तकफ़ीरी आतंकवाद-7
सलफ़ी, सलफ़ से क्या तात्पर्य लेते हैं?
सलफ़ी, सलफ़ से क्या तात्पर्य लेते हैं? पवित्र कुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम(स) की हदीसों के आधार पर उनके विश्वासों को रद्द कर दिया गया है। इसी प्रकार शीया व सुन्नी विद्वानों ने भी प्रमाणों को पेश करके उनके विश्वासों को ग़लत सिद्ध कर दिया।
अनुसरण की दो शैली व अर्थ है। प्रथम यह है कि सलफ़ अर्थात पूर्वजों का अनुसरण राजनीतिक, सांस्कृतिक ,आर्थिक और आस्था के समस्त क्षेत्रों में हो। इसी प्रकार सलफ के हर कथन और आचरण का भी अनुसरण किया जाना चाहिये। अतिवादी सलफ़ी सलफ़ की हर प्रकार की शैली में परिवर्तन को बिदअत और हराम समझते हैं। सलफ़ियों की दृष्टि में जो चीज़ महत्वपूर्ण है वह यह है कि समस्त क्षेत्रों में सलफ़ का अनुसरण किया जाना चाहिये और भावी पीढ़ियों को समस्त क्षेत्रों में सलफ़ का अनुसरण करते हुए उन्हें आदर्श बनाना चाहिये। सलफ़ी, सलफ़ के अनुसरण से जो इस प्रकार का निष्कर्ष निकालते हैं उसे विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना है। स्वयं सलफ़ के क्रिया-कलाप इस निष्कर्ष के विरुद्ध है। उसका अर्थ यह है कि स्वयं सलफ़ अपने पूर्वजों का इस प्रकार अनुसरण नहीं करते थे और पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों, उनके साथियों के साथी और इन साथियों के साथियों का सामाजिक जीवन एक समान नहीं था और इस्लाम के उदयकाल के आरंभिक पचास वर्षों में बुनियादी परिवर्तन वुजूद में आये।
पवित्र नगर मक्का में अधिकांश मुसलमान सिले हुए कपड़े से परिचित नहीं थे परंतु मदीना में उससे अवगत हो गये और यमनी एवं ग़ैर यमनी महंगे कपड़े पहनते थे जबकि इस्लाम के आरंभ में मुसलमान खजूर, ऊंट और भेड़ के मांस के अतिरिक्त कुछ नहीं जानते थे। जब मुसलमानों ने दूसरे क्षेत्रों पर विजय की और दूसरे राष्ट्रों के साथ उनका आना- जाना हो गया तो वे खाने- पीने की दूसरी चीज़ों से अवगत हुए। इसी प्रकार इस्लाम के आरंभ में उनके घर गारे-मिट्टी के बने होते थे परंतु धीरे धीरे उन्होंने अपने घरों के निर्माण में दूसरी चीज़ों व मसालों का प्रयोग करना आरंभ कर दिया। इनमें से बहुत से परिवर्तन स्वयं पैग़म्बरे इस्लाम के काल में हुए और पैग़म्बरे इस्लाम ने कभी भी इनके प्रयोग से न केवल मना नहीं किया बल्कि उसका स्वागत भी किया। पैग़म्बरे इस्लाम मक्का यहां तक कि मदीना में अंगूठी नहीं पहनते थे परंतु जब उन्होंने यह सुना कि जिस पत्र पर मोहर नहीं होती है राजा उसे नहीं पढ़ते हैं तो उन्होंने चांदी की अंगूठी पहनना आरंभ की और उस पर मोहम्मद रसूलल्लाह तीन लाइनों में लिखा हुआ था। इसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम पत्रों पर अपनी पावन अंगूठी से मोहर लगाते थे। बाद में मुसलमानों ने इस प्रकार की पद्धति को स्वीकार नहीं किया और अपने सामाजिक मामलों में समय के अनुसार स्वतंत्र रूप से चलते थे।
यहां प्रश्न यह है कि जब पहली शताब्दी के मुसलमान ही अपने सलफ के अनुसरण के प्रति कटिबद्ध नहीं थे तो आज के मुसलमानों को किस प्रकार सामाजिक मामलों में सलफ का अनुसरण करना चाहिये?।
बुद्धि से काम लिये बिना आस्था के मामलों में सलफ के अनुसरण से और कठिनाइयों का सामना है। इस्लाम के उदय काल में आस्था की कठिनाइयों को पैग़म्बरे इस्लाम के सामने पेश करने से उनका समाधान हो जाता था और इस संबंध में किसी प्रकार की बहस की आवश्यकता नहीं थी परंतु पैग़म्बरे इस्लाम के बाद परिस्थिति पूर्णतः भिन्न हो गयी और दूसरे मतों के विचार और नये नये संदेह मुसलमानों के मध्य प्रचलित हो गये थे। दूसरी ओर नई नई मांगें बुद्धि से काम लेने और तार्किक ढंग से शैक्षिक बहसों का कारण बनीं। परिणाम स्वरुप विभिन्न दृष्टिकोण अस्तित्व में आये और अब्दुल्लाह बिन अब्बास जैसे व्यक्तियों ने नये नये मामलों के बारे में संदेहों व भ्रांतियों को दूर करना आरंभ कर दिया। ऐसे मामले पेश जो पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों के काल में पेश नहीं आये थे और अगर आते थे तो वे मुसलमानों को इस प्रकार की बहसों से मना करते। पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों के साथी जैसे हसन बिन बसरी, उमर बिन अब्दुल अज़ीज़, अता बिन अबि रेबाह, सलमान बिन यसार, ताऊस बिन कैसान भी आधारिक रूप से बहस करने लगे कि इस प्रकार की बहसें पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों काल में थी ही नहीं। बैहक़ी की अलअस्मा व स्सिफात नाम की किताब शास्त्रार्थों और तार्किक प्रमाणों से भरी पड़ी है और इसमें उन विषयों की चर्चा की गयी है जो पैग़म्बरे इस्लाम के काल में नहीं थे।
