Sep १६, २०१७ १४:५८ Asia/Kolkata

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई कर्बला की घटना और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन के सकारात्मक प्रभावों क बारे में कहते हैः जिस दिन से इमाम हुसैन पर पड़ने वाले दुखों को बयान करने का विषय सामने आया उसी दिन से पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम व उनके परिजनों के श्रद्धालुओं के मन में आध्यात्मिकता के सोते फूटने लगे।

ये सोते अब भी फूट रहे हैं और इसके बाद भी ऐसा ही होता रहेगा। यह आशूरा की घटना को याद रखने का एक बहाना है।

जी हां! इमाम हुसैन पर पड़ने वाली मुसीबतों का उल्लेख एक उबलते हुए सोते जैसा है जिसमें असंख्य विभूतियां और लाभ हैं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम इस बारे में कहते हैं कि जो कोई भी इमाम हुसैन के बारे में एक शेर कहे और उनके दुख पर रोए और एक आदमी को रुलाए उन दोनों के लिए बदले में स्वर्ग लिख दिया जाता है। जिस व्यक्ति के सामने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की बात की जाए और उसकी आंखों से मक्खी के पर के बराबर भी आंसू निकल आए, उसका पारितोषिक ईश्वर के निकट सुरक्षित है और ईश्वर उसके लिए स्वर्ग से कम किसी चीज़ पर राज़ी नहीं होगा।

इस आधार पर इमाम हुसैन के दुखों का उल्लेख करने वाले वक्ताओं के काम का मूल्य और महत्व अतुल्य है लेकिन सुनने वालों को सिर्फ़ रुलाना पर्याप्त नहीं है बल्कि आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई की दृष्टि में इन वक्ताओं को कर्बला की महान घटना की शिक्षाओं और पाठों को भी बयान करना चाहिए। अलबत्ता आशूरा की घटना, आंखों में आंसू लाने और दिलों को तड़पाने के अलावा विचारों को भी गतिशील कर देती है और मन में इस प्रकार के सवाल उठने लगते हैं कि क्यों कूफ़े के लोगों ने पैग़म्बरे इस्लाम के नाती को अपने यहां बुलाने के बाद अपने मेहमान के ख़िलाफ़ तलवार उठा ली और उसे अत्यंत अमानवीय तरीक़े से क़त्ल कर दिया बल्कि उसके छः महीने के बच्चे को भी उसकी आंखों के सामने शहीद कर दिया और उसके घर की औरतों और बच्चियों को बंदी बना कर ज़ंजीर पहना दी? आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई कहते हैं कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शोक सभाओं के वक्ताओं को इस घटना का अच्छी तरह वर्णन करना चाहिए।

समय की सही पहचान और सत्य का साथ देना ऐसे काम थे जो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के काल में नहीं हुए। कूफ़े के लोगों ने उनके आज्ञापालन का वचन देने और उन्हें अपने शहर में आमंत्रित करने के बाद धन और पद प्राप्ति के मोह में अपने समय के सबसे अच्छे इंसान, अपने नेता और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के नाती इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ख़िलाफ़ ही तलावार खींच ली और उन्हें शहीद कर दिया। इन सटीक और शिक्षादायक बिंदुओं का उल्लेख इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शोक सभाओं का अनिवार्य भाग है क्योंकि धन व सत्ता मोह हर समय में रहा है और आज भी है। इमाम हुसैन ने लोगों के सम्मान और इस्लाम की रक्षा के लिए अपनी जान, माल और संतान को न्योछावर कर दिया लेकिन यज़ीद जैसे अत्याचारी और अधर्मी शासक के सामने सिर नहीं झुकाया। उन्होंने इज़्ज़त के साथ मौत को अपमानित जीवन पर प्राथमिकता दी। उनका यह क़दम उन शिक्षादायक घटनाओं में से हैं जो इस्लाम की उच्च शिक्षाओं को जीवित रखती हैं।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि आशूरा, शिक्षा प्राप्ति का एक मंच है। हमें इस मंच को ज़रूर देखना चाहिए ताकि हम पाठ हासिल कर सकें। पाठ सीखने का मतलब क्या है? मतलब यह है कि स्वयं की उस स्थिति से तुलना करें और देखें कि इस समय हम किस स्थिति में हैं? कौन सी चीज़ हमारे लिए ख़तरनाक है? और कौन सी बात हमारे लिए ज़रूरी है। इसे पाठ कहते हैं। यह भी शिक्षा प्राप्ति का एक तरीक़ा है।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आगे कहते हैं कि क्या हुआ कि इस्लामी समाज, जिसमें कभी मस्जिदों और रास्तों से क़ुरआने मजीद की तिलावत की आवाज़ें आया करती थीं, इतना बदल गया और इस्लाम से इतना दूर हो गया कि उस पर यज़ीद जैसा व्यक्ति शासन करने लगा? क्या हुआ कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसे व्यक्ति के पास इतना महान बलिदान देने के अलावा कोई मार्ग नहीं बचा? यह बलिदान इतिहास में अनुदाहरणीय है। क्या हुआ कि बात यहां तक पहुंच गई? यही वह पाठ है।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई का कहना है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शोकसभओं में आशूरा की घटना के पाठों का वर्णन किया जाना चाहिए। उनकी दृष्टि में पाठ सीखने का अर्थ यह है कि इंसान उस स्थिति की अपनी वर्तमान स्थिति से तुलना करे और यह देखे कि अब उसका दायित्व क्या है और उसे क्या करना चाहिए? इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता इन शोक सभाओं के वक्ताओं को आशूरा के पाठों के बारे में सिफ़ारिश करते हुए कहते हैं कि आशूरा के संबंध में तीन अहम विषय हैं। एक तो यह कि इमाम हुसैन के आंदोलन के कारण क्या हैं? दूसरे यह कि कर्बला से हमें क्या शिक्षाएं मिलती हैं और तीसरे यह कि आशूरा की घटना के पाठ क्या हैं?

