इस्लामी जगत-7
मोहम्मद इक़बाल 9 नवम्बर 1877 को अविभाजित भारत के सियालकोट में पैदा हुए थे।
उन्होंने प्राथमिक शिक्षा अपने वतन में प्राप्त की और उच्च शिक्षा के लिए लाहौर गए। दर्शनशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री लेने के बाद उन्होंने लाहौर के पूर्वी कालेज में दर्शनशास्त्र और राजनीति पढ़ानी शुरू कर दी। 1905 में आगे की पढ़ाई के लिए वे लंदन गए और वहां कैम्ब्रिज में अपनी पढ़ाई जारी रखी। इस्लामी विषयों के बारे में उनके भाषणों ने उन्हें यूरोप में लोकप्रिय बना दिया। 1908 में वे स्वदेश लौट गए और लाहौर विश्वविद्यालय में फ़िलौसफ़ी डिपार्टमेंट के प्रमुख बन गए।
1910 में बाल्कन और त्रिपोली के बीच जंग छिड़ गई, इससे अल्लामा इक़बाल बहुत प्रभावित हुए और उनके दिल में पश्चिम और यूरोप के लिए नफ़रत बैठ गई। 1914 में पहले विश्व युद्ध की शुरूआत, उस्मानी साम्राज्य के पतन और इस्लामी जगत के विभाजन के बाद उन इलाक़ों पर यूरोपीय देशों का क़ब्ज़ा और वहां अत्यधिक अत्याचारों ने इक़बाल के विचारों में क्रांति उत्पन्न कर दी और पश्चिम के बारे में उनके दृष्टिकोण ने एक स्वरूप लिया। 1930 में वे मुस्लिम लीग की वार्षिक क्रांफ़्रेंस के अध्यक्ष चुने गए और उन्होंने पहली बार पाकिस्तान के गठन का प्रस्ताव पेश किया। हालांकि पाकिस्तान का गठन उनके जीवन में नहीं हुआ था, लेकिन उनके बाद उनका यह सपना पूरा हो गया और उन्हें पाकिस्तान का निर्माणकर्ता कहा गया।
अल्लामा इक़बाल इस्लामी जगत के विभिन्न इलाक़ों की समस्याओं को अच्छी तरह जानते थे और उनका प्रयास होता था कि अपने दर्शन और ज्ञान को इस्लमी जगत की वास्तविकताओं से जोड़ें और राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याओं का समाधान खोजें। अल्लामा इक़बाल ने केवल दर्शनशास्त्र नहीं पढ़ाया, बल्कि उनके विचारों ने आइडियालॉजी का रंग ले लिया और उन्होंने मुसलमानों की जागरुकता और इस्लामी जगत की मुक्ति के लिए भरपूर प्रयास किया।
सैय्यद जमालुद्दीन असदाबादी की तरह अल्लामा इक़बाल ने भी मुसलमानों की एकता के लिए विचार प्रकट किए। हालांकि इस्लामी देशों के बीच एकता के बारे में दोनों के दृष्टिकोणों में अंतर है। इक़बाल का मानना था कि मुसलमानों के बीच कोई बड़ा और बुनियादी मतभेद नहीं है और सिद्धांतों में सब समहत हैं। इक़बाल के अनुसार, मुसलमानों की एकता का बुनियादी केन्द्र, एकेश्वरवाद, क़ुरान और पैग़म्बरे इस्लाम का आचरण है। इसलिए कि एकेश्वरवाद से अटूट एकता उत्पन्न होती है और इससे मुसलमानों के विचारों और व्यवहार में समानता आती है। अल्लामा इक़बाल ब्रह्मांड में एकता व समरसता से मुसलमानों के बीच एकता तक पहुंचते हैं और एकता के विचार को क़ुरान और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण पर आधारित क़रार देते हैं। उन्होंने इस्लमी जगत में एकता के रूप में इस्लामी राष्ट्रवाद द्वारा हर प्रकार के जातिवाद और ग़ैर मुस्लिमों के अपमान को ख़ारिज करते हुए, चार क़ौमों ईरानी, अफ़ग़ानी, तुर्क और अरब पर ध्यान केन्द्रित किया और इस्लामी जगत की एकता के लिए उनकी कमज़ोरियों और प्रतिभाओं को नज़र में रखा। अल्लामा इक़बाल की नज़र में मुसलमान एक क़ौम हैं और इस्लामी जगत की एकता को किसी एक राष्ट्र या देश में सीमित नहीं किया जा सकता।
