Jul ०४, २०१७ १५:५६ Asia/Kolkata

क़तर-सऊदी अरब के तनावपूर्ण संबंध के मद्देनज़र क़तर सरकार इस तनाव पर दो तरह की प्रतिक्रिया दिखा सकती है।

इन दोनों ही प्रकार की प्रतिक्रिया का विशेष परिणाम निकलेगा। क़तर सरकार दबाव के सामने प्रतिरोध का रास्ता अपना सकती है या दबाव के सामने झुक सकती है। अगर पहला वाला रास्ता अर्थात दबाव के सामने डटने का रास्ता अपनाती है तो इसके दोहा के लिए कुछ परिणाम निकलेंगे। इनमें एक क़तर की विदेश नीति में स्वाधीनता है।

क़तर उन अरब देशों में है जिसने 2011 से पहले तक विदेश नीति में निर्धारित स्ट्रैटिजी अख़्तियार कर रखी थी। इसी प्रकार उसने प्रैग्मटिज़्म अर्थात व्यवहारवाद की नीति अपना रखी थी। क़तर के पूर्व शासक शैख़ हमद बिन ख़लीफ़ा आले सानी ने अपनी आंतरिक नीति में सुधार करने के साथ साथ विदेश नीति में कुछ अहम पहल की थी। इन अहम पहल में क्षेत्र के संकटों के हल में मध्यस्थता करना, पश्चिम एशिया में विरोधी धड़ों से संपर्क बनाना और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में प्रभावी उपस्थिति शामिल है। फ़ार्स खाड़ी सहयोग परिषद का कोई भी सदस्य देश अपनी विदेश नीति में क़तर जितना सफल नहीं रहा।

इस संदर्भ में अमरीका की जॉर्ज टाउन यूनिवर्सिटी में क़तर विभाग में ईरानी प्रोफ़ेसर मेहरान कामरवा का कहना है कि स्वतंत्र दृष्टिकोण व पहल करना, 2011 से पहले तक क़तर की विदेश नीति की पहचान रही है।

बैरूत में कार्नेगी संस्था में पश्चिम एशिया विभाग की सचिव डॉक्टर लीना ख़तीब का भी कहना है कि 2011 से पहले तक क़तर की विदेश नीति फैली हुयी थी। उनका कहना है कि क़तर की विदेश नीति ने उसकी छवि सऊदी अरब के प्रभाव में रहने वाले एक छोटे से देश से बदल कर अंतर्राष्ट्रीय संबंध और पश्चिम एशिया की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण रोल अदा करने वाली बना दी है।

अगर क़तर सऊदी अरब और उसके घटकों की ओर से दबाव के सामने डट जाए तो इस प्रकार वह अपनी स्वतंत्र विदेश नीति की रक्षा कर सकेगा क्योंकि सऊदी अरब की ओर से क़तर सरकार पर दबाव डालने का सबसे बड़ा कारण, क़तर की सऊदी अरब की क्षेत्रीय नीति से समन्वित नीति न अपनाना है ख़ास तौर पर ईरान के साथ संबंध के विषय में क़तर की नीति सऊदी अरब से अलग है। 

दूसरे यह कि अगर क़तर सरकार आले सऊद और उसके घटकों के दबाव के सामने प्रतिरोध का रास्ता अपनाती है तो इसका संभावित नतीजा यह होगा कि क़तर अरब जगत में अलग थलग पड़ सकता है। क्योंकि सऊदी अरब जिस तरह उसने कोमोर, जिबूती, सूडान, सेनेगल, लीबिया, मिस्र, जॉर्डन, सोमालिया, मोरक्को और चाड जैसे आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर अरब देशों को अपनी तरफ़ करने के लिए पेट्रो डॉलर ख़र्च किए एक बार फिर क़तर पर दबाव डालने के लिए इन देशों का समर्थन हासिल करने के लिए पेट्रो डॉलर ख़र्च करेगा। इस आधार पर कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि क़तर को चाहिए कि इस तनाव में स्वाधीनता व अलग थलग पड़ने के बीच किसी एक को चुने। इस संदर्भ में सीएनएन के टीकाकार मैक्कार्डी ने 7 जून 2017 को अपनी टिप्पणी में कहा, सऊदी अरब और उसके घटक क़तर के साथ संबंध तोड़ कर उसे अरब व इस्लामी देशों में तनहा करना चाहते हैं।

