मार्गदर्शन-29
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के उत्तराधिकारी हज़रत अली अलैहिस्सलाम के असंख्य गुणों में से कुछ का उल्लेख किया था।
ग़दीर के दिन, अर्थात 18 ज़िल्हिज्जा सन 10 हिजरी को ईश्वर की ओर से औपचारिक रूप से हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के बाद उनके उत्तराधिकारी या मुसलमानों के ख़लीफ़ा के पद पर नियुक्त किया गया। ग़दीर की घटना के बारे में ऐतिहासिक प्रमाण इतने अधिक हैं कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का उत्तराधिकारी बनाए जाने के बारे में किसी भी प्रकार की शंका बाक़ी नहीं रहती।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ग़दीर की घटना की महानता के बारे में कहते हैं। इस्लामी इतिहास में ग़दीर एक बहुत ही अहम घटना है। यह अहम व विचित्र घटना और पैग़म्बरे इस्लाम का यह कथन कि जिसका मैं अभिभावक हूं उसके ये अली अभिभावक हैं, ऐसी बात नहीं है कि जो केवल शिया किताबों में वर्णित हो और यह पूरी तरह से प्रमाणित और ठोस बात है। जिन लोगों ने इस हदीस पर आपत्ति जतानी चाही है उन्होंने भी इस हदीस पर संदेह प्रकट नहीं किया है बल्कि पैग़म्बरे इस्लाम के इस कथन के अर्थ और तात्पर्य के बारे में बातें की हैं। अतः मूल घटना, इस्लामी व ऐतिहासिक दृष्टि से एक निश्चित घटना है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के निधन से लगभग 70 दिन पहले और उनके अंतिम हज से वापसी के समय सूरए माएदा की आयत नंबर 67 में ईश्वर ने कहाः हे पैग़म्बर! आपके पालनहार की ओर से जो आदेश आप पर उतारा गया है उसे (लोगों तक) पहुंचा दीजिए और यदि आपने ऐसा न किया तो मानो आपने उसके संदेश को पहुंचाया ही नहीं। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई इस संबंध में कहते हैं। इस बात से स्पष्ट होता है कि इस्लामी की वास्तविक आत्मा, ग़दीर की घटना में मौजूद है और यह एक ईश्वरीय दायित्व है। जब जोहफ़ा के निकट ग़दीर के स्थान पर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने लोगों को रोका और हज से लौट रहे कारवां को एकत्रित किया और इस बात की घोषणा कर दी तो फिर क़ुरआने मजीद के सूरए माएदा की तीसरी आयत आईः आज मैंने तुम्हारे धर्म को संपूर्ण कर दिया और तुम पर अपनी अनुकंपाएं पूरी कर दीं और तुम्हारे लिए इस्लाम को (अमर) धर्म के रूप में स्वीकार कर लिया। इसका अर्थ यह है कि मानक निर्धारित हो गया, कसौटी स्पष्ट हो गई।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की पैग़म्बरी की घोषणा के साथ ही ईश्वरीय धर्म संपूर्ण हो गया और मानवता के लिए पूरी वास्तविकता स्पष्ट हो गई। पैग़म्बरे इस्लाम के बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम के उत्तराधिकार की घोषणा वस्तुतः पैग़म्बरे इस्लाम के मार्ग को आगे बढ़ाने की शुरुआत थी। इस्लाम धर्म को विस्तार व प्रसार के लिए ऐसे मार्गदर्शकों की ज़रूरत है जो इस धर्म की रक्षा करें और इसे पैग़म्बरे इस्लाम की तरह ही मानवता के समक्ष पेश करें और बिना किसी फेर-बदल के अगली पीढ़ियों तक पहुंचाएं। इस्लामी आस्थाओं के अनुसार संसार कभी भी इस प्रकार के नेताओं से ख़ाली नहीं रहेगा। संसार के अंतिम काल में पैग़म्बर के वंश से सामने आने वाले मोक्षदाता हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर विश्वास भी इसी इस्लामी आस्था के परिप्रेक्ष्य में है।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की दृष्टि में ग़दीर की घटना में उत्तराधिकार के सिद्धांत को पैग़म्बरी के क्रम के रूप में पेश किया गया है। वे इस बात पर बल देते हैं कि इस्लाम में, शासन, राजनीति से अलग नहीं है और हज़रत अली अलैहिस्सलाम को समाज का अभिभावक बनाना वस्तुतः शासन उनके हवाले करने के अर्थ में है। वरिष्ठ नेता कहते हैं कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पैग़म्बरे इस्लाम का जो उत्तराधिकार प्राप्त था वह राजनैतिक भी था। यह वही विषय है जिसे ईश्वर ने पैग़म्बरे इस्लाम के माध्यम से इस्लाम में प्रदर्शित किया और यह स्पष्ट कर दिया कि इस्लाम के सर्वोच्च आदेशों और क़ानूनों में शासन और इस्लामी समुदाय की अभिभावकता भी है। ग़दीर में यही बात स्पष्ट की गई। दूसरे शब्दों में ग़दीर की घटना, इस्लाम की व्यापकता, भविष्य के बारे में उसके दृष्टिकोण और इस्लामी समुदाय के मार्गदर्शन के लिए जो चीज़ बुनियादी शर्त है, उसकी सूचक है।