अल्लामा इक़बाल के अनुसार, राष्ट्रवाद जब ज्ञान या धर्म को भौगोलिक सीमा में सीमित करता है और उसके मानवीय आयाम को नकारता है तो वह संकीर्णता का स्रोत बन जाता है। अंहकारी राष्ट्र किसी विशेष ज्ञान पर अपना एकार्थकार समझता है और उसे दूसरों से छीन लेना चाहता है, या एक संकीर्ण राष्ट्र, ज्ञान को ग़ैर का, काफ़िर का या पूरब का और पश्चिम का मानकर उससे दूर रहता है।
इक़बाल ने इस विश्वास के साथ कि एक दिन इस्लामी जगत भौगोलिक और राजनीतिक रूप से एक इकाई बन जाएगा, इस्लामी देशों से एकता पर पूर्ण से ध्यान केन्द्रित करने का आहवान किया। अल्लामा इक़बाल ने इस एकता के मार्ग में मौजूद दो समस्याओं की ओर संकेत किया। पहली यह कि एक मुस्लिम देश अपने धार्मिक सिद्धांतों की अनदेखी करते हुए कुछ राजनीतिक एवं आर्थिक नियमों के सामने नतमस्तक हो जाए। दूसरे यह कि एक मुस्लिम देश दूसरे मुस्लिम देश पर हमला करे। इसीलिए उनका मानना था कि अगर इस्लामी देशों के बीच कोई मतभेद उत्पन्न होता है तो उसके समाधान के लिए तुरंत क़दम उठाया जाना चाहिए। अल्लामा इक़बाल सिफ़ारिश करते हुए कहते हैं कि इस्लामी देशों को जातिवाद, भाषा और राष्ट्र जैसे मुद्दों पर भरोसा करने के बजाए पैग़म्बरे इस्लाम (स) की शिक्षाओं के आधार पर एकजुट होना चाहिए।
अल्लामा इक़बाल ने अपने समय की क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के मद्देनज़र, इस्लामी जगत में एकता के लिए तीन सुझाव पेश किए। पहलाः समस्त इस्लामी देशों का एक नेता होना चाहिए, जो संभव नहीं लगता। दूसराः इस्लामी जगत का एक फ़ेडरेशन हो, लेकिन इस्लामी देशों के बीच असहमतियों के दृष्टिगत यह भी व्यवहारिक नहीं है। तीसराः इस्लामी देशों के बीच सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक और मज़बूत सामरिक संबंध और व्यापक सहयोग होना चाहिए। उनका मानना है कि इस्लामी जगत की समस्याओं के समाधान के लिए मुस्लिम देशों को पैग़म्बरे इस्लाम (स) की शिक्षाओं के आधार पर एकजुट हो जाना चाहिए, ताकि वे तबाह होने से बच जाएं।
तीसरे सुझाव पर अल्लामा इक़बाल का बल देना, यह साबित करता है कि एकता के प्रति उनका दृष्टिकोण जैविक है न कि मैकेनिकल। उन्होंने ख़िलाफ़त की समाप्ति को एक अटल वास्विकता के रूप में स्वीकार किया और इस्लामी समाज में सहोयग तथा इब्ने ख़लदून के दृष्टिकोणों के आधार पर यह स्पष्ट किया कि इस ताज़ा स्थिति में इस्लामी समाज में वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए नई ऊर्जा उत्पन्न करने की ज़रूरत है, लेकिन इसका मतलब पारम्परिक रूप से ख़िलाफ़त का पुनर्गठन नहीं है।
इक़बाल का मानना था कि ख़िलाफ़त, इस्लामी साम्राज्य की अखंडता के समय प्रासंगिक एवं लाभदायक थी, लेकिन क्योंकि ईरान और तुर्की के बीच ख़िलाफ़त के संबंध में मतभेद थे, जिसके कारण वे एक दूसरे से दूर रहे, मोरक्को ने दोनों को ही बुरी नज़र से देखा और सऊदी अरब ख़ुद ही ऊंची उड़ान भरता रहा, इसलिए ख़िलाफ़त उचित और लाभदायक संस्था नहीं है और उसमें समस्त मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने की योग्यता नहीं है।
