Sep ११, २०१७ १३:३४ Asia/Kolkata

पर्यावरण की सुरक्षा का विषय पहले राष्ट्रीय स्तर का विषय हुआ करता था जिसके बारे में देशों के भीतर ही चर्चाएं होती थीं किंतु हालिया दशकों में होने वाले व्यापक परिवर्तनों के कारण पर्यावरण की सुरक्षा का विषय एक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा हो गया है।

पर्यावर्ण की सुरक्षा का विषय, राष्ट्रीय से अन्तर्राष्ट्रीय विषय इसलिए बन गया क्योंकि एक ओर तो विकसित देशों में पर्यावरण को होने वाली क्षति के दुष्परिणाम सामने आने लगे और दूसरी ओर पर्यावरण के बारे में वैज्ञानिक पर्गति के कारण, अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं और देशों का ध्यान, पर्यावरण को क्षति से होने वाले दुष्परिणामों की ओर बहुत तेज़ी से गया। इन दुष्परिणामों के कारण इन संस्थाओं तथा राष्ट्रों ने इसका मुक़ाकला करने का प्रण लिया। इस प्रकार 1960 के दशक में बहुत सी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने पर्यावरण की सुरक्षा के विषय को अपनी कार्यसूचि में शामिल कर लिया।

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60 के दशक में विश्व की बहुत सी संस्थाओं ने पर्यावरण के प्रदूषण की विभिन्न आयामों की समीक्षा करनी शुरु कीं जिनमें डब्लू एच ओ, यूनेस्को , आईएई और कुछ अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं शामिल हैं। यह बात तो सही है कि इन अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने पर्यावरण के प्रदूषण की अपने – अपने हिसाब से समीक्षाएं कीं किंतु लंबे समय तक कोई ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था नहीं थी जो हर आयाम से इस विषय की समीक्षा करके देशों के लिए बाध्यकारी नियम बनाने के साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा दे सके।

साठ के दशक के अंत में विश्व समुदाय ने इस समस्या का आभास बहुत तेज़ी से किया। इसके बाद 1972 में पर्यावरण के बारे में स्टाकहोम कांफ़ेंस का आयोजन किया गया। इस कांफ़्रेंस में भाग लेने वाले देशों ने विश्व के देशों में परस्पर समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से ’’ यूएनईपी‘‘ पारित किया और उसी दौरान संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक प्रस्ताव पारित कर यूएनईपी की स्थापना का मार्ग समतल किया। इसने सन 1973 से अपनी गतिविधियां आरंभ की। इस प्रकार से ’’ यूएनईपी‘‘ ही एकमात्र ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था है जो पर्यावरण की सुरक्षा के उद्देश्य से नीतियां निर्धारित करके सरकारों, सरकारी संस्थाओं और ग़ैर सरकारी संस्थाओं के बीच समरस्ता स्थापित करती है।

इस क़दम के बाद ’’ यूएनईपी‘‘ या संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम नामक संस्था ने विश्व मौसम विभाग के साथ मिलकर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से पर्यावरण को होने वाली क्षति की समीक्षा के लिए सन 1988 में, ‘‘ प्रयावरण की समीक्षा‘‘ नामक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का गठन किया। नवंबर 1990 में जनेवा में पर्यावरण के बारे में होने वाली बैठक में भाग लेने वाले इस निषकर्श पर पहुंचे कि जलवायु परिवर्तन के समक्ष चुनौतियों से मुक़ाबले के लिए किसी कन्वेंशन का बनाया जाना बहुत ही ज़रूरी है।

उसके बाद वार्तालाप का क्रम आरंभ हुआ। वार्ताकार देशों ने यह निर्णय किया कि जलवायु परिवर्तन के बारे में एक कन्वेंशन तैयार किया जाए जिसे बाद में रियो कांफ़्रेंस में पारित किया गया। जलवायु परिवर्तनों के अतिरिक्त, प्राकृतिक स्रोतों के विनाश तथा विभिन्न प्रजातियों के पौधों और जानवरों के विलुप्त होने के बारे में स्तर पर चिंता उत्पन्न हुई। यूनेप या Evaluation of the United Nations Environment program ने 1988 से 1990 के बीच इन मामलों के विशेषज्ञों को एकत्रित किया ताकि वे इन समस्याओं का समाधान खोजें। सन 1991 में वनस्पतियों तथा पशुओं की समाप्त होती नस्लों को रोकने के लिए एक कन्वेंशन का गठन किया गया जिसे रियो कांफ़्रेंस में पारित कराया गया। इसके अतिरिक्त बहुत से औद्योगिक देशों ने भूमध्य खेती के बारे में अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन पास करने के प्रयास आरंभ कर दिये।

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दूसरी ओर बहुत से अफ़्रीकी देशों में जंगलों के विनाश के कारण बंजर भूमियों में हो रही वृद्धि को रोकने के लिए भी क़ानून बनाए जाने की आवश्यकता महसूस की गई। इस कन्वेंशन को बनाने के प्रयासों के साथ ही साथ स्थिर विकास के बारे में एक अन्तर्राष्ट्रीय सहमति के लिए भी कोशिशें शुरु हुईं। रियो बैठक में पारित करने के लिए मूल रूप में दो मसौदों को पेश करने की तैयारी की गई। पहला मसौदा वास्तव में वह घोषणापत्र था जिसपर पहले सहमति हो गई थी और जो रियो बैठक में रियो घोषणापत्र के रूप में पारित हुआ। दूसरा मसौदा, स्थिर विकास योजना को लागू करने की कार्यसूचि थी जो रियो सम्मेलन में कार्यसूचि- 21 के नाम से प्रसिद्ध हुई।

