May ०८, २०१७ १६:३१ Asia/Kolkata

हज़रत अली (अ) द्वारा ख़िलाफ़त की ज़िम्मेदारी संभालने के बाद, कुछ विरोधी गुटों ने सिर उठाना शुरू कर दिया।

सबसे पहले हज़रत अली (अ) का विरोध उन लोगों ने किया जो हज़रत की बैयत कर चुके थे, लेकिन उनके न्याय और इंसाफ़ को सहन नहीं कर पाए। उन्होंने विद्रोह कर दिया और हज़रत अली से युद्ध किया। स्थिति से फ़ायदा उठाकर माविया ने भी सिर उठाया और सिफ़्फ़ीन नामक युद्ध छेड़ दिया। कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोगों ने भी हज़रत अली (अ) का विरोध किया।

ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनई, हज़रत अली (अ) के विरोधी गुटों के बारे में कहते हैं, क़ासेतीन अर्थात अत्याचारी, अर्थात माविया और शाम के निवासी कि जिन्होंने घोषित रूप से हज़रत की ख़िलाफ़त को स्वीकार नहीं किया। इन लोगों ने हज़रत अली पर काफ़ी अत्याचार किए। ख़ुद हज़रत अली ने उन्हें अत्याचारी कहा है। नाकेसीन का अर्थ होता है, तोड़ने वाले, यहां इससे अभिप्राय है बैयत तोड़ने वाले।

नाकेसीन ने पहले हज़रत अली (अ) की बैयत की, लेकिन बाद में बैयत तोड़ दी। तीसरा गुट मारेक़ीन का है। मारिक़ का अर्थ है, भागने वाला। इनके बारे में कहा गया है कि यह लोग धर्म से ऐसे भागते थे, जैसे कि तीर कमान से छूटता है। यह लोग ख़वारिज थे। हालांकि यह लोग दिखावटी रूप से या ज़ाहिरी तौर पर धर्म को मानते थे और धर्म की बात भी करते थे। उनके धर्म का आधार, उनके ग़लत और ख़तरनाक विचार थे।

हज़रत अली से माविया और शाम के निवासियों की दुश्मनी की बुनियाद, विचारधारा थी। वे हज़रत अली के शासन को स्वीकार नहीं करते थे। वे इस्लाम को केवल नाम भर के तौर पर स्वीकार करते थे। आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई क़ासेतीन को हज़रत अली (अ) का सबसे ख़तरनाक दुश्मन बताते हैं। वे इस गुट के बारे में कहते हैं, माविया के मुसलमान होने और हज़रत अली (अ) से युद्ध करने के बीच, क़रीब 30 साल का फ़ासला है। माविया और उसके गुर्गों ने वर्षों तक शाम पर शासन किया था, उन्होंने वहां काफ़ी पैठ बना ली थी। अब वह समय नहीं था कि अगर एक शब्द ज़बान से निकालें, तो उनसे कहा जाए कि तुम तो नए नए मुसलमान हो, क्या कह रहे हो।

इसीलिए यह वह धड़ा था, जो मूल रूप से अलवी शासन को स्वीकार नहीं करता था। वे एक ऐसा शासन चाहते थे, जिस पर उनका निंयत्रण हो। उसके बाद उन्होंने यह सिद्ध भी कर दिया और इस्लामी जगत ने उनके शासन का अनुभव किया। अर्थात वह माविया जो हज़रत अली (अ) से प्रतिस्पर्धा कर रहा था और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के कुछ साथियों के साथ बहुत मोहब्बत से पेश आता था, हज़रत के बाद उनके साथ कठोरता से पेश आने लगा, यहां तक कि यज़ीद को सत्ता सौंप दी गई और कर्बला की त्रासदी हुई।

उसके बाद मरवान, अब्दुल मलिक, हज्जाज इब्ने यूसुफ़ सक़फ़ी और यूसुफ़ बिन अम्र सक़फ़ी का काल आया, जो उस शासन के परिणामों में से एक परिणाम था। यह वह शासन थे, जिनके अत्याचारों के उल्लेख से इतिहास कांप उठता है। उदाहरण स्वरूप, हज्जाज का शासन। यह वह शासन हैं, जिनकी बुनियाद माविया ने रखी और जिस उद्देश्य के लिए वह हज़रत अली (अ) से युद्ध कर रहा था।