अल्लामा इक़बाल का मानना है कि इस्लामी देशों को आज़ादी के आंदोलनों का स्वागत करना चाहिए और स्वाधीनता प्राप्त करके विकास के मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए और इस प्रकार ख़ुद को इस्लामी जगत की सदस्यता के लिए योग्य बनाना चाहिए। ऐसी स्थिति में जातिवाद और कृत्रिम सीमाओं से उठकर वास्तविक एकता को प्राप्त करना चाहिए।
अल्लामा इक़बाल ने स्पष्ट रूप से किसी एक देश या इस्लामी दल के नेतृत्व में वैश्विक साम्राज्य के गठन का विरोध किया है। उनका मानना है कि इस्लाम राष्ट्रवाद नहीं सिखाता है और न ही यह साम्राज्यवादी धर्म है, बल्कि यह ऐसा धर्म है जो समस्त राष्ट्रों और क़ौमों को औपचारिकता प्रदान करता है और लोगों की आसानी के लिए कृत्रिम सीमाओं को स्वीकार करता है।
अल्लामा इक़बाल ने राष्ट्रवाद के स्थान पर इस्लाम पर आधारित राष्ट्र का विचार पेश किया, वह यह कि देश की सीमाओं के अंदर राष्ट्रवाद को त्याग देना चाहिए और इस्लामी जगत में धार्मिक एकता का गठन करना चाहिए। इक़बाल ने इस विचार को अपनी कविताओं में स्पष्ट रूप से पेश किया है।
अल्लामा इक़बाल ने इस्लामी जगत की समस्याओं, मुसलमानों की कठिनाईयों और इस्लामी देशों की ख़राब स्थिति पर ध्यान दिया। वे इस्लामी जगत के नैतिक एवं राजनीतिक पतन और उससे उत्पन्न होने वाली समस्याओं से बहुत आहत थे। उनका मानना था कि इस्लामी जगत के पतन और पिछड़ेपन का मूल कारण, इस्लामी शिक्षाओं और मूल्यों से दूर हो जाना है, इसलिए वे इस्लामी जगत से ख़ुद की ओर पलटने का आहवान करते हैं। वे मुसलमानों से कहते हैं कि ख़ुद की ओर लौट जाओ और ईश्वरीय किताब के सोतों से अपनी प्यास बुझाओ।
ऐसी स्थिति में जब इक़बाल के काल में अधिकांश बुद्धिजीवियों का ध्यान पश्चिमी विचारों को स्वीकार करने की ओर था, वे पश्चिम की आलोचना करते हैं और इस बिंदु पर बल देते हैं कि मुसलमानों को अपनी इस्लामी पहचान के महत्व को समझना चाहिए और एकजुट होना चाहिए। अल्लामा इक़बाल के अनुसार मुसलमानों के पतन और पिछड़ेपन के कारण इस प्रकार हैः मुसमलानों की संस्कृति नई ज़रूरतों से मेल नहीं खाती है। राष्ट्रीय हितों की पहचान नहीं है और उनकी उपेक्षा की जाती है। शैक्षिक व्यवस्था में बहुत कमियां पायी जाती हैं। इस्लामी समाज गुटों और सम्प्रदायों में बंटा हुआ है। मुसमलानों के बीच सूफ़ीवाद का प्रचलन है। अंधा अनुसरण। ईश्वर पर भरोसा करने का ग़लत अर्थ निकालना। प्रतिभाशाली एवं बुद्धिमान नेता का अभाव और इस्लामी संस्कृति में ग़लत विचारों का आयात एवं प्रचलन।
उन्होंने इस्लामी जगत में एकता उत्पन्न करने के लिए चार सिद्धांतों पर आधारित कार्यक्रम पेश किया है। पहला, क़ुरान से प्रेम और उसका अनुसरण, दूसरा, इस्लामी परम्परा की ओर वापसी। इक़बाल का मानना है कि जो क़ौम पतन का शिकार है, केवल वह अपनी परम्पराओं की ओर वापसी करके ही मुक्ति प्राप्त कर सकती है। तीसरा, इस्लामी शरीअत का अनुसरण। वे उल्लेख करते हैं कि जिस दिन मुसलमानों ने पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं को भुला दिया, उस दिन उन्होंने अपने व्यक्तित्व की ऊर्जा को खो दिया और पतन का शिकाल हो गए।
चौथा सिद्धांत, एक राष्ट्रीय केन्द्र का वजूद, उनका मानना है कि यह केन्द्र काबा है, जिसमें मुसलमानों के एकजुट रखने की असाधारण शक्ति है।