सन 1992 में इन महत्वपूर्ण कार्यवाहियों के बाद ब्राज़ील के रियो डी जेनेरो नगर में पर्यावरण और राष्ट्रसंघ के विकास के बारे में कांफ़्रेंस आयोजित की गई। स्थिर विकास और प्रयावरण की सुरक्षा के बारे में इस कांफ़्रेंस को महत्वपूर्ण बैठक माना जाता है। इस कांफ़्रेंस में, जिसे धरती सम्मेलन भी कहा जाता है 150 देशों ने भाग लिया जिसमें 135 देशों के राष्ट्राध्यक्षों, 4500 सरकारी संगठनों तथा 1500 ग़ैर सरकारी संगठनों ने भाग लिया था। इस बैठक के अंत में कार्यसूचि-21 के नाम से प्रस्ताव पारित किया गया। हालांकि जून 1994 में बंजर होती भूमियों के बारे में कन्वेंशन पर हस्ताक्षर हो गए थे किंतु इसे धरती सम्मेलन की ही एक उपलब्धि बताया जाता है।

किसी अन्तर्राष्ट्रीय समझौते का पारित हो जाना इस अर्थ में होता है कि यह समझौता पहले उस देश की संसद में पारित हो जहां पर वह पारित हुआ है ताकि उस देश के क़ानून के अनुसार उसे लागू किया जा सके।

सामान्यत: किसी अन्तर्राष्ट्रीय समझौते को लागू होने में लंबा समय लगता है। उदाहरण स्वरूप सन 1982 में संयुक्त राष्ट्रसंघ के समुद्र का क़ानून पारित किया गया था जबकि उसके 12 वर्षों के बाद अर्थात 1994 में पूर्ण रूप में पारित किया जा सका। लेकिन ख़ुशी की बात यह है कि रियत कन्वेंशन में पारित होने वाले तीनों कन्वेंशन, दो वर्षों के बाद ही लागू किये जा सके। इन समझौतों के माध्यम से जलवायु परिवर्तन के कन्वेंशन को बहुत गंभीरता के साथ आगे बढ़ाया गया। इस बारे में पहली बैठक सन 1995 में आयोजित हुई थी।

मार्च सन 1995 में जर्मनी के बर्लिन नगर में एक कांफ़्रेंस का आयोजन किया गया जिसमें यह निर्णय लिया गया कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने के उद्देश्य से औद्योगिक देशों के लिए कुछ बाध्यकारी क़ानून बनाए जाएं। सन 1997 में क्योटो संधि के अन्तर्गत औद्योगिक देश इस बात के लिए सहमत हुए कि वे अगले 10 वर्षों के भीतर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को पांचप्रतिशत कम करेंगे। वे इस बात पर भी सहमत हुए कि विकासशील देशों के लिए सौर ऊर्जा जैसी वे कल्पिक ऊर्जा के प्रयोग के लिए वे इन देशों की आर्थिक सहायता करेंगे। अफ़सोस की बात यह है कि यह देश अन्य बाध्यकारी क़ानूनों को मानने के लिए तैयार नहीं हुए। हालिया दशकों के दौरान जो देश विश्व के विकासशील देशों की सूचि में जा पहुंचे हैं जैसे चीन, ब्राज़ील या किसी सीमा तक भारत उन्होंने अपने आर्थिक विकास को प्राथमिकता देते हुए पर्यावरण के लक्ष्यों को आर्थिक विकास के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित किया है।

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दूसरी ओर तेल पैदा करने वाले देशों ने भी इन प्रयासों का विरोध किया जिनमें सऊदी अरब सर्वोपरि है। तेल निर्यात करने वाले देशों को डर सताए रहता है कि कहीं इस काम से औद्योगिक देशों की ओर से तेल की ख़रीद की मांग कम न हो जाए। यूरोपीय संघ के देश और कुछ पश्चिमी यूरोपीय देश सन 2010 तक 5 से 10 प्रतिशत तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को घटाने में सफल रहे। हालांकि इसी बीच अमरीका, कनाडा , जापान, आस्ट्रेलिया और कुछ अन्य विकसित देशों ने ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को कम करने में कोई रूचि नहीं दिखाई। इसी बीच पूर्वी यूरोप और पूर्व सोवियत संघ के देशों ने किसी ऐसे समझौते को मानने से इन्कार कर दिया जिससे उनके आर्थिक विकास में बाधा आती हो।

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इसके अलावा विकासशील देश जिनको धरती के बढ़ते तापमान से दूसरे देशों की तुलना में अधिक नुक़सान हो रहा है वे अपनी आर्थिक स्थिति के कारण ग्रीन हाउस गैसों के उतसर्जन के लिए निर्धारित मानदंड को पूरा करने में अक्षम थे । इन्हीं बातों को देखते हुए ग्रीन हाउस गैसों के उतसर्जन को कम करने के उद्देश्य से एक वैश्विक मानदंड निर्धारित करने के लिए 20 नवंबर 2015 को फ़्रांस की राजधानी पेरिस में जलवायु परिवर्तन के बारे में एक सम्मेलन का आयोजन किया गया था। जानकारों के अनुसार यह विश्व के लिए शायद अन्तिम अवसर था कि वह किसी वैश्विक मानदंड को निर्धारित करने के लिए एकमत हो सके।