इस्लामी जगत- 15
“इस्लामी मतों को निकट लाने की कोशिश” शब्दावली लगभग 70 साल पहले क़ाहेरा के इस्लामी मतों को निकट लाने के केंद्र की ओर से सामने आई।
यह केंद्र वर्ष 1327 हिजरी शमसी में उस समय के कई बड़े शिया-सुन्नी धर्मगुरुओं और विशेष रूप से अल्लामा शैख़ मुहम्मद तक़ी क़ुमी के प्रयासों से, जो बरसों तक लेबनान व मिस्र में रहे थे, गठित हुआ। उस समय पूरे इस्लामी जगत में इसे अत्यधिक महत्व दिया गया। इस केंद्र के सदस्य शैख़ अब्दुल मजीद सलीम, शैख़ महमूद शलतूत, शैख़ अबू ज़ोहरा और हसन अलबन्ना जैसे अलअज़हर विश्व विद्यालय के शिक्षक, यमन के ज़ैदी मत के धर्मगुरू और शियों में नजफ़ के शैख़ मुहम्मद हुसैन काशिफ़ुल ग़ेता, लेबनान के सैयद शरफ़ुद्दीन और शैख़ मुहम्मद जवाद मुग़निया थे।
एकता की कोशिश के विचार में मतों से तात्पर्य, सुन्नी मुसलमानों के चार मत अर्था हनफ़ी, मालेकी, शाफ़ेई और हम्बली और शिया व ज़ैदी मत है। इस्माईली मत को शिया मत और अबाज़ी मत को सुन्नी मतों के अधीन समझा जाता है। इनमें से हर मत के अपने धार्मिक आदेश हैं और इनमें से अनेक आदेशों में इनके बीच मतभेद पए जाते हैं। इस्लामी मतों को निकट लाने का केंद्र व्यापक स्तर पर अध्ययन और समीक्षा के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ख़िलाफ़त और इमामत सहित विभिन्न मामलों में मतभेद किसी परिणाम तक नहीं पहुंचेगा और ये बातें निकट लाने का कारण नहीं बल्कि मतभेदों के बढ़ने का कारण बनेंगी अतः उसने अपने प्रयासों को धार्मिक आस्थाओं नहीं बल्कि आदेशों पर केंद्रित किया जो अलअज़हर विश्वविद्यालय के प्रमुख शैख़ महमूद शलतूत की ओर से फ़त्वा जारी किए जाने के कारण सफल हुए।
उन्होंने अपने फ़त्वे में कहा कि चारों सुन्नी मत के मानने वाले शिया मत सहित अन्य मतों का भी पालन कर सकते हैं अर्थात इन मतों के धर्मगुरुओं के फ़त्वों के अनुसार भी अपने धार्मिक कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं क्योंकि सभी क़ुरआने मजीद और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के चरित्र के अनुसार फ़त्वा देते हैं। अलअज़हर विश्वविद्यालय के कुलपति रहते हुए शैख़ महमूद शलतूत के सबसे महत्वपूर्ण क़दमों में से एक अहले सुन्नत के चारों मतों के साथ ही शीया मत के धार्मिक आदेशों की शिक्षा देने की अनुमति थी जिसने अलअज़हर विश्वविद्यालय के शिक्षकों और शिक्षाविदों के समक्ष एक नया क्षितिज खोल दिया।
एकसमान धार्मिक आदेशों के आधार पर एक अनुसंधानकर्ता सभी इस्लामी मतों के विचारों, आदेशों व फ़त्वों का अध्ययन करके उस आदेश का पालन करता है जिसका तर्क अधिक ठोस होता है। शैख़ शलतूत विभिन्न मतों के धर्मगुरुओं के तर्कों की तुलना करके इस सिद्धांत को मानते थे कि जिसका भी तर्क अधिक मज़बूत हो वही स्वीकार्य है चाहे वह उनके मत का हो अन्य मतों का। वे बल देकर कहते थे कि मुस्लिम धर्मगुरुओं को संकीर्ण सोच और आंतरिक इच्छाओं से दूर रहते हुए, हर उस विचार और तर्क को स्वीकार करना चाहिए जो इस्लाम के आधारों को सुदृढ़ करने में अधिक प्रभावी हो और परिवार व समाज के लिए अधिक लाभदायक हो।
आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद मुहम्मद हुसैन बोरूजेर्दी भी उन महान व प्रमुख धर्मगुरुओं में से थे जो हमेशा मुसलमानों की एकता और इस्लामी मतों को एक दूसरे से निकट लाने के प्रयासों पर ध्यान देते थे। वे आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अबुल हसन इस्फ़हानी के बाद शिया मुसलमानों के सबसे वरिष्ठ धर्मगुरू के रूप में चुने गए थे। उन्होंने शियों का वरिष्ठतम धर्म गुरू चुने जाने से पहले और बाद भी हमेशा मुसलमानों के मामलों और विशेष कर उनके बीच एकता को मज़बूत बनाने, मतभेदों को दूर करने और इस्लाम के झंडे तले सभी मतों को एक दूसरे के निकट लाने के अत्यधिक प्रयास किए। मुसलमानों की बुरी दशा, इस्लामी देशों पर पश्चिमी शक्तियों के वर्चस्व और मुसलमानों के बीच एक दूसरे से दुश्मनी और दुर्भावना ऐसी समस्याएं थीं जिन्होंने मुसलमानों के बीच एकता व एकजुटता के लिए उनके संकल्प को अधिक बल प्रदान किया।
अहले सुन्नत की हदीस, धार्मिक आदेशों और इतिहास की किताबों के बारे में इस सुधारवादी महान धर्मगुरू का व्यापक ज्ञान और साथ ही शिया स्रोतों के संबंध में उनकी दक्षता ने उन्हें यह बेजोड़ क्षमता प्रदान कर दी थी कि वे विभिन्न मतों के बीच समानताओं और मतभेदों की समीक्षा करके, विभिन्न मतों को निकट लाने के प्रयास के विचार को, जहां तक उन मतों की बुनियादी शिक्षाएं अनुमति देती हैं, मज़बूत करें और उसे आगे बढ़ाएं। आयतुल्लाहिल उज़मा बुरूजेर्दी की ओर से क़ाहेरा के इस्लामी मतों को निकट लाने के प्रयास के केंद्र की नैतिक व भौतिक सहायता व समर्थन से स्पष्ट हो जाता है कि वे मुसलमानों की एकता व एकजुटता के लिए विशेष प्रयास करते थे। शायद कहा जा सकता है कि इमाम ख़ुमैनी के बाद इस्लामी मतों को एक दूसरे के निकट लाने के लिए शियों में, आयतुल्लाहिल उज़मा बोरूजेर्दी जितने प्रयास कम ही धर्मगुरुओं ने किए होंगे।
आयतुल्लाहिल उज़मा बुरूजेर्दी संयुक्त धार्मिक आदेशों में विवादित मामलों को काफ़ी महत्व देते थे अर्थात उनका मानना था कि धार्मिक आदेशों पर केवल शिया मतों के स्तर पर नहीं बल्कि सभी इस्लामी मतों की सतह पर चर्चा की जानी चाहिए और हर विवादित मामले में सभी मतों के तर्कों को स्वीकार किया जाना चाहिए। यही कारण है कि उन्होंने शैख़ तूसी की प्रख्यात किताब “मसाएलुल ख़ेलाफ़” अर्थात विवादित आदेश को काफ़ी मेहनत करके पुनः संकलित व प्रकाशित किया। वे कभी कभी इस किताब को अपने पाठ में भी ले जाते और शिष्यों के समक्ष इसके अंशों को पढ़ते ताकि उन लोगों को धीरे-धीरे इस शैली की आदत पड़ जाए। उनकी यह पहल इस बात का कारण बनी की शिया धर्मगुरु शियों के धार्मिक आदेशों की किताबों के अलावा अन्य मतों की किताबों का भी अध्ययन करें और अहम धार्मिक आदेशों के बारे में उन मतों के प्रयासों और तर्कों को समझें और साथ ही इस बिंदु तक पहुंच जाएं कि फ़िक़्ह अर्थात धार्मिक आदेशों का ज्ञान, सभी इस्लामी मतों का एक संयुक्त ज्ञान है जिसका एक दूसरे पर परस्पर प्रभाव होता है और वे अब भी नए धार्मिक आदेशों में एक दूसरे के विचारों से लाभ उठा सकते हैं।
