Jul २०, २०१६ १५:१६ Asia/Kolkata

प्रतिफल और दंड इंसान के व्यवहार और आचरण को निंयत्रित रखने के लिए जीवन के दो महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं।

बच्चों की सही परवरिश के लिए जिस प्रकार उन्हें अच्छे कामों के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए उसी तरह उन्हें ग़लत कामों से रोकने के लिए तार्किक शैली अपनायी जानी चाहिए।

 

जैसा कि हमने उल्लेख किया था कि प्रोत्साहन और प्रतिफल के बाद, चेतावनी और हल्का फुलका दंड बच्चों के पालन-पोषण में काफ़ी प्रभावी होता है। सबसे पहले यह बिंदु ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि सही परवरिश के लिए दंड का प्रावधान एक ऐसी वास्तविकता है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता और कदापि यह नहीं सोचना चाहिए कि यह एक अनैतिक एवं ग़लत व्यवहार है।

 

बच्चों की परवरिश के लिए जिस शैली का चयन किया जा रहा है अगर उसमें केवल प्रोत्साहन और प्रतिफल का प्रावधान है और चेतावनी एवं दंड के लिए के लिए स्थान नहीं है तो न केवल सही परवरिश में कोई सहायता नहीं मिलेगी, बल्कि इसके परिणाम स्वरूप बच्चों के आचरण में कुछ गंभीर समस्ताएं उत्पन्न हो जायेंगी।

 

इन बिंदुओं के उल्लेख से पहले कि बच्चों को ग़लत कामों से रोकने के लिए किस प्रकार उन्हें दंडित किया जाए या किस तरह के दंड से बचा जाए, दंड को परिभाषित करना ज़रूरी है। दूसरे शब्दों में पहले इस सवाल का जवाब दिया जाए कि दंड है और किस प्रकार दंड दिया जाना चाहिए?

 

बच्चों के पालन-पोषण में जिस दंड का प्रावधान है, उसका शाब्दिक अर्थ है, सचेत करना और अवगत कराना। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि बच्चों को अनुशासित बनाने के लिए ऐसी शैली अपनायी जाए कि किसी भी प्रकार का मानसिक एवं शारीरिक नुक़सान पहुंचे बिना बच्चा अपनी ग़लती से अवगत हो जाए और वह उसे दोहराने से बचे। इस बिंदु से यह स्पष्ट जो जाता है कि बच्चे की अधिक पिटाई, उसका अपमान और बुरा भला कहना सही नहीं है। इसी प्रकार, बच्चों को ऐसी सज़ाएं देना जो पर्याप्त रूप से निवारक नहीं हैं, सही नहीं है। दुर्भाग्यवश अधिकांश मां-बाप दंड के प्रकार और उसकी सीमा के बारे में पर्याप्त जानकारी न होने के कारण हद से गुज़र जाते हैं। अर्थात दंड की शैली को पूर्ण रूप से नज़र अंदाज़ कर देते हैं या उसका अत्याधिक प्रयोग करते हैं, जबकि दोनों स्थिति में घातक परिणाम निकलते हैं।

 

बच्चों की परवरिश में दंड या सज़ा की ज़रूरत के दृष्टिगत हम यहां कुछ बिंदुओं की ओर संकेत कर रहे हैं, जो आपके बच्चों की सही परवरिश में सहायक साबित हो सकते हैं।

 

सबसे पहला ध्यान योग्य बिंदु यह है कि सज़ा की तुलना में प्रोत्सान हमेशा अधिक होना चाहिए। यद्यपि प्रोत्साहन और सज़ा दोनों ही बच्चों के पालन-पोषण के लिए ज़रूरी हैं, लेकिन उन्हें समान रूप से प्रयोग नहीं किया जा सकता। सही मार्गदर्शन का आधार प्रोत्साहन और प्रतिफल पर ही होना चाहिए। आप अपने बच्चे के समस्त कार्यों के लिए उसे प्रोत्साहित कर सकते हैं और इसके लिए पूरी तरह अपना हाथ खुला रख सकते हैं, लेकिन सज़ा देने में आपको कंजूसी से काम लेना होगा और केवल बहुत ही ज़रूरत की हालत में सज़ा के विकल्प का चयन करना होगा।

 