तीसरे यह कि अगर क़तर सऊदी अरब और उसके घटकों के दबाव के सामने प्रतिरोध करता है तो उसे सुरक्षा समस्या ख़ास तौर पर खाद्य पदार्थ की कमी जैसी मुश्किल का सामना होगा। सऊदी अरब से मिली क़तर की सीमा के बंद होने के शुरु के दिनों में क़तर के विभिन्न क्षेत्रों में खाद्य पदार्थ की दुकानों के सामने लंबी लंबी लाइनों से इसी बात की पुष्टि होती है।

क़तर के मामले में वरिष्ठ टीकाकार क्रिस्टियन कोवाट ओलरिचसन ने 5 जून 2017 को हालिया तनाव के बारे में अपने लेख में इस बात को माना है कि सऊदी अरब और उसके घटक क़तर के साथ ज़मीनी, समुद्री व हवाई सीमाएं बंद करके क़तर में खाद्य पदार्थ की आपूर्ति को रोकना चाहते हैं ताकि इस तरह क़तर के भीतर अशांति पैदा हो और फिर इस अशांति से राजनैतिक संकट पैदा हो।

चौथे यह कि अगर क़तर सऊदी अरब के ख़िलाफ़ प्रतिरोध जारी रखता है तो इस बात की संभावना है कि सऊदी अरब क़तर में शैख़ तमीम के ख़िलाफ़ विद्रोह करवा दे। 1850 से अब तक क़तर में आले सानी परिवार के 8 शासक रहे हैं। इनमें से 3 शासक विद्रोह के ज़रिए सत्ता तक पहुंचे।

क्रिस्टियन कोवाट ओलरिचसन ने एटलांटिक अख़बार में एक समीक्षा में लिखा, “सऊदी अरब ने शैख़ हमद बिन ख़लीफ़ा के शासन काल में उनके ख़िलाफ़ विद्रोह की कोशिश की। 1995 में शैख़ हमद के अपने बाप शैख़ ख़लीफ़ा के ख़िलाफ़ विद्रोह के बाद कि इस घटना से आले सऊद शासन ख़ुश नहीं था, 1996 में सऊदी अरब ने क़तर में शैख़ ख़लीफ़ा को सत्ता में दोबारा लाने की कोशिश की लेकिन इस कोशिश का कोई नतीजा नहीं निकला। 2005 में भी सऊदी अरब ने क़तर में शैख़ हमद बिन ख़लीफ़ा को विद्रोह के ज़रिए सत्ता से हटाने की कोशिश की जिसका कोई नतीजा नहीं निकला।”

हालांकि 2013 में क़तर में सत्ता का हस्तांतरण शांतिपूर्ण ढंग से हुआ लेकिन बहुत से टीकाकारों का मानना है कि 2011 और उसके बाद के वर्षों में अरब देशों में हुए प्रदर्शनों के संबंध में क़तर की नीति के कारण सऊदी अरब और अमरीका ने शैख़ हमद को हटाने की संयुक्त रूप से कोशिश की। इन हालात के मद्देनज़र और क़तर में प्रजातंत्र न होने और क़तर में सत्ता के परिवार के सदस्यों के हाथों में घूमने के मद्देनज़र, अगर क़तर-सऊदी अरब के बीच मौजूदा तनाव जारी रहता है तो आले सऊद शासन 37 साल के क़तरी शासक के ख़िलाफ़ विद्रोह की साज़िश रच सकता है। इसी परिप्रेक्ष्य में अमरीका में सऊदी अरब की लॉबी के प्रमुख सलमान अंसारी ने अपने ट्वीटर अकाउंट पर क़तरी शासक तमीम बिन हमद आले सानी को सांकेतिक रूप से विद्रोह की धमकी दी।

