Sep ०३, २०१७ १६:१८ Asia/Kolkata

मोहर्रम ऐसा महीना है जिसमें इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से श्रद्धा रखने वालों के दिल तपने लगते हैं और उनकी भावनाएं ताज़ा हो जाती हैं।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत को आज वर्षों हो रहे हैं और आज भी यह हृदय विदारक घटना लोगों के दिलो में ज़िंदा और समय बीतने के साथ साथ इसमें और ताज़गी पैदा होती जा रही है। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने कहा कि धर्म का आधार आशूरा से जुड़ गया है और आशूरा की विभूतियां भी बाक़ी हैं।

आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई आशूरा की घटना के महत्वपूर्ण बिन्दुओं की ओर इशारा करते हैं। इस महा घटना में पैग़म्बरे इसलाम के पौत्र इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की महानता और इस महान हस्ती के नेतृत्व के बारे में वरिष्ठ नेता कहते हैं कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के व्यवहार में, पहले ही दिन से जब वह मदीने से चले थे और उस व्यक्ति में जो करबला में शहीद हुआ, अध्यात्म, प्रतिष्ठा, सम्मान और ईश्वर के समक्ष आत्मसमर्पण और उपासना का एहसास होता है। समस्त चरणों में इसी प्रकार है। उस दिन जब सैकड़ों पत्र पहुंचते हैं कि हम आपके शीया हैं और आपके निष्ठावान हैं, आप हमारी मदद को पहुंचें, हम इराक़ और कूफ़ा में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, उस समय आप में कोई घमंड पैदा नहीं हुआ, उस स्थान पर उन्होंने भाषण देते हुए मौत को याद किया। यह नहीं कहा कि ऐसा कर दूंगा या वैसा करूंगा। उन्होंने दुश्मनों को धमकी और दोस्तों व मित्रों को कूफ़ा के राजपाट से पद का प्रलोभन नहीं दिया। पूरी सूझबूझ के साथ मुसलमानों वाला आंदोलन, हमेशा उपासना और विनम्रता के साथ, यह वही समय था जब सभी लोगों ने अपने हाथ उनकी ओर बढ़ाए और उनसे निष्ठा व्यक्त की थी। करबला के मैदान में 72 लोगों के साथ तीस हज़ार की यज़ीदी सेना ने उनका घेराव कर लिया, उनको जान से मारने की धमकी देने लगे, सगे संबंधियों को धमकियां दीं, महिलाओं और बच्चों को बंदी बनाने की धमकी दी, इस ईश्वरीय बंदे के चेहरे पर तनिक भी परेशानी के चिन्ह दिखाई न दिए।

वरिष्ठ नेता आशूर के बारे में कहते हैं कि आशूरा का दिन, महान घटना के चरम का दिन है। हुसैन इब्ने अली करबला के मैदान में युद्ध के युद्ध करने नहीं आए थे, जो भी व्यक्ति रणक्षेत्र जाना चाहता है वह आवश्यक युद्ध उपकरण अपने साथ रखता हे किन्तु इमाम हुसैन इब्ने अली अपने साथ महिलाओं और बच्चों को लाए थे। इसका यह अर्थ हुआ था कि यहां पर वह घटना घटनी चाहिए जो इतिहास के दौरान मनुष्य की भावनाओं को अपनी ओर केन्द्रित करे ताकि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की महानता का पता चले। इमाम हुसैन को पता था कि दुश्मन बहुत नीच और घटिया है। वह देख रहे थे कि जो लोग युद्ध के लिए आए हैं, वह कूफ़े के कुछ छटे हुए ग़ुंडों और बदमाशों के अतिरिक्त कुछ और नहीं थे, जो छोटे और तुच्छ इनाम की लालच में यह बड़ा अपराध अंजाम देने को तैयार हो गये। उनको पता था कि उनके बाद उनकी महिलाओं और बच्चों की क्या दुर्दशा होने वाली है, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम इन चीज़ों से निश्चेत नहीं थे किन्तु उसके बावजूद भी झुके नहीं, अपनी रास्त से हटे नहीं, और इस मार्ग पर चलने पर आग्रह किया, अब पता चला कि यह रास्ता कितना महत्वपूर्ण है और यह कितना महान कार्य है।

पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के लगभग पचास वर्ष बाद, यज़ीद पैग़म्बरे इस्लाम के स्थान पर बैठ गया, यज़ीद वह था जो सिर से पैर तक पाप और भ्रष्टाचार में डूबा हुआ था। वह ईश्वर के अस्तित्व और उसकी एकता को नहीं मानता था। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता का कहना है कि यह अद्भुत मुद्दा, खेद की बात है कि उस काल के लोगों को अद्भुत नहीं लगा, इन हालात में जब इस प्रकार की निश्चेतना इस्लामी जगत पर छायी हो जो ख़तरे का आभास भी नहीं कर पाती, तो क्या किया जा सकता है? हुसैन इब्ने अली जैसा व्यक्ति जो इस्लाम धर्म का प्रतीक है और पैग़म्बरे इस्लाम का दूसरा रुख है, इन हालात में क्या करे? जी हां उन्हें ऐसा काम करना चाहिए जिससे इस्लामी जगत को न केवल उस दिन बल्कि उसके बाद की दूसरी शताब्दियों तक के लिए जागरूक करें और निश्चेतना की नींद से उठा दें। यह जागरूकता इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन से आरंभ हुई। जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को कूफ़े में सरकार के गठन का निमंत्रण दिया गया और वह कूफ़े की ओर चल दिए, यह तो केवल ज़ाहिर नज़र आने वाला और निकल पड़ने का ज़रिया था।

