Jul ०१, २०१७ १४:०८ Asia/Kolkata

इमाम हुसैन (अ) के मार्ग को स्पष्ट करते हुए ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनई कहते हैं, इस्लाम की महान विरासत को बचाने के लिए इमाम हुसैन (अ) हर मार्ग को अपना सकते हैं।

वह विरासत कि जो उनके नाना, पिता और उनके अनुयाईयों की है उसे शहीदों के सरदार के जीवन में देखा जा सकता है, वे इस्लाम के उद्देश्यों को उजागर करते हैं, लोगों से सही मार्ग पर आगे बढ़ने की सिफ़ारिश करते हैं, इस्लाम की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करते हैं और लोगों के विवेक को जगाते हैं उन्हें जागृत करते हैं, इमाम हुसैन ने जीवन भर यह कार्य किए हैं। उसके बाद अपनी जान की बाज़ी लगाकर एक बड़े शैतान का मुक़ाबला किया, यह है पूर्ण बलिदान, इस तरह से इमाम हुसैन ने इस्लाम को बचाया। उनके इसी क़दम ने इस्लाम को सुरक्षित बना दिया।

इमाम हुसैन (अ) वह चमकता हुआ चिराग़ है कि जिसने लोगों को सही रास्ता दिखाया और अत्याचार एवं भेदभाव का शिकार लोगों को आज़ादी और स्वाधीनता का मार्ग दिखाया और उनके सामने इंसान के उत्कृष्ट गुणों का आदर्श पेश किया। उन्होंने इंसानों को संदेश दिया कि कभी भी ज़ालिमों एवं अत्याचारियों के सामने सिर न झुकाएं। हां, हुसैन (अ) ने ज़ुल्म और अत्याचार से मुक़ाबला करके साबित कर दिया कि ईश्वर की प्रसन्नता के लिए काम अंजाम देकर, उसे अमरता प्रदान की जा सकती है।

अनोखे रत्न को पहचानना सामान्य लोगों के बस की बात नहीं है, बल्कि कहा जा सकता है कि हम सामान्य लोग, हज़रत पैग़म्बरे इस्लाम (स) और इमाम हुसैन (अ) जैसे उनके पवित्र परिजनों के महत्व और महानता को कदापि नहीं समझ सकते। इमाम हुसैन की महानता के लिए इतना ही काफ़ी था कि वे पैग़म्बरे इस्लाम के नवासे, हज़रत अली (अ) और हज़रत फ़ातेमा (स) के बेटे थे। इस संदर्भ में आयतुल्लाह ख़ामेनई कहते हैं, इमाम हुसैन (अ) ने उस घर, उस गोद और उस आध्यात्मिक वातावरण में परवरिश पाई थी।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) के निधन के समय हज़रत इमाम हुसैन (अ) की आयु लगभग 9 साल थी। जब हज़रत अली (अ) इस दुनिया से गए तो उस समय इमाम हुसैन 38 वर्षा के थे। वरिष्ठ नेता इस बिंदु की ओर संकेत करते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के जीवनकाल में विशेष रूप से हज़रत अली (अ) के जीवन काल में कि जो एक परीक्षा का काल था, इमाम हुसैन की अच्छी तरह से परवरिश की गई और हज़रत अली (अ) की परवरिश के कारण, एक चमकता हुआ तारा बन गए।

आयतुल्लाह ख़ामेनई इस बिंदु की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि इमाम हुसैन (अ) ने केवल पैग़म्बरे इस्लाम से संबंध होने और उनके पवित्र परिवार में पलने बढ़ने को ही काफ़ी नहीं समझा, बल्कि आत्मनिर्माण और उत्कृष्टता तक पहुंचने के लिए ख़ुद भी काफ़ी प्रयास किया। अगर हम जैसा कोई इंसान होगा तो वह यही कहेगा कि इतना ही काफ़ी है, इतना ही अच्छा है और इसी के साथ हम ईश्वर के सामने पहुंच जायेंगे। लेकिन इमाम हुसैन का साहस कुछ और ही था। उन्होंने अपने भाई इमाम हसन के जीवन काल में भी उसी तरह से प्रगति की औऱ अपने समय के इमाम का अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्यों को अंजाम दिया। यह सब श्रेणियां और उत्कृष्टता है। उनके एक एक लमहे को याद कीजिए। उसके बाद उन्होंने अपने भाई की शहादत देखी। उसके बाद 10 वर्ष तक जीवित रहे, इमाम हसन की शहादत और इमाम हुसैन की शहादत के बीच क़रीब 10 साल का अंतर है, आप देखिए कि इमाम हुसैन आशूर से पहले इन दस वर्षों में क्या करते रहे?

