मार्गदर्शन- 33
इतिहास के मुताबिक़, हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की उम्र बहुत कम थी।
इतिहासकारों का मानना है कि पैग़म्बरे इस्लाम की बेटी 18 या 24 वर्षों तक ही जीवित रहीं। उनकी कम उम्र इतनी मूल्यवान थी कि उनके जीवन का एक एक पल आदर्श है। अगर हम उनके छोटे से जीवन पर नज़र डालें तो उससे बहुत ही महत्वपूर्ण पाठ ले सकते हैं। हज़रत फ़ातेमा ज़हरा का जीवन हज़रत अली (अ) से विवाह से पहले और उसके बाद शिक्षाप्रद बिन्दुओं से भरा पड़ा है।
वरिष्ठ नेता, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के प्रति हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) के शिष्टाचार की ओर संकेत करते हैं। वे मक्का वासियों द्वारा हाशमी परिवार या हज़रत अबू तालिब (अ) के परिजनों के बहिष्कार के कठिन दिनों का उल्लेख करते हैं। यह वह समय था जब अत्याचारियों के सरग़नाओं अबू जहल और अबू लहब ने पैग़म्बरे इस्लाम और उनके साथियों को मदीना से निकाल दिया था। पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने अपने साथियों और हज़रत अबू तालिब, हज़रत ख़दीजा और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा के साथ तीन साल तक मक्का के निकट स्थित एक पहाड़ की ग़ुफ़ा में बिताए। यह उनके लिए बहुत ही कठिन दौर था, अत्याचारियों ने उनका पूर्ण रूप से बहिष्कार किया हुआ था।
सबसे अधिक दबाव पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ऊपर था, इसलिए वे मार्गदर्शक और ईश्वरीय दूत थे और सबकी ज़िम्मेदारी उनके कांधों पर थी। इस दौरान, हज़रत अबू तालिब और हज़रत ख़दीजा का देहांत हो गया। इन दो महान हस्तियों के इस दुनिया से चले जाने से पैग़म्बरे इस्लाम बहुत दुखी हुए। इस दुख की घड़ी में, बेटी की मोहब्बत और बेटी का सुन्दर आचरण पैग़म्बरे इस्लाम के दिल को ख़ुश करता था। इस संदर्भ में आयुल्लाह ख़ामेनई कहते हैं, हज़रत फ़ातेमा ज़हरा यही कोई 6-7 साल की रही होंगी जब हज़रत अबू तालिब के परिवार का मक्का वासियों ने बहिष्कार किया। इस्लाम के आरम्भिक इतिहास की यह बहुत ही कठिन घटना है। मक्के में दिन में काफ़ी गर्मी होती थी और रात में बहुत अधिक सर्दी। अर्थात यह ऐसी स्थिति थी, जो असहनीय थी। इन लोगों ने तीन वर्षों तक ऐसे जंगल में जीवन व्यतीत किया। उन्होंने कितने फ़ाक़े किए और कितनी कठिनाईयों को सहन किया, ख़ुदा जानता है उन्होंने कितना प्रयास किया। यह पैग़म्बरे इस्लाम के जीवन का एक कठिन दौर था। इन कठिन परिस्थितियों में हज़रत फ़ातेमा की भूमिका देखिए, हज़रत फ़ातेमा एक मां की तरह, एक सलाहकार की तरह और एक नर्स की तरह पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा कर रही थीं। यह वही अवसर था, जब पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, फ़ातेमा अपने बाप की मां है। यह कथन उस समय से संबिंत है, जब हज़रत फ़ातेमा 6 या 7 साल की थीं। क्या यह एक आदर्श नहीं हो सकता कि इंसान अपने आसपास के मामलों के कारण, जल्दी ज़िम्मेदारी और ज़िंदादिली का एहसास करे। ज़िंदादिली की वह मूल्यवान पूंजी जो उसके भीतर है, उसका इस्तेमाल करे, ताकि बाप के चेहरे से ग़म और दुख की लकीरों को मिटा सके, वह भी ऐसे समय में जब बाप पचास साल का हो चुका हो और लगभग बूढ़ा हो गया हो, यह एक पाठ है।
हज़रत फ़ातेमा का सम्मान इतना अधिक था कि जब वे पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में पहुंचती थीं, तो वे उनके सम्मान में खड़े हो जाते थे, उनके निकट जाते थे और उन्हें दुलार करते थे और उनके वजूद से स्वर्ग की सुगंध का एहसास करते थे। बाप और बेटी के बीच इतना अधिक सम्मान और प्यार था कि लोग आश्चर्य करते थे। हज़रत अली से विवाह होने के बाद हज़रत फ़ातेमा ज़हरा ने पत्नी का अद्वितीय कर्तव्य निभाया और घर-परिवार की देखभाल, बच्चों के पालन पोषण और सामाजिक संबंधों में ऐसी भूमिका निभाई जो हमारे लिए आदर्श है।