वरिष्ठ नेता का मानना है कि माविया और क़ासेतीन गुट पूर्ण रूप से एक दुनियावी या भौतिक शासन चाहते थे, वे अंहकारी थे और अपनी भौतिक इच्छाओं की आपूर्ति करना चाहते थे, जिन्हें उन्होंने प्राप्त भी कर लिया। हज़रत अली (अ) के दुश्मनों का दूसरा गुट वह था, जिन्होंने पहले अपने मौला की बैयत कर ली थी और उनके उद्देश्यों को पसंद करते थे। लेकिन उनके भीतर परिवर्तन हुआ और वे भौतिकतावादी हो गए। इस प्रकार के लोग हर ज़माने में और हर जगह पाए जाते हैं। जब वे अपने निजी हितों को ख़तरे में देखते हैं तो अपने ही चयन का विरोध करने लगते हैं।

वरिष्ठ नेता नाकेसीन को हज़रत अली (अ) का पुराना साथी बताते हैं, जो उनके न्याय को सहन नहीं कर सके और उनसे टकरा बैठे। जो उन्होंने देखा कि न्याय की स्थापना में हज़रत अली संबंधों को कोई महत्व नहीं देते हैं, जान पहचान और दोस्ती पर कोई ध्यान नहीं देते हैं, तो वे इस ईश्वरीय न्याय को सहन नहीं कर पाए और हज़रत के दुश्मन हो गए। यह लोग विशेष भागीदारी चाहते थे।

वरिष्ठ नेता नाकेसीन का परिचय कराते हुए कहते हैं, नाकेसीन हज़रत अली (अ) की सत्ता को उस हद तक स्वीकार करते थे, जहां सत्ता में उन्हें विशेष भागीदारी मिले, उनसे सलाह ली जाए, उन्हें ज़िम्मेदारी दी जाए, उन्हें सत्ता सौंपी जाए, उनकी संपत्ति में के बारे में कोई पूछताछ न हो, उनसे उसके स्रोत के बारे में सवाल न किया जाए। इनमें से जब कुछ लोग इस दुनिया से गए तो अपने पीछे कितना अधिक धन छोड़ गए। यह लोग हज़रत अली को स्वीकार करते थे, लेकिन इस शर्त के साथ कि उन्हें उनके कृत्यों से कोई मतलब नहीं होना चाहिए और उन्हें यह नहीं पूछना चाहिए कि तुमने यह कहां से लिया है, क्यों दूसरों का माल खा रहे हो और कहां ले जा रहे हो, इन सब चीज़ों से उन्हें कोई मतलब नहीं होना चाहिए। इसीलिए वह सबसे पहले आए और उन्होंने हज़रत की बैयत की।

तलह, ज़ुबैर और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के अन्य वरिष्ठ साथियों ने हज़रत अली (अ) की बैयत की और उन्हें ख़लीफ़ा के रूप में स्वीकार कर लिया। लेकिन जब तीन चार महीने गुज़र गए तो उन्होंने देखा, नहीं इस शासन से ऐसी आशा रखना व्यर्थ है, इसलिए कि यह शासन ऐसा शासन है जो न्याय करने में दोस्त और दुश्मन के बीच अंतर नहीं करता है, शासक स्वयं अपने और अपने परिजनों के लिए कोई अतिरिक्त अधिकार या विशिष्टता नहीं चाहता है, जिन लोगों ने पहले इस्लाम स्वीकार किया उन्हें किसी प्रकार की विशिष्टता प्रदान नहीं करता है और इस्लामी क़ानूनों को सबके लिए समान रूप से लागू करता है, इसलिए उन्होंने अपना रास्ता बदल दिया और जमल नामक युद्ध छेड़ दिया, जो वास्तव में एक बड़ी साज़िश थी।

उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स) की एक पत्नी हज़रत आयशा को भी अपना साथी बना लिया। इस युद्ध में काफ़ी लोग मारे गए। युद्ध में हज़रत अली की जीत हुई और उन्होंने समस्याओं का समाधान निकाला। यह दूसरा धड़ा था, जिसने हज़रत का काफ़ी समय लिया। ज़ाहिरी चीज़ों पर भरोसा करने वाले लोगों का अपरिपक्व व्यवहार भी दुश्मनी का कारण बनता है। मारेक़ीन अर्थात ख़वारिज का गुट ऐसा ही था। यह लोग संकीर्ण मानसिकता के थे और उनके धार्मिक विश्वासों का कोई सही आधार नहीं था। यह हज़रत अली (अ) के शासनकाल में तीसरे दुश्मन के रूप में उभरे।

ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता इस संदर्भ में कहते हैं, मारेक़ीन ने अपने कार्यों का आधार ग़लत और ख़तरनाक विचारों को बनाया था। वे क़ुरान के व्याख्याकार हज़रत अली से धार्मिक ज्ञान प्राप्त नहीं करते थे। वरिष्ठ नेता का मानना है कि मारेक़ीन को धर्म का सही ज्ञान नहीं था, इसीलिए वह अपनी ग़लतियों में सुधार नहीं कर सकते थे। सिफ़्फ़ीन युद्ध में माविया के सैनिकों ने जब हार के डर से क़ुरान भालों पर उठाया तो ख़वारिज ने हज़रत अली (अ) के आदेश को अनदेखा कर दिया कि जो ख़ुद बोलता हुआ क़ुरान थे।

उन्होंने हज़रत अली (अ) पर युद्ध को बीच में छोड़ने का दबाव बनाया और कहा जिन लोगों से हम लड़ रहे हैं, यह क़ुरान को मानने वाले हैं, इसलिए हमें इनसे नहीं लड़ना चाहिए। यही वे लोग थे जब इन्हें पता चला कि उनसे ग़लती हुई है तो उन्होंने कहा कि हम काफ़िर हो चुके हैं और अली (अ) भी काफ़िर हो चुके हैं। इसलिए उन्हें तौबा करनी चाहिए।

मारेक़ीन के बारे में एक भ्रांति यह है कि यह एक राजनीतिक गुट था। यह लोग किसी प्रकार एक राजनीतिक गुट में परिवर्तित हो गए और एकजुट होकर हज़रत अल (अ) के मुक़ाबले में खड़े हो गए। वे एकजुट होकर हज़रत के भाषण में विघ्न डालते थे, नमाज़ के बीच में मस्जिद में घुस जाते थे और क़ुरान की आयत पढ़कर हज़रत के सामने आपत्ति जताते थे। वरिष्ठ नेता के अनुसार, एक घटिया और गंदी राजनीति इस नादान और कट्टरपंथी राजनीतिक गुट में परिवर्तित कर सकती थी। मारेक़ीन की राजनीति का आधार, क़ासेतीन की गंदी राजनीति अर्थात माविया और अमरे आस की साज़िशें थीं। हालांकि हज़रत अली ने अपने तीनों दुश्मनों के मुक़ाबले में जीत हासिल की और युद्ध में उन्हें पराजित किया।

ख़वारिज ने कुछ नासमझ लोगों को अपने साथ कर लिया था, इन्हें नेहरवान युद्ध में हज़रत अली (अ) के हाथों भारी पराजय का सामना करना पड़ा। लेकिन उनके कुछ तत्व समाज में मौजूद थे, अंततः उन्होंने हज़रत अली (अ) को मस्जिद की मेहराब में शहीद कर दिया।

हज़रत अली (अ) का महान व्यक्तित्व सदगुणों का एक अथाह महासागर था। यहनमाज़ में सजदे की हालत में इब्ने मुल्जिम की तलवार के वार से अपने पालनहार से जा मिले। रातों को जागकर, कांधे पर रोटियां लादकर कूफ़े की गलियों में भूखों का पेट भराने वाली हस्ती, जो इबादत में अद्विती थी, ईश्वरीय धर्म और न्याय की स्थापना जिसका सबसे अहम कर्तव्य था, उसने ईश्वरी ख़िलाफ़त के भारी भार को बड़ी सुन्दरता से उसके गंतव्य तक पहुंचा दिया और अपने पांच वर्षीय शासन में विश्व के सामने शासन का सर्वश्रेष्ठ आदर्श पेश किया।                                     

 

 

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