इस्लामी जगत-9
आपको अवश्य याद होगा कि पिछले कार्यक्रम में हमने मोहम्मद अब्दो और रज़ा रशीद के दृष्टिकोणों के अनुसार मुसलमानों के मध्य फूट पड़ने और कमज़ोर होने के कारणों और उनसे मुकाबले के मार्गों की चर्चा की थी और हमने इस बात की ओर संकेत किया कि सैयद जमालुद्दीन असदाबादी की भांति मोहम्मद अब्दो इस्लामी जगत में फूट का एक महत्वपूर्ण कारण शीया-सुन्नी धार्मिक मतभेद को मानते थे और प्रसिद्ध पुस्तक नहजुल बलाग़ा की एक व्याख्या लिखकर उन्होंने शीया-सुन्नी धार्मिक मतभेदों के समाधान की दिशा में इस्लामी जगत में एकता का दृष्टि
मोहम्मद अब्दो इस्लामी जगत में एकता के लिए तीन चीज़ों पर बल देते थे। पहला यह कि इस्लाम में धर्म और बुद्धि के मध्य संतुलन होना आवश्यक है। दूसरे धार्मिक मामलों में इजतेहाद यानी कुरआन, हदीस, बुद्धि और विद्वानों की आम सहमति से धार्मिक नियमों को समय के अनुसार समझना और तीसरे ज़िम्मेदारी के साथ इंसान की आज़ादी और इरादे में संबंध।
इसी प्रकार हमने रशीद रज़ा के दृष्टिकोणों की व्याख्या के साथ इस विषय की ओर संकेत किया कि मुसलमानों और इस्लामी देशों की एकता व एकजुटता और जागरुकता रज़ा रशीद की महत्वपूर्ण चिंता थी और वह मुसलमानों के पिछड़ेपन को दूर करने और उनके विकास व उन्नति के लिए इस्लामी जगत में एकता और सम्प्रदायों के मध्य निकटता को एकमात्र मार्ग समझते थे जबकि अरब जगत के सुधारक और नये विचारक पैन अरबीस्ज़म, अरबी राष्ट्रवाद और अरबी आंदोलन जैसे विषयों की बात करते थे। आज के कार्यक्रम में हम अब्दुर्रहमान कवाकिबी के अनुसार मुसलमानों में फूट और उनकी कमज़ोरी के कारणों और उससे मुकाबले के मार्गों की चर्चा करेंगे। कृपया कार्यक्रम में सदा की भांति आज भी हमारे साथ रहिये।
अब्दुर्रहमान कवाकिबी ईरानी मूल के थे और वह सीरिया के हलब नगर में पैदा हुए थे। वह सीरिया में पले- बढ़े और उन्होंने समाचार पत्रों एवं प्रशिक्षा संगठनों की गतिविधियों में भाग लिया। वह कुछ समय तक हलब नगर के मेयर भी थे। उनकी गतिविधियों का केन्द्र उसमानी शासन की तानाशाही का विरोध था। उन्हें जहां भी मौका मिलता था उसमानी शासन की तानाशाही का विरोध करते थे। अंततः अपनी राजनीतिक गतिविधियों और उसमानी शासन के दबाव के कारण वह सीरिया छोड़कर मिस्र चले गये और वहीं पर उनका निधन हो गया। कवाकिबी यद्पि इस्लामी जगत में एकता के संबंध में सैयद जमालुद्दीन के विचारों से प्रभावित थे परंतु कुछ मामलों में उनसे मतभेद भी रखते थे। सैयद जमालुद्दीन इस्लामी क्षेत्रों में विदेशियों के हस्तक्षेप को मुसलमानों की दुर्दशा का मूल कारण कारण मानते थे और इसी कारण अपनी किताब उर्वतुल वुस्का में ब्रिटेन की नीतियों पर कड़ा हमला करते हैं जबकि कवाकिबी का मानना था कि मुसलमानों की दुर्दशा और पिछड़ेपन का कारण आंतरिक है और वह मुसलमानों का आह्वान अपने सुधार के लिए करते थे और उनका मानना था कि मुसलमानों में सुधार इस्लामी देशों के भविष्य को विदेशियों के हाथ में जाने से रोकेगा। इसी कारण कवाकिबी मुसलमानों को स्कूल जाने और ज्ञान प्राप्त करने का आह्वान करते थे।