शायद यहां पर यह प्रश्न मन में आए कि इस प्रकार का अहम काम हज़रत अली अलैहिस्सलाम जैसी हस्ती के हवाले क्यों किया गया? इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने हज़रत अली को, जो व्यक्तित्व की दृष्टि से, चाहे वह ईमानी व्यक्तित्व हो, चाहे शिष्टाचारिक व्यक्तित्व हो, चाहे क्रांतिकारी व्यक्तित्व हो या विभिन्न वर्गों के साथ व्यवहार का व्यक्तित्व हो, एक बेजोड़ व्यक्ति थे, ईश्वर के आदेश पर अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और लोगों को उनके आज्ञापालन का आदेश दिया। यह पैग़म्बरे इस्लाम का विचार नहीं था बल्कि ईश्वरीय मार्गदर्शन था, ईश्वरीय आदेश था, ईश्वरीय नियुक्ति थी, पैग़म्बर के अन्य कथनों व मार्गदर्शन की तरह। उन सभी लोगों को, जो ठोस तर्कों से हज़रत अली अलैहिस्सलाम की जीवनी से अवगत हैं, उन्हें यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि वे ग़दीर के माध्यम से अपने उच्च व्यक्तित्व नहीं पहुंचे, ग़दीर ऐसी चीज़ नहीं थी कि जिसने हज़रत अली को बेजोड़ बनाया बल्कि ग़दीर, उनकी गुणों और परिपूर्णताओं का परिणाम था। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का व्यक्तित्व, ईश्वरीय से भय, धर्म के संपूर्ण पालन, धर्मावलंबिता, ईश्वर के अलावा किसी की भी और सत्य के मार्ग के अलावा किसी भी मार्ग की परवाह करने, ईश्वर के मार्ग पर चलने में निर्भीकता, ज्ञान, बुद्धि, युक्ति और इच्छा शक्ति का प्रतीक था।
यद्यपि ग़दीर की घटना में एक लाख से अधिक मुसलमान मौजूद थे और उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम द्वारा हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपना उत्तराधिकारी बनाए जाने की घोषणा अपने कानों से सुनी थी लेकिन उन लोगों ने पैग़म्बर के निधन के बाद उन्हें छोड़ दिया और दूसरों की ख़िलाफ़त या उत्तराधिकार को स्वीकार कर लिया। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने, जो शासन को, अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं बल्कि इस्लामी समाज की समस्याओं के समाधान और परिपूर्णता की ओर लोगों के मार्गदर्शन के एक अवसर के रूप में देखते थे, अपने हक़ पर आग्रह किया। उन्होंने आरंभ में लोगों से बात की और उन्हें ग़दीर की घटना याद दिलाई लेकिन जब यह देखा कि अगर वे अपने हक़ पर आग्रह करते हैं तो इस्लाम ही ख़तरे में पड़ जाएगा तो उन्होंने अपना हक़ छोड़ दिया। इस प्रकार हज़रत अली अलैहिस्सलाम को, जो मोक्ष, कल्याण और नैतिक व शिष्टाचारिक परिपूर्णताओं की ओर लोगों का मार्गदर्शन कर सकते थे, 25 साल तक, पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकार और लोगों की अभिभावकता के अधिकार से वंचित रखा गया।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई, शासन और ख़िलाफ़त के अधिकार से हज़रत अली अलैहिस्सलाम को दूर रखे जाने के बारे में, इस्लाम में राजनीति के मूल बिंदुओं की ओर संकेत करते हैं। वे कहते हैं कि इस्लाम में लोगों के विचार और मत को महत्व दिया गया है। शासक के चयन में और इसी तरह उसके द्वारा किए जाने वाले कामों के बारे में लोगों के मत को स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि आप देखते हैं कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने, जो स्वयं को पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम द्वारा नियुक्त किए जाने के कारण इस्लामी शासन का सच्चा हक़दार समझते थे, जब यह देखा कि मामला लोगों के मत और उनके चयन तक पहुंच गया है तो फिर लोगों की राय को मान लिया।
इस्लामी शासन में बैअत अर्थात लोगों द्वारा किसी के आज्ञापालन का प्रण, शासक के शासन की वैधता की एक शर्त है। अगर कोई ऐसा शासक हो जिससे लोगों ने बैअत न की हो, अर्थात उसे स्वीकार न किया हो, तो उसे घर बैठना पड़ेगा और शासन की वैधता लोगों की बैअत पर निर्भर है। वरिष्ठ नेता इस्लाम के आरंभिक काल के इतिहास की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि जब तीसरे ख़लीफ़ा की हत्या के बाद लोग हज़रत अली अलैहिस्सलाम के घर के पास एकत्रित हो गए तो उन्होंने लोगों से यह नहीं कहा कि तुम्हारी हैसियत क्या है और तुम्हारे मत का क्या प्रभाव है? बल्कि उन्होंने कहा कि मेरे अलावा किसी और से ख़िलाफ़त के लिए आग्रह करो। उनके कहने का अर्थ यह था कि तुम्हारा इरादा, तुम्हारी इच्छा और तुम्हारा चयन निर्णायक है। इस आधार पर लोगों द्वारा की जाने वाली बैअत एक स्वीकार किया जा चुका सिद्धांत है। अलबत्ता इस्लाम में, शासन की वैधता का एक आधार जनता है, संपूर्ण आधार नहीं। इस्लाम की राजनैतिक व्यवस्था लोगों की इच्छा के अलावा ईश्वरीय भय और न्याय जैसे स्तंभों पर भी आधारित है। अगर कोई ऐसा व्यक्ति शासन के लिए चुन लिया जाए जिसमें ईश्वरीय भय और न्याय न हो तो अगर सारे लोग भी उस पर सहमत हों तो इस्लाम की दृष्टि में वह अवैध शासन है।