पांचवे सऊदी अरब-क़तर के बीच तनाव जारी रहने की हालत में क़तर में आर्थिक विकास की दर गिर सकती है। इस बात के मद्देनज़र क़तर के सभी पड़ोसी देशों ने सिवाए ईरान के अपनी ज़मीनी, समुद्री और हवाई सीमाएं क़तर के लिए बंद कर दी हैं और इस घटना का क़तर के ऊर्जा व परिवहन क्षेत्र पर प्रभाव पड़ेगा, क़तर में आर्थिक विकास की दर गिरने की संभावना है। मिसाल के तौर पर चार अरब देशों की ओर से क़तर के साथ संबंध तोड़ने के एलान के कुछ ही घंटों के दौरान, क़तर में स्टॉक एक्सचेंज मार्केट में शेयर के मूल्य में काफ़ी गिरावट हुयी और थोड़े ही समय में क़तर के शेयर बाज़ार का मुख्य इंडेक्स 5.7 फ़ीसद नीचे गिर गया और क़तर के राष्ट्रीय बैंक के शेयर के मूल्य में 4.6 फ़ीसद गिरावट देखी गयी। क़तर के सऊदी अरब, संयुक्त अरब इमारात और बहरैन से संबंध न रहने की हालत में क़तर को गैस के निर्यात में अधिक लागत का सामना होगा। इसके साथ ही क़तर की मज़बूत आर्थिक स्थिति के मद्देनज़र अल्पकाल में क़तर को आर्थिक संकट का सामना नहीं होगा।                

सऊदी अरब और उसके घटकों की ओर से दबाव के सामने क़तर के पास दूसरा उपाय यह है कि वह इन दबावों के सामने झुक जाए। इसका क़तर के लिए कुछ परिणाम निकलेगा।

अगर क़तर इन दबावों के सामने झुकता है तो इसका अर्थ यह होगा कि उसे पश्चिम एशिया में सऊदी अरब के इशारे पर चलना होगा। नवंबर 2014 में सऊदी अरब, संयुक्त अरब इमारात और बहरैन के साथ क़तर के संबंध में संकट ख़त्म हो गया था। इस तनाव को ख़त्म करने के लिए क़तर इख़वानुल मुस्लेमीन के सदस्यों को दोहा से अंकारा भेजाने पर तय्यार हुआ, दोहा से संयुक्त अरब इमारात के विरोधी को निकाला, मिस्र में अलजज़ीरा की शाखा बंद की और फ़ार्स खाड़ी सहयोग परिषद के सदस्यों के साथ सुरक्षा सहयोग बढ़ाया। इस बार भी अगर क़तर सऊदी अरब के दबाव के सामने झुकता है तो इसका अर्थ यह होगा कि क़तर सऊदी अरब की क्षेत्रीय नीति में हां में हां मिलाने के लिए तय्यार है।

अगर क़तर सऊदी अरब के दबाव के सामने झुकता है तो क़तर की स्वाधीन क्षेत्रीय नीति अपनाने की छवि कमज़ोर हो जाएगी क्योंकि सऊदी अरब उस वक़्त क़तर के साथ फिर से संबंध बनाएगा जब दोहा हमास, इख़वानुल मुस्लेमीन और ईरान सहित क्षेत्रीय मामले में सऊदी अरब की शर्तों को मान ले।

इस बात में शक नहीं करना चाहिए कि सऊदी अरब और उसके घटकों के दबाव के सामने क़तर के झुकने की स्थिति में इन देशों के साथ उसके संबंध फिर से हो जाएंगे। संबंध होने की स्थिति में इन देशों की ज़मीनी, हवाई और समुद्री सीमाएं खुल जाएंगी जिसका क़तर की अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर पड़ेगा।

अंत में यह कि क़तर को सऊदी अरब की नीतियों की आलोचना करने की स्थिति में कुछ परिणाम का सामना होगा, लेकिन क़तर का आलोचनात्मक व्यवहार आले सऊद शासन को यह संदेश देगा कि स्वाधीन देश जिन्हें आले सऊद के पेट्रो डॉलर की ज़रूरत नहीं है, सऊदी अरब की क्षेत्रीय नीति को चुनौती देने के लिए तय्यार हैं।