वास्तव में यह कहा जा सकता है कि जितना अधिक संभव हो सके बच्चों के प्रोत्साहन के लिए अवसर खोजने चाहिएं यानी, इसी प्रकार जितना संभव हो सके उन्हें सज़ा न देने के लिए बहाने खोजने चाहिएं। ईश्वर ने भी क़ुराने मजीद में इंसानों की परवरिश के लिए जो शैली अपनायी है, उसमें प्रोत्साहन को सज़ा पर वरीयता प्रदान की गई है। ईश्वर ने इंसान को हर अच्छाई के बदले 10 पुण्य देने और हर बुराई के बदले केवल एक ही पाप देने का वादा दिया है। इसी प्रकार ईश्वर अच्छे कार्य की नीयत पर पुण्य देता है, लेकिन बुरे कार्य की नीयत पर पाप नहीं देता, जबतक कि इंसान बुरी नीयत को व्यवहारिक न बना ले। इसलिए मां-बाप को यह नहीं भूलना चाहिए कि बच्चों के प्रति अपने आचरण में प्रोत्साहन को आधार बनाना चाहिए न कि सज़ा को।

 

जानबूझकर की गई ग़लतियों पर ही सज़ा दी जानी चाहिए। मां-बाप को बहुत ही ध्यानपूर्वक यह देखना चाहिए कि बच्चे ने जो ग़लती की है वह जानकर की है या अनजाने में उससे यह ग़लती हो गई है। कदापि अनजाने में हो जाने वाली ग़लती पर बच्चे को दंडित नहीं किया जाना चाहिए। दुर्भाग्यवश हम इस बिंदु पर कम ही ध्यान देते हैं और बच्चों को उनकी हर ग़लती पर सज़ा देने के लिए तैयार रहते हैं।

उदाहरण स्वरूप, आप सोचिए कि एक बच्चा रसोई से चाए की ट्रे कमरे तक ले जाना चाहता है। मां कहती है नहीं बेटा, तुम नहीं लेजा सकते। संभव है तुम्हारे हाथ से फिसल जाए। बच्चा आग्रह करता है कि वह ऐसा कर सकता है और वह ट्रे को उठा लेता है। बच्चा ट्रे को उठाकर अभी दो क़दम आगे बढ़ा ही था कि ट्रे एक ओर झुक जाती है और चाये की प्याली ज़मीन पर गिर जाती है। हालांकि बच्चे ने जानबूझकर यह ग़लती नहीं की और उसे पूरा विश्वास था कि वह इस काम को सफलतापूर्वक अंजाम दे सकता है।

 लेकिन मां क्रोधित होकर बहुत ही तीखे लहजे में बच्चे को डांटती है और कहती है कि मैंने तुमसे नहीं कहा था कि तुम यह काम नहीं कर सकते? अब तो तुम्हें सुकून मिल गया? यही चाहते थे न तुम? कितना ढीट बच्चा है यह? जाओ यहां से दफ़ान हो जाओ। जबकि यहां अगर मां हल्का सा ग़ुस्सा ज़ाहिर करके फ़र्श साफ़ करने में व्यस्त हो जाती तो बच्चे को अपनी ग़लती पर कम पछतावा नहीं होता और उस तक ज़रूरी संदेश पहुंच जाता। इसलिए जब भी कभी बच्चे को उसकी ग़लती पर सज़ा देना हो तो उससे पहले कुछ क्षणों के लिए सोचिए कि उसने यह ग़लती जानबूझकर की है या धोखे से ऐसा हुआ है। अगर धोखे से यह ग़लती हुई है तो उसकी इस ग़लती को नज़र अंदाज़ करने की कोशिश करिए।

 

बच्चों पर चिल्लाने और उनका अपमान करने से जहां तक संभव हो सके बचा जाए। दुर्भाग्यवश क्योंकि हम अपने बच्चे की ग़लती पर आग बगूला हो जाते हैं, स्वयं पर निंयत्रण खो बैठते हैं और चीख़ने-चिल्लाने लगते हैं और बच्चे का अपमान करना शुरू कर देते हैं। वास्तव में हमारे इस व्यवहार से बच्चे का ध्यान उसकी ग़लती की ओर खींचने में कोई सहायता नहीं मिल सकती। एक सिद्धांत के रूप में इस वास्तविकता को हमेशा ज़हन में रखिए। गाली गलोच और बुरा भला कहने से किसी काम में सुधार नहीं हो सकता। उदाहरण स्वरूप, जब आप घर में प्रवेश करते हैं तो देखते हैं कि आपका बच्चा जो घर पर था, उसने पर्दों को उनकी जगह से उखाड़ दिया है, दीवारों पर अपने स्कूल के रंगों से लीपा पोती कर दी है और टूथपेस्ट को अपने चेहरे और दीवारों पर मल दिया है।