आयतुल्लाहिल उज़मा बुरूजेर्दी का मानना था कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के परिजनों में से इमामों के काल में अहले सुन्नत के प्रचलित फ़त्वों की समीक्षा से इमामों के कथनों और हदीसों को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है क्योंकि उनके कथन उन्हीं फ़त्वों के दृष्टिगत सामने आए हैं। आयतुल्लाहिल उज़मा बोरूजेर्दी के शिष्यों का कहना है कि वे कभी कभी कहते थे कि शिया फ़िक़्ह, अहले सुन्नत की फ़िक्ह से जुड़ी हुई है क्योंकि उस काल में मुसलमान जिन फ़त्वों के अनुसार अपने धार्मिक कर्म अंजाम देते थे उनके बारे में इमामों के शिष्य उनसे प्रश्न करते थे और इमाम उन्हीं फ़त्वों के दृष्टिगत जवाब देते थे।
आयतुल्लाहिल उज़मा बोरूजेर्दी की ओर से इस्लामी मतों को निकट लाने के प्रयास, मिस्र के अलअलज़हर विश्व विद्यालय के पूर्व प्रमुख शैख़ महमूद शलतूत की ओर से इस संबंध में फ़त्वा जारी किए जाने में काफ़ी प्रभावी थे। शैख़ शलतूत की नज़र में, एकता के लिए एक अहम बात उस संयुक्त बिंदु तक पहुंचना है जिस पर सभी इस्लाम मत एकमत हों। वे क़ुरआने मजीद को वह संयुक्त बिंदु बताते हुए कहते हैं। इस्लाम ने लोगों को एकता का निमंत्रण दिया है और जिस ध्रुव पर उन्हें एकत्रित होना है उसे क़ुरआने मजीद बताया है। यह बात क़ुरआन की अनेक आयतों में कही गई है। सूरए आले इमरान में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हे मुसलमानों अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से थामे रहो और आपस में फूट न पड़ने दो। ईश्वर ने अलगाव और फूट से रोका है और फूट का एक कारण सांप्रदायिकता है। एक हदीस में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इस्लाम में किसी प्रकार की सांप्रदायिकता नहीं है।
शैख़ शलतूत एक अन्य स्थान पर ईश्वर की किताब और पैग़म्बरे इस्लाम की सुन्नत अर्थात चरित्र को सभी इस्लामी मतों का संयुक्त बिंदु बताते हैं। उनका कहना है कि ज्ञान के हल्क़ों में सामने आने वाले मतभेद और साधारण लोगों के बीच मौजूद सांप्रदायिकता में बहुत अंतर है। वे कहते हैं कि मतों व विचारों में मतभेद, एक सामाजिक ज़रूरत और स्वाभाविक बात है जिससे बचा नहीं जा सकता लेकिन इसमें और धार्मिक सांप्रदायिकता और वैचारिक गूढ़ता का कारण बनने वाले मतभेद में बहुत अंतर है। सांप्रदायिकता, मुसलमानों को जोड़े रखने वाली रस्सी को काटती है और दिलों में घृणा व द्वेष पैदा करती है जबकि ज्ञान संबंधी मतभेद, दूसरों बल्कि अपने विरोधियों तक के विचारों को स्वीकार करने के कारण सराहनीय है।