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई कुछ प्रश्न करके लोगों के मन को आशूरा की घटना के पाठों और उसके मूल कारणों की ओर ले जाते हैं। वे कहते हैं कि आशूरा की घटना के अस्तित्व में आने के कारण बड़े अहम हैं। यह जो घटना हुई है वह इस्लाम के आरंभिक काल की है। इस्लामी राष्ट्र को सोचना चाहिए कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के निधन के सिर्फ़ पचास साल बाद इस्लामी देश की स्थिति क्यों ऐसी हो गई कि इन्हीं मुसलमानों में से, मंत्री, सरदार, ज्ञानी, न्यायाधीश और क़ुरआन के क़ारी कूफ़ा और कर्बला में एकत्र हो जाएं और पैग़म्बर के प्राणप्रिय नाती को इतने अमानवीय ढंग से शहीद कर दें? इंसान को सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ? मैं कहता हूं कि क्या हुआ कि बात यहां तक पहुंच गई? इस्लामी समुदाय जो इस्लामी आदेशों और क़ुरआन की आयतों के बारे में इतनी गहराई से सोचता था, क्यों इतनी स्पष्ट घटना में इतनी निश्चेतना और आलस्य का शिकार हो गया कि इस प्रकार की अमानवीय घटना घट गई?

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि कर्बला के पाठों में समाज के रुढ़िवाद का मामला है, उस पथभ्रष्टता का मामला है जो पैग़म्बर को भेजे जाने के लक्ष्य और उद्देश्य को मिट्टी में मिला देती है, उस अंजाम की बात है जिसका सभी पिछले धर्मों व पैग़म्बरों को सामना करना पड़ा और उनकी किताबों में फेर-बदल कर दिया गया, उनके धर्म को अनुपयोगी दिखाया गया और इस तरह पैग़म्बरी के दुश्मनों ने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया। यह एक बड़ा ख़तरा है जिसकी ओर क़ुरआने मजीद ने भी इशारा किया है और कहा है कि मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम) पैग़म्बर के अलावा कुछ नहीं हैं, उनसे पहले भी पैग़म्बर रहे हैं। अगर उनका निधन हो जाए या वे शहीद हो जाएं तो क्या तुम लोग उलटे पैर पलट जाओगे और अपनी अज्ञानता से जुड़ जाओगे? जो भी मार्ग से हटेगा वह ईश्वर को कोई नुक़सान नहीं पहुंचाएगा और ईश्वर कृतज्ञ लोगों को भला बदला प्रदान करेगा।

वरिष्ठ नेता कहते हैं कि आशूरा की घटना के पाठों के बारे में बात करना वास्तव में मान्यताओं के पतन के बारे में बात करना है, उस भंवर के बारे में बात करना है जो हर चीज़ को खींच लेता है, क्रांति के सच्चे सपूतों को सत्य के मुक़ाबले में ला खड़ा करता है और उन्हें इमाम हुसैन की हत्या के लिए उकसाता है। पाठ यहीं पर है, पाठ यह है कि हम क्या करें कि समाज वैसा न होने पाए। हमें यह समझना होगा कि वहां क्या हुआ कि समाज इस स्थिति तक पहुंच गया।

इस्लामी क्रांति के नेता विचार में जब किसी समाज के प्रतिष्ठित लोग, धन, पद, वासना और सत्ता जैसी चीज़ों के मोह में पड़ जाते हैं तो वे समाज को पथभ्रष्ट कर देते हैं। वे कहते हैं कि जब किसी समाज के विशिष्ट और प्रतिष्ठित लोग, ऐसे हो जाएं कि उनके लिए उनकी दुनिया सबसे अहम हो जाए, वे जान के डर से, माल व पद खो देने के भय से या अकेले पड़ जाने के डर से असत्य की सत्ता को मान लें और उसके मुक़ाबले में न खड़े हों, सत्य का साथ न दें और अपनी जान को ख़तरे में न डालें तो फिर जो स्थिति पैदा होती है उसका आरंभ इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को उस अमानवीय ढंग से शहीद करने से होता है और अंत बनी उमैया, बनी अब्बास और उसके बाद आज तक इस्लामी जगत में तानाशाही वंश के जारी रहने के रूप में सामने आता है।

 

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