आपको यह सब देखकर ग़ुस्सा आना स्वाभाविक है। लेकिन यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि चीख़ने-चिल्लाने से आप उसकी इस हरकत को सुधार नहीं सकते, बल्कि केवल अपना ग़ुस्सा उस पर ख़ाली कर सकते हैं।

 

बच्चों का ध्यान उनकी ग़लतियों की ओर दिलाने के लिए सबसे प्रभावशाली सज़ा बच्चों से थोड़े से समय के लिए नाराज़गी का इज़हार करना है। अगर बच्चा ग़लत काम करने पर अड़ा हुआ है तो सज़ा के तौर पर आप उससे नाराज़ हो सकते हैं और कुछ देर के लिए उसकी उपेक्षा कर सकते हैं। उसकी ओर देखिए मत और उसकी बात का जवाब नहीं दीजिए। या उसकी मनपंसद की गतिविधि एवं खेल से उसको रोक दीजिए। उसे इन कामों से रोकने के लिए ज़रूरी नहीं है आप शोर शराबा करें। आप बहुत ही शांति लेकिन दृढ़ता से उससे कहिए कि तुम्हारे इस ग़लत व्यवहार या काम की वजह से तुम्हें उस काम या खेल से रोक दिया गया है।

 

बच्चे को उसके मनपंसद के खेल या रूची वाले काम से रोक देना ही काफ़ी नहीं है। इसलिए कि कुछ समय बाद वह आग्रह करेगा और गिड़गिड़ाकर निवेदन करेगा ताकि आप अपने फ़ैसले को बदल दें। यहां तक कि कुछ बच्चे अपनी बात मनवाने के लिए हंगामा खड़ा करने लगते हैं और ज़मीन पर पैर पटख़ने लगते हैं ताकि आपको झुका सकें। अगर आपको इस प्रकार की समस्या का सामना है तो निःसंदेह कहीं न कहीं चूक आप ही से हुई है। आपने कभी किसी ग़लती पर उससे प्रतिबंधित किया है, लेकिन उसके आग्रह के सामने झुक गए हैं। बच्चा यह बात समझ चुका है कि वह हुल्लड़ हंगामा करके अपनी बात मनवा सकता है। इसके विपरीत आप हमेशा अपने फ़ैसले पर अटल रहिए। शुरू में एक दो बार आपको कठिनाई होगी लेकिन आपके इस दृढ़ व्यवहार से बच्चा समझ जाएगा कि आप अपनी बात के पक्के हैं और झुकने वाले नहीं हैं। लेकिन आपकी इस दृढ़ता में किसी भी स्थिति में ग़ुस्सा शामिल नहीं होना चाहिए।

 

वापसी का रास्ता हमेशा खुला रखिए। आपके बच्चे को हमेशा इस बात का एहसास रहना चाहिए कि वह अपनी अतीत की ग़लतियों को सुधार सकता है। 

 

बच्चे को कभी धमकी मत दीजिए। सही पालन-पोषण के लिए जो ग़लत व्यवहार हम अकसर करते हैं, वह है बच्चे को धमकियां देना। उदाहरण स्वरूप मां बच्चे की ग़लती पर उससे कहती है कि ठीक है ज़रा अपने पिता को आने दो, मैं उनसे कहूंगी कि तुमने क्या गुल खिलाए हैं। बच्चे को धमकी मत दीजिए, अगर ज़रूरी हो भी तो उसे तुरंत सज़ा दीजिए।

 

बच्चों को सज़ा दीजिए लेकिन उन्हें हमेशा प्यार कीजिए। सज़ा देने के लिए एक और ग़लत शैली जो अपनायी जाती है वह है बच्चे को मां-बाप के प्यार और स्नेह से वंचित कर देना। उदाहरण के रूप में मां-बाप अपने बच्चे से कहें कि अब वह उसे नहीं चाहते हैं। अब मुझे अपनी मां कह कर या बाप कह कर नहीं बुलाना। हालांकि बच्चे को हर परिस्थिति में यह आभास होना चाहिए कि मेरे मां-बाप मुझे प्यार करते हैं, और केवल मेरे इस काम से नाराज़ हैं।