धर्मशास्त्र के क्षेत्र में भी सलफ के अनुसरण से अधिक विरोधाभासों का सामना है। पैग़म्बरे इस्लाम के काल में धार्मिक विषयों के बारे सफन रूप से बहस करने की कोई आवश्यकता नहीं थी और सीधे रूप से पैग़म्बरे इस्लाम से पूछ लेने से मामले व समस्या का समाधान हो जाता था परंतु बाद के कालों में नये नये मामले पेश आये और बड़े बड़े धर्मशास्त्री आये और उन्होंने नये नये फतवों एवं आदेशों को पेश किया कि जो पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों के दिमाग़ में भी नहीं आये थे। जैसे हाजियों के अधिक होने के कारण मेना में निर्माण कार्य को मना करने पर आधारित उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ का आदेश और इसी प्रकार घायल होने या कपड़ा फाड़ने के बारे में बच्चे की गवाही को स्वीकार करने पर आधारित अब्दुर्रहमान बिन लैला का फतवा उन मामलों में से है जो पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों के काल में अस्लन नहीं था। सुन्नी मुसलमानों के अनुसार पैग़म्बरे इस्लाम ने राजनीतिक मामलों की ज़िम्मेदारी स्वयं उनके हवाले कर रखी है और वे अपने भविष्य के बारे में निर्णय लें। मुसलमानों के पहले ख़लीफ़ा ने पैग़म्बरे इस्लाम की जीवनी व परंपरा का अनुसरण नहीं किया और लोगों को खिलाफत के चयन का अधिकार नहीं दिया और उमर को अपना उत्तराधिकारी बना दिया। उमर ने भी अपने मरने के समय पैग़म्बरे इस्लाम और अबू बकर की शैली पर अमल नहीं किया और उन्होंने ख़लीफा के चयन के लिए एक परिषद का गठन किया। इसी प्रकार जब लोगों ने बहुत अधिक आग्रह किया तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम को ख़लीफ़ा चुना गया और माविया धूर्धता एवं मक्कारी से सत्ता तक पहुंच गया और उसके बाद उसने अपने बेटे यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।
वास्तव में बुद्धि से काम लिये बिना समस्त क्षेत्रों में सलफ का अनुसरण असंभव है। आरंभ से ही पैग़म्बरे इस्लाम के साथी एक दूसरे के अनुसरण के प्रति वचनबद्ध नहीं थे और हर चरण में परिस्थिति और समय के दृष्टिगत उन्होंने एक विशेष दृष्टिकोण को अपनाया है जबकि दूसरों ने उस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं किया। इस प्रकार की परिस्थिति में किस प्रकार संभव है कि भावी पीढ़ियां कई शताब्दियों के बाद सलफ़ का अनुसरण करें वह भी समस्त क्षेत्रों में। इसी प्रकार किस तरह से उनका अनुसरण किया जाये जिन्होंने स्वयं अपने सलफ का अनुसरण नहीं किया?
बुद्धि से काम लिये बिना अनुसरण का दूसरा रास्ता भी है। वह इस्लाम के सिद्धांतों का अनुसरण है और इस्लामी धर्मशास्त्र में उसके लिए सिद्धांत है। अगर सलफ से अनुसरण का तात्पर्य यह है तो उसे विशेष संप्रदाय का नाम नहीं दिया जा सकता। क्योंकि सलफ के अनुसरण का यह अर्थ वास्तव में धर्म का अनुसरण है और इस संबंध में सलफ की भूमिका केवल उसके सिद्धांतों की व्याख्या है। अलबत्ता यहां इस बिन्दु का उल्लेख आवश्यक है कि हर वह व्यक्ति इस्लाम के सिद्धांतों का व्याख्याकर्ता नहीं हो सकता जो केवल पैग़म्बरे इस्लाम को केवल देखा हो या उनके उनके साथ रहा हो बल्कि जैसाकि कहा गया कि इस बड़े व महान कार्य की ज़िम्मेदारी वही हस्तियां निभा सकती हैं जो हर प्रकार के पाप से दूर हों और धार्मिक सिद्धांतों की व्याख्या की योग्य हों। जबकि अगर सलफ से अनुसरण के इस अर्थ को भी स्वीकार कर लें तो किसी संप्रदाय का नाम सलफ़ीवाद नाम रख सकते क्योंकि इस बात का अर्थ धर्म का अनुसरण होगा।