आयतुल्लाह ख़ामेनई की नज़र में इमाम हुसैन की इमामत के दस वर्षों का कई आयामों से अध्ययन किया जा सकता है। इस संदर्भ में वे कहते हैं, इबादत और तपस्या, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के रौज़े में इमाम हुसैन (अ) की दुआएं और एतकाफ़ और आध्यात्मिक गतिविधियां, सिक्के का एक रुख़ है। क्योंकि दूसरी ओर वे ज्ञान और इस्लामी शिक्षाओं के विस्तार में व्यस्त रहे और धर्म में होने वाली कुरीतियों से मुक़ाबला करते रहे। उस काल में कुरीतियां, इस्लाम के लिए सबसे बड़ी समस्या थीं, जो किसी बाढ़ की भांति इस्लामी समाज में बहकर आ रही थीं। यह ऐसा वक़्त था, जब मुस्लिम शहरों और राष्ट्रों में इस्लाम की सबसे महान हस्ती पर लानत भेजने के लिए कहा जा रहा था। इमामत और हज़रत अली (अ) के अनुयाईयों को उनकी मोहब्बत के जुर्म में सज़ाएं दी जा रही थीं। ऐसे वातावरण में हुसैन इब्ने अली पहाड़ की भांति खड़े हो गए और उन्होंने फ़ौलाद की तरह कुरीतियों के पर्दों को चाक कर दिया।

वरिष्ठ नेता आगे कहते हैं, इमाम हुसैन की गतिविधियों का एक अन्य पहलू लोगों को बुराई से रोकना और अच्छाई का आहवान करना था, जैसा कि इमाम ने मआविया को एक पत्र लिखा, जिसका इतिहास की किताबों में उल्लेख है, वह पत्र यज़ीद के तख़्त पर बैठने  के बाद भेजा गया। इमाम हुसैन का यज़ीद से मुक़ाबला और उस भ्रष्ट राक्षस की बैयत न करने का फ़ैसला, क़ुरान और पैग़म्बरे इस्लाम की सिफ़ारिशों के मुताबिक़ था। इमाम हुसैन के पूरे जीवन में, उपदेशों से लेकर करबला के आंदोलन तक, क़ुरान और पैग़म्बरे इस्लाम की सिफ़ारिशों की झलक दिखाई पड़ती है।

ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता इमाम हुसैन (अ) के बारे में कहते हैं, देखिए एक इंसान, आत्मा के शुद्धिकरण के लिए कितना महान क़दम उठाता है और सांस्कृतिक क्षेत्र में कि जो कुरीतियों से मुक़ाबला और ईश्वरीय आदेशों का प्रचार व प्रसार करना और विशिष्ट लोगों का प्रशिक्षण करना है, और राजनीतिक क्षेत्र में भी कि जो अच्छाई का आहवान करना और बुराई से रोकना है, इस तरह से क़दम उठाते हैं। उसके बाद राजनीतिक मैदान में इतना महान परिश्रम, यह कि इमाम हुसैन उस ज़माने की असाधारण ख़तरनाक एवं कुरीति का मुक़ाबला करने के लिए उठ खड़े होते हैं, यह एक सबक़ है।