इस संदर्भ में वरिष्ठ नेता कहते हैं कभी इंसान सोचता है कि घर ग्रहस्ती के रख रखाव का मतलब है, कि पत्नी रसोई में भोजन तैयार करे, घर की साफ़ सफ़ाई करे और इसी प्रकार के अन्य कार्य अंजाम दे। लेकिन घर ग्रहस्ती केवल यही नहीं है। आप देखिए कि हज़रत फ़ातेमा ने इस काम को किस तरह अंजाम दिया। पैग़म्बरे इस्लाम के मदीने में 10 वर्षीय जीवन में लगभग 9 वर्ष हज़रत फ़ातेमा और हज़रत अली ने दांपत्य जीवन गुज़ारा। इन 9 वर्षों के दौरान छोटे बड़े लगभग 60 युद्ध हुए, जिनमें से अधिकांश में हज़रत अली ने भाग लिया। अब आप देखिए कि वह एक ऐसी महिला थीं, जो घर ग्रहस्ती को संभालती थीं और उनका पति युद्ध में मोर्चा संभालता था, क्योंकि अगर वह मोर्चे पर नहीं होगा तो मोर्चा नष्ट हो जाएगा। जीवन की सुविधाओं की दृष्टि से उन्हें दुनिया की सुविधाएं प्राप्त नहीं थीं और निर्धनता का जीवन व्यतीत करते थे। हालांकि वे पैग़म्बरे इस्लाम की बेटी थीं। ऐसे पति को लैस करने के लिए और उसे घर और परिवार की समस्त चिंताओं से निश्चिंत करने के लिए पत्नी का मनोबल और आत्मविश्वास कितना ऊंचा होना चाहिए। यह पत्नी अपने पति को हौसला देती है और बच्चों का जैसा पालन पोषण करना चाहए वैसा पालन पोषण करती है। अब आप अगर यह कहें कि उनके पुत्र इमाम हुसन और इमाम हुसैन तो इमाम थे, उनमें इमामत की प्रवृत्ति थी, तो उनकी बेटी हज़रत ज़ैनब तो इमाम नहीं थीं। हज़रत फ़ातेमा ज़हरा ने इन्हीं 9 वर्षों में उनका भी पालन पोषण किया। फ़ातेमा ज़हरा ने इस प्रकार से घर ग्रहस्ती की और पति की सेवा की और इस तरह से एक विशिष्ट महिला की भूमिका निभाई। क्या यह सब एक जवान लड़की के लिए, एक पत्नी के लिए आदर्श नहीं है? यह बहुत महत्वपूर्ण है।
हज़रत फ़ातेमा ज़हरा का अपने समाज से भी अच्छा और निकटतम संबंध था। उस काल में जब मुसलमानों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, वे ग़रीबों की सहायता किया करती थीं। पैग़म्बरे इस्लाम (स) की बेटी होने के बावजूद, निर्धनता का जीवन व्यतीत करती थीं, लेकिन कभी भी भिखारियों और ज़रूरतमंदों को ख़ाली हाथ अपने द्वार से वापस नहीं लौटाती थीं। ख़ुद भूखे रहकर भूखों को भोजन कराना और ज़रूरतमंदों की ज़रूरत पूरी करना, हज़रत फ़ातेमा ने दुनिया को सिखाया है।
इतिहास में उल्लेख है कि एक बार हज़रत फ़ातेमा ज़हरा, हज़रत अली (अ) और हज़रत इमाम हसन और इमाम हुसैन ने तीन दिन तक रोज़ा रखा। तीनों दिन इफ़तारी के समय भूखा मांगने वाला उनके द्वार पर आया, उन्होंने हर बार अपना समस्त भोजन उस मांगने वाले को दान कर दिया। उस समय पैग़म्बरे के लिए आकाशवाणी हुई और क़ुरान की आयत नाज़िल हुई। इस आयत में ईश्वर ने इस परिवार के दान की प्रशंसा की। सूरए इंसान की आठवीं से ग्याहरवीं आयत तक में उल्लेख है कि अपने भोजन को यद्यपि उसकी उन्हें ज़रूरत है, ग़रीबों, अनाथों और क़ैदियों को दे देते हैं, और कहते हैं कि हम ईश्वर के लिए तुम्हें यह भोजन दे रहे हैं और हमें तुमसे इसके लिए कोई आभार नहीं चाहिए। हम अपने ईश्वर से प्रलय के दिन के लिए भय रखते हैं। इसी कारण ईश्वर उन्हें उस दिन के प्रकोप से सुरक्षित रखेगा और उनका स्वागत करेगा, जबकि वे प्रसन्न होंगे।
वरिष्ठ नेता इस संदर्भ में कहते हैं, ऐसा नहीं हो सकता कि हम हज़रत फ़ातेमा से मोहब्बत और श्रद्धा का दावा करें, जबकि उस महान हस्ती ने भूखे लोगों का पेट भराने के लिए अपनी और इमाम हसन और इमाम हुसैन जैसे बेटों और अपने पिता पैग़म्बरे इस्लाम की रोटियां दान कर दीं। एक दिन नहीं, दो दिन नहीं बल्कि तीनों दिन। हम कहते हैं कि हम ऐसी हस्ती का अनुसरण करते हैं। वरिष्ठ नेता आगे कहते हैं, जीवन की ऐसे कठिन समय में हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) समाज में एक ऐसे ध्रुव की भांति थीं, जिनसे लोग संपर्क करते थे। वे पैग़म्बरे इस्लाम की ऐसी बेटी हैं, जो समस्याओं का समाधान निकालकर जीवन को उत्कृष्टता के चरण पर ले गईं और उन्होंने अपने बच्चों की ऐसी तरबीयत की कि वे इमाम हसन, इमाम हुसैन और हज़रत ज़ैनब बने, हज़रत अली जैसे पति की सेवा की और पैग़म्बरे इस्लाम जैसे पिता की प्रसन्नता प्राप्त की।