इस्लामी देशों के पिछड़ेपन, प्रगति व विकास की रुकावटें और इस्लामी एकता के संबंध में कवाकिबी ने दो महत्वपूर्ण किताबें “तबाएउल इस्तेबदाद” और “उम्मुल क़ोरा” लिखी हैं और उनमें से हर एक में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षरूप से इस्लामी जगत में एकता के बारे में बात की है। “तबाएउल इस्तेबदाद व मसारेउल इस्तेअबाद” का केन्द्रीय बिन्दु तानाशाही है। कहा जाता है कि इस किताब को लिखने में कवाकिबी ने इतालवी विचारक विटोरियो आलफेरी VITTORIO ALFIERI के राष्ट्रवादी विचारों से लाभ उठाया है। आलफेरी को तानाशाही का बड़ा दुश्मन समझा जाता था और वह स्वयं मान्टेस्क्यू से प्रभावित था। आलफेरी अपनी रचनाओं में स्पष्ट शब्दों में लिखता है कि उसके विचारों, बातों और रचनाओं का लक्ष्य तानाशाही से संघर्ष करना है चाहे वह जिस रुप में हो। कवाकिबी ने अपनी किताब तबाएउल इस्तेबदाद में इस बुद्धिजीवी की ओर संकेत किया और तानाशाही को मानवता की सबसे बड़ी मुसीबत बताया है और लिखा है कि तानाशाही हर चीज़ को अपने हित में करती है, व्यवहार को ख़राब करती है, ज्ञान और विकास में रुकावट बनती है, मानवता को समाप्त कर देती है, धर्म को अपने लक्ष्यों को साधने का हथकंडा बना देती है, तानाशाही द्वारा जमाखोरी का समर्थन आर्थिक वर्गभेद के अस्तित्व में आने का कारण बनता है, मानना था कि तानाशाही, समाजों के सही प्रशिक्षण की दिशा में रुकावट है, आजादी को समूल नष्ट कर देती है और लोगों की दासता का कारण बनती है।
इसी तरह कवाकिबी तानाशाही को बुराई की जड़ और मुसलमानों द्वारा ईसाई अधिकारियों के अंधे अनुसरण को उसका आधार मानते हैं। इसी तरह उनका मानना है कि वास्तव में मुसलमानों की अज्ञानता और तानाशाहों से पूछताछ न किया जाना इस बीमारी के महामारी के रूप में बाद वाले शासकों तक फैलने व पहुंचने का कारण बनी है।
तो ज्ञान तानाशाही का अस्ली दुश्मन है। वह तानाशाही के अंत के लिए हिंसा को किसी भी रूप में वैध नहीं मानते हैं और उनका मानना है कि लोगों को नर्मी से धीरे- धीरे मौजूद स्थिति से अवगत करना चाहिये ताकि तानाशाही के खोखले महल को गिरने की भूमिका प्रशस्त हो जाये।
कवाकिबी सैयद जमालुद्दीन असदाबादी की तरह राजनीतिक जानकारी को मुसलमानो के लिए अनिवार्य समझते थे और उनका मानना था कि अंत में जो चीज़ तानाशाही को रोक सकती है वह लोगों की राजनीतिक व सामाजिक जागरुकता और उनकी ओर से निगरानी है। सैयद जमालुद्दीन की भांति और अब्दो के खिलाफ उनका मानना था कि दूसरे सुधार कार्यों से पहले मुसलमानों को राजनीतिक जानकारी होनी चाहिये और धार्मिक समझ की सहायता लेकर उनकी राजनीतिक चेतना को जागरुक बनाना चाहिये। वह मौजूद स्थिति के सुधार के लिए विशुद्ध इस्लाम की शिक्षाओं पर ध्यान देने की सिफारिश करते थे परंतु अधिकांश बुद्धिजीवियों के विपरीत वह इस्लाम को पश्चिमी सभ्यता के मुकाबले में करार नहीं देते थे।
कवाकिबी ने अपनी इस किताब में तानाशाही पर हमला किया है परंतु उन्होंने सीधे रूप से तानाशाही को इस्लामी एकता के मार्ग की रुकावट नहीं बताया है। वह कहते हैं कि तानाशाही के नतीजे, इस्लामी एकता के मार्ग की रुकावट हैं। कवाकिबी तानाशाही को नकारने और आज़ादी को सिद्ध करने में इस्लाम विशेषकर एकेश्वरवाद की भूमिका पर बल देते और कहते हैं जब तक मुसलमान अत्याचारियों और तानाशाहों के अधीन रहेंगे और ईश्वर के अलावा दूसरों के दास बने रहेंगे तब तक एकजुट नहीं हो सकते। वास्तव में वह तानाशाही और अनेकेश्वरवाद को इस्लामी राष्ट्र व समुदाय के बिखराव में एक दूसरे का पर्यायवाची मानते हैं और राजनीतिक दृष्टि से उन दोनों को आज़ादी और एकेश्वरवाद के मुकाबले में क़रार देते हैं। कवाकिबी का मानना है कि इस्लाम एकेश्वरवाद का धर्म है और वह शिर्क अर्थात अनेकेश्वरवाद को समाप्त करने और एकता स्थापित करने के लिए आया है। उन्होंने इस ओर संकेत किया है कि कुरआन ने परिषद बनाने पर बल दिया है। साथ ही उन्होंने यह भी बयान किया है कि तानाशाहों ने धार्मिक फूट , इस्लामी समुदाय के बीच विभाजन और एकता के मार्ग में बाधायें उत्पन्न की हैं। वह कहते हैं कि एकेश्वरवाद पर आस्था ग़ैर ईश्वर से आज़ादी, विकास व परिपूर्णता और इस्लामी समुदाय की एकता का कारण है और अनेकेश्वरवाद एकता की राह की रुकावट, अत्याचार, बुराई और फूट का कारण है।