वरिष्ठ नेता का मानना है कि यज़ीद का शासन, एक ऐसा शासन था जिसमें ख़ुदा के बंदों और इंसानों पर अत्याचार होता था और उनके साथ अंहकार और स्वार्थ के साथ भेदभाव होता था, इस शासन में आध्यात्म और इंसानों के अधिकारों को कोई महत्व प्राप्त नहीं था। बनी उमय्या के शासन के बारे में वे कहते हैं, उन्होंने इस्लामी शासन को एक अत्याचारी शासन में और इस्लाम के पूर्व वाले शासन में परिवर्तित कर दिया था। इस्लामी व्यवस्था की विशेषता कि जो एक शासन है, उस समय उसे एवं ख़िलाफ़त को एक बादशाहत में बदल दिया गया। ख़िलाफ़त एवं इमामत का अर्थ है धर्म में आस्था रखने वालों और दुनिया का मार्गदर्शन करना। ऐसे लोगों का मार्गदर्शन कि जो एक ही दिशा और उद्देश्य की ओर आगे बढ़ रहे हैं। एक व्यक्ति दूसरों का मार्गदर्शन करता है और अगर कोई रास्ता भटक जाता है तो उसका हाथ थामता है और उसे सही रास्ते पर लाता है, अगर कोई थक जाता है तो उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है, अगर किसी के पैर घायल हो जाते हैं तो उसका उपचार करता है और उसे भौतिक एवं आध्यात्मिक सहायता पहुंचाता है। इमाम हुसैन (अ) के काल में इस्लामी ख़िलाफ़त को पाप, अत्याचार और दुश्मनी में बदल दिया गया था, इमाम हुसैन ने इन परिस्थितियों से मुक़ाबला किया।

वरिष्ठ नेता का मानना है कि इमाम हुसैन का प्रथम उद्देश्य, इस्लामी समाज से भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकना था और समाज में सुधार करना था। वे इस संदर्भ में कहते हैं, भ्रष्टाचार कई प्रकार का होता है, चोरी भ्रष्टाचार है, अमानत में ख़यानत भ्रष्टाचार है, निर्भरता भ्रष्टाचार है, किसी का दमन करना भ्रष्टाचार है, अनैतिकता भ्रष्टाचार है, वित्तीय अनियमितता भ्रष्टाचार है, आपस में दुश्मनी भ्रष्टाचार है, धर्म के दुश्मनों की ओर झुकाव भ्रष्टाचार है, धर्म विरोधी चीज़ों में रूची भ्रष्टाचार है। क्योंकि समस्त चीज़ें धर्म की छत्रछाया में वजूद में आती हैं।

इमाम हुसैन (अ) पीड़ितों की सुरक्षा को महत्व देते थे। वरिष्ठ नेता कहते हैं, पीड़ित और अत्याचार ग्रस्त वे लोग हैं, जो कुछ कर नहीं सकते हैं, उनके सामने कोई रास्ता नहीं है। उद्देश्य यह है कि समजा में हर कमज़ोर इंसान को सुरक्षा प्राप्त हो। हर प्रकार की सुरक्षा, जैसा कि आज की दुनिया में है। इमाम हुसैन का उद्देश्य अपने ज़माने के अत्याचारी शासकों के एकदम विपरीत था। आज भी दुनिया में यही है। धर्म के ध्वज को गिराते हैं, पीड़ितों को अधिक सताते हैं और अत्याचारी पीड़ितों के ख़ून में अपने पंजे अधिक ग़ड़ाते हैं।

इमाम हुसैन ने इस्लाम के अनुसार यज़ीद के ख़िलाफ़ प्रतिरोध किया और फ़रमाया, तुम जानते हो कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने अपने जीवन में फ़रमाया था, जो कोई ऐसे अत्याचारी को कि जो ईश्वर की ओर से किए गए हराम को हलाल समझे, ईश्वर से किए गए वादे को तोड़े, पैग़म्बर की सुन्नत का विरोध करे, लोगों के साथ अन्याय करे, देखे लेकिन वह अपने लहजे में और आचरण में कोई बदलाव नहीं लाए तो ईश्वर उसे उस अत्याचारी शासक के साथ एक स्थान में रखेगा। वरिष्ठ नेता का मानना है कि इमाम हुसैन ने अपने इस संदेश से अपने अनुयाईयों को समझाया है कि सत्य और सही रास्ते पर अटल रहना एक महान कर्तव्य है, अब उसका जो भी परिणाम हो, यह महत्वपूर्ण नहीं है। अगर सफलता प्राप्त होगी तो बहुत अच्छा, लेकिन अगर शहादत मिली तो वह भी बहुत अच्छा, हां इमाम हुसैन ने इसी तरह से प्रतिरोध किया।                      

 

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