वरिष्ठ नेता का मानना है कि यदि इमाम हुसैन को निमंत्रित भी न किया जाता तो यह आंदोलन व्यवहारिक होता। वह कहते हैं कि इमाम हुसैन को यह कार्यवाही करनी थी ताकि दिखा सकें कि इन हालात में एक मुसलमान की ज़िम्मेदारी क्या है, उन्होंने आने वाली शताब्दियों के समस्त मुसलमनों को एक नुस्ख़ा दे दिया, उन्होंने एक नुस्ख़ा लिख दिया, हुसैन इब्ने अली का नुस्ख़ा, शब्दों का मायाजाल या हवा में बातें नहीं था, उनका यह नुस्ख़ा व्यवहारिक था, उन्होंने सबसे पहले क़दम बढ़ाया और और दिखा दिया कि रास्ता यह है, इस आंदोलन के मार्ग में यदि उनकी मूल्यवान जान, जो दुनिया की सबसे क़ीमती जान है, चली जाए तो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की नज़र में तो ज़्यादा क़ीमती नहीं है। इस मार्ग में यदि इमाम हुसैन के साथियों की जानें चली जाएं तो जो दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण हस्तियां हैं, तो इमाम हुसैन के निकट इसका कोई महत्व नहीं है। अगर ज़ैनब जैसी पैग़म्बरे इस्लाम के परिजन की महत्वपूर्ण हस्ती बंदी बना ली जाए, पैग़म्बरे इस्लाम को पता था कि जब वह इस तपते हुए मरुस्थल में मार दिए जाएंगे तो इन महिलाओं और बच्चों को बंदी बना लिया जाएगा। इस महा लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इमाम हुसैन की दृष्टि में यह क़ैद व बंद और यह भारी क़ीमत का कोई महत्व नहीं था। दुनिया को मुक्ति दिलाने और सत्य का झंडा फहराने के लिए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पास जो कुछ भी था वह रणक्षेत्र में लेकर आ गये थे।

आशूरा की हृदय विदारक घटना, नैतिकता और सूझबूझ से मुसलमानों की दूरी का परिणाम थी। जब भ्रांतियों और गुमराही के सामने चुप रहा जाए और ईश्वरीय धर्म में भ्रष्ट बात शामिल कर दी जाए तो उठ खड़े होना चाहिए। वर्तमान स्थिति में कि जब इस्लाम के नाम पर कट्टरपंथी गुट मुसलमानों का जनसंहार कर रहे हैं, ईश्वर की ओर वैध की हुई चीज़ों को अवैध और अवैध को वैध कर रहे हैं। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता के अनुसार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के काल में यदि लोग नैतिकता से संपन्न होते और धार्मिक सूझबूझ पायी जाती तो यज़ीद, इब्ने ज़ियाद, उम्रे साद और दूसरे कभी भी करबला की घटना अंजाम देने का साहस ही नहीं कर सकते थे। आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने इस महत्वपूर्ण बिन्दु की ओर संकेत करते हुए कहा कि कभी भी इस्लामी जगत और इस्लामी समाज, एक पाठ, एक सीख औरर एक मार्गदर्शक ध्वज के रूप में आशूरा की घटना की अनदेखी नहीं की जा सकती। निश्चित रूप से इस्लाम, आशूर और इमाम हुसैन की वजह से ज़िंदा है। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम का कहना है कि हुसैन मुझ से है और मैं हुसैन से हूं।  इसका मतलब यह है कि मेरे धर्म और मेरे मार्ग हुसैन अलैहिस्सलाम के माध्यम से जारी रहेगा। यदि आशूरा की घटना न होती, यदि इस्लामी इतिहास में यह महान घटना न घटी होती, यह अनुभव और यह पाठ व्यवहारिक रूप से मुसलमानों को न दिया गया होता तो निश्चित रूप से इस्लाम पथभ्रष्टता का शिकार हो जाता,  जैसा कि इस्लाम से पहले धर्म का हाल था और इस्लाम की वास्तविकता का कोई नाम न होता और इस्लाम का प्रकाश बाक़ी न रहता। आशूरा के वैभव का अर्थ यही है।

बहुत से इतिहासकारों ने आशूरा की घटनाओं को बयान किया है। इन्हीं इतिहासकारों में से एक ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की महानता के बारे में लिखा कि ईश्वर की सौगैंध मैं ने उन्हें पराजित नहीं देखा। इस रिवायत में मकसूर शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ होता है जिसके के सिर पर दुख व दर्द के पहाड़ टूट पड़े हों। इस हृदय विदारक घटना में हुसैन इब्ने अली की पूरी कमाई लुट गयी, बच्चे मार दिए गये, भाई शहीद हो गया और दोस्त और साथी सब मारे गये, उन पर सारे दुख के पहाड़ टूटे किन्तु उनके चेहरे पर एक बल नहीं पड़ा, उनके चेहरे पर पराजित व्यक्ति की भांति चिन्ह नहीं दिखाई पड़े। इतिहासकार कहता है कि मैंने दुनिया में दुख व दर्द में घिरे मनुष्य को हुसैन जैसा मज़बूत न देखा, मैंने कदापि नहीं देखा कि जिस व्यक्ति पर दुनिया के सारे अत्याचार किए जाएं सके चेहरे पर अजीब प्रकार का संतोष और दिल में ईश्वर पर भरोसा हो। आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि जी हां यही ईश्वरीय प्रतिष्ठा है। इमाम हुसैन ने इतिहास में यह लिख दिया और यह मनुष्य को समझा दिया कि उस सरकार और समाज की सथापना के लिए संघर्ष करना चाहिए जिस समाज में नीचता, अज्ञानता और भेदभाव न हो, सभी के लिए इस प्रकार के समाज की स्थापना के लिए संघर्ष करना होगा।

 

 

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