कवाकिबी “उम्मुल क़ुरा” नाम की अपनी दूसरी किताब में सऊदी अरब के पवित्र नगर मक्का को केन्द्र बिन्दु मानकर इस्लामी एकता के लिए एक प्रस्ताव देते हैं। कहा जाता है कि उनका यह प्रस्ताव काल्पनिक था। वह अपने इस काल्पनिक प्रस्ताव में मक्का में विश्व के मुसलमान संगठनों आदि की बैठक का चित्रण करते हैं और उस बैठक व वार्ता में मुसलमानों के पिछड़ेपन, उसकी जड़ों और इस्लामी राष्ट्रों के समस्त प्रतिनिधियों की सहकारिता व परामर्श से उनके समाधान के मार्गों की समीक्षा करते हैं। यह बात स्वाभाविक है कि जिन प्रतिनिधियों ने इस बैठक में भाग लिया है उन्हें चाहिये कि इस्लामी जगत की परिस्थितियों और मौजूद चुनौतियों को सही तरह से समझ कर उसके मुकाबले के लिए उचित मार्गों का सुझाव दें ताकि इस्लामी जगत की राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं का समाधान हो या वे कम हो सकें। इस काल्पनिक बैठक से कवाकिबी का लक्ष्य इस्लामी देशों में मौजूद कमजोरियों व चुनौतियों की पहचान करना थी क्योंकि उनका मानना था कि केवल इस्लामी राष्ट्र व समुदाय की एकता व एकजुटता के माध्यम से ही बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। उन्होंने इस किताब में इस्लामी समाज की समस्याओं और मुसलमानों के पिछड़ेपन के कारणों का उल्लेख किया है और सांकेतिक रूप से मुसलमानों के मध्य एकता व एकजुटता की आवश्यकता की ओर संकेत किया है। उन्होंने अपनी काल्पनिक बैठक में होने वाली वार्ता के परिणाम में वास्तविकता को सही तरह से न समझने, तानाशाही राय, विचार- विमर्श करने से परहेज़ करने, समस्त क्षेत्रों में आज़ादी के न होने, अच्छाई का आदेश देने और बुराई से रोकने को छोड़ देने, धार्मिक मामलों में ढिलाई से काम लेने, उसे अपने व्यक्तिगत हितों के लिए प्रयोग करने, इस्लामी समाज में दरबारी विद्वानों और धर्मगुरुओं की पकड़, इस्लामी ज्ञानों व शिक्षाओं को पेश करने में संकीर्ण विचार, समय के ज्ञान की उपेक्षा, मुसलमानों के मध्य निराशा, अनुसरण योग्य व निष्ठावान नेता का न होना, मुसलमानों की निर्धनता और निर्धनता से उत्पन्न समस्याएं, तानाशाही और अहंकारी शासक, इस्लामी आदेशों को छोड़ देने, उसकी सीमाओं को भुला देने और मुसलमानों के मध्य अज्ञानता को इस्लामी समाजों के पिछड़ेपन का महत्वपूर्ण कारण बताया है।
कवाकिबी ने इस किताब में जो अंतिम निष्कर्ष निकाला है वह तीन चीज़े हैं। पहला यह कि मुसलमान कमज़ोरी व पिछड़ेपन के शिकार हैं और इस कमज़ोरी को दूर करने के लिए प्रयास किया जाना अनिवार्य है। दूसरा यह कि इस्लामी समाज की समस्याओं की जड़ अज्ञानता है और उसका उपचार शिक्षा और उन्नति की प्रेरणा के माध्यम से वास्विकताओं को स्पष्ट करके किया जा सकता है और तीसरे इस दर्द के उपचार के लिए बैठकों का आयोजन और सबका विशेषकर इस्लामी राष्ट्र व समुदाय के बड़े धर्मगुरूओं का इस संबंध में ज़िम्मेदारी का आभास है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस्लामी समाज में जो तानाशाह शासक थे वही कवाकिबी की मूल समस्या थे किन्तु एकता, समरसता और इस्लामी देशों व मुसलमानों की जागरुकता उनकी दूसरी महत्वपूर्ण चिंताएं थीं।