का इस्तेमाल करके उनकी ख़ुद अपने व्यक्तित्व के बारे में जानकारी बढ़ायें।
इस आयु में बच्चे अपनी उत्तेजना और आवेश को मां-बाप और बड़ों के सामने प्रकट करने का प्रयास करते हैं। वे बताना चाहते हैं कि किस चीज़ से उन्हें डर लगता है और किस चीज़ से उन्हें प्रसन्नता प्राप्त होती है या वे क्या पसंद करते हैं। मां-बाप को चाहिए कि खेल खेल में उनसे इन चीज़ों के संबंध में सवाल करके उनके भय, प्रसन्नता और पसंद के बारे में जानकारी प्राप्त करें, ताकि उन्हें दुख पहुंचाने वाले कारकों पर क़ाबू पा सकें और उनकी ख़ुशी में वृद्धि कर सकें। इस प्रकार वे आसानी से बच्चों के लिए महत्वपूर्ण कार्य अंजाम दे सकते हैं।
बच्चों में अपनी चीज़ों और मां-बाप को लेकर स्वामित्व का एहसास अधिक होता है। उदाहरण स्वरूप, वे बल देकर कहते हैं कि यह खिलौना मेरा है या पिता मेरे हैं मम्मी मेरी हैं। लेकिन यह बिंदु ध्यान योग्य है कि अधिक से अधिक चीज़ों और मां-बाप पर अपना हक़ जताने का अर्थ स्वार्थी होना नहीं है, बल्कि ख़ुद को उनसे जोड़कर देखना और अपने व्यक्तित्व को महत्व देना है। बच्चों के बीच खिलौनों और किताबों और पेंसिल पर झगड़ा वास्तव में अपने वजूद एवं व्यक्तित्व और दूसरे के वजूद एवं व्यक्तित्व के बीच अंतर पैदा करने और इसका एहसास दिलाने का झगड़ा होता है। यह झगड़ा किसी आपसी कलह या दुश्मनी का झगड़ा नहीं होता है। मां-बाप को चाहिए कि इस प्रकार के मामलों का समाधान निकालते समय इस बिंदु को हमेशा दिमाग़ में रखें और बच्चे के स्वामित्व पर बल देते हुए पहले उससे असुरक्षा की भावना को समाप्त करें और उसे सुरक्षा का आभास कराएं। बच्चे से कहें कि हां, यह खिलौना तुम्हारा ही है। उसके बाद बच्चे से अनुमति मांगे कि क्या तुम इसे अपने दूसरे भाई बहन या साथी को देना पसंद करोगे। अगर बच्चे ने इनकार में जवाब दिया तो दूसरे बच्चे का ध्यान किसी और चीर की ओर आर्षित करने का प्रयास करें और जिस बच्चे का खिलौना है उसकी नकारात्मक जवाब का सम्मान करें।
तीन वर्ष की आयु से छः वर्ष की आयु तक के बच्चों से निरंतर प्यार और स्नेह के प्रदर्शन की ज़रूरत होती है और उन्हें अपने मां-बाप की ओर से मिलने वाले प्रेम और स्नेह के प्रति पूर्ण रूप से आश्वस्त होने की ज़रूरत है। इस आयु में बच्चे से अगर कोई ग़लती हो जाती है, तो कदापि मां-बाप को उसके प्रति घृणा का इज़हार नहीं करना चाहिए। इसलिए कि तुम कितने मूर्ख और बेवक़ूफ़ हो जैसे वाक्य बच्चों के मन पर अमिट छाप छोड़ते हैं।
6 से 12 वर्ष की आयु तक के बच्चों से प्रेम व स्नेह का प्रदर्शन उन्हें सम्मान देकर किया जा सकता है।
12 वर्ष की आयु और उसके बाद के बच्चों से प्रेम और स्नेह के प्रदर्शन का तरीक़ा बिल्कुल विभिन्न होता है। भावनात्मक असंतुलन इस आयु की सबसे बड़ी विशेषता है। इस आयु में विनम्र व्यवहार, सुरक्षा, सम्मान, प्रशंसा और स्वतंत्रता की अधिक ज़रूरत होती है। इस आयु के बच्चों को सलाह मश्वरे में शामिल करके उनके प्रति सम्मान का प्रदर्शन किया जा सकता है।