विकास पथ- 4
आपको याद होगा कि पिछले कार्यक्रम में हमने इस्लामी शिक्षाओं में ज्ञान को ईश्वरीय पहचान और ईमान की सीढ़ी जैसा बताया गया है।
ज्ञान और उसके महत्व के बारे में पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों में बहुत कुछ मिलता है। यही ज्ञान या विज्ञान उस समय तक को बहुत अच्छा है जबतक इसका सदुपयोग किया जाए किंतु दुरूपयोग की स्थिति में यह न केवल मानव बल्कि पूरी मानवजाति के लिए हानिकारक भी सिद्ध हो सकता है। इस्लाम की दृष्टि में वे वह ज्ञान लाभदायक है जिससे आम लोग लाभान्वित हो सकें। इसी के माध्यम से ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है। यही कारण है कि इस्लाम ऐसे ज्ञान का पक्षधर है जिससे मानवजाति को लाभ हो और वह विकास के पथ पर आगे बढ़ सके।

ऐसे लोग बहुत ही कम होंगे जो मुसलमानों के गौरवपूर्ण इतिहास में उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियों से अवगत न हों। ज्ञान के क्षेत्र में मुसलमानों के योगदान के बारे में जिन्होंने अध्ययन किया है या कुछ लिखा उनका मानना है कि दूसरी हिजरी शताब्दी से पांचवी हिजरी शताब्दी के बीच मुसलमानों ने ज्ञान और विज्ञान की दृष्टि से उल्लेखनीय प्रगति की। उस काल के प्रचलित सभी ज्ञानों में मुसलमानों ने दक्षता प्राप्त की। एक समय मुसलमानों के बीच महान विद्वान थे जिनके ज्ञान का चर्चा हर ओर हुआ करता था। मुसलमानों का यही ज्ञान क्रूसेड या सलीबी युद्धों और अन्य प्रकार के संपर्कों के माध्यम से यूरोप तक पहुंचा जिसके कारण वहां पर (रेसांस) के उदय के साथ अंधकारमय मध्ययुगीन काल का अंत हुआ। जानेमाने ईरानी विद्वान उस्ताद शहीद मुतह्हरी अपनी एक किताब “इन्सान व सर्नविश्त” में लिखते हैं कि इस बात में कोम संदेह नहीं है कि ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से मुसलमानों ने बहुत ही गौरवपूर्ण दौर गुज़ारा है। वे लिखते हैं कि मुसलमानों ने धरती पर एक बहुत ही भव्य सभ्यता को अस्तित्व दिया जो कई शताब्दियों तक जारी थी। इस प्रकार से उन्होंने विश्व में ज्ञान की मशाल जलाई जिससे मानवता ने लाभ उठाया।
जब हम इस्लामी इतिहास का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि वैज्ञानिक प्रगति की दृष्टि से बनी उमय्या के काल तक मुसलमानों में कोई विशेष प्रगति दिखाई नहीं देती किंतु अब्बासियों के सत्ता में आने के बाद से मुसलमानों ने ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे उल्लेखनीय कार्य किये जिन्हें आज भी याद किया जाता है। मंसूर ने सत्ता संभालने के बाद पूरे विश्व के विद्वानों को अपने निकट किया। बर्मकी परिवार ने प्राचीन भारतीय, चीनी और अन्य सभ्यताओं को बग़दाद के दरबार तक पहुंचाया।
जुंदी शापूर के विश्वविख्यात अस्पताल के प्रमुख ने बग़दाद में शासक के उपचार के दौरान ईरानी संस्कृति को इस्लामी जगत से परिचित करवाया। मुसलमानों के शासक हारून रशीद ने यूनान की हस्तलिखित पुस्तकों को एकत्रित करने का आदेश दिया। उसके बेटे मामून ने विद्वानों को अपनी योग्यताओं को निखारने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने ज्ञान के विकास के उद्देश्य से बग़दाद में “बैतुल हिकमा” नामक संस्था का गठन किया। इसके साथ ही उन्होंने (आबज़रवेटरी) भी बनवाईं। इस काल में विश्व के कोने-कोने से तत्कालीन विद्वान, एक स्थान पर एकत्रित हुए जिनमें चीनी, भारतीय, ईसाई, यहूदी, ज़रतुश्ती और मुसलमान सभी शामिल थे। इन विदवानों ने उस समय की प्रचलित भाषाओं की किताबों का अनुवाद अरबी भाषा में किया। इस प्रकार इस्लामी ज्ञानकोष में तेज़ी से विकास हुआ।

उस काल में मुसलमानों की प्रगति का एक कारण यह था कि उस काल की प्रचलित सभी भाषाओं की महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद अरबी भाषा में हो चुका था। अरबी भाषा में अनुवाद का काम दूसरी और तीसरी हिजरी शताब्दी में अपने चरम पर था। अनेक भाषाओं से किताबों के अरबी अनुवाद का क्रम, चौथी शताब्दी या फिर पांचवी शताब्दी के आरंभिक पचास वर्षों तक चलता रहा। इस दौरान बुक़रात, अरस्तू, जालीनूस, बत्लीमूस और अन्य विद्वानों की डेढ सौ से अधिक रचनाओं का अरबी भाषा में अनुवाद किया जा चुका था। यही कारण है कि कई शताब्दियों तक अरबी भाषा, संसार में महत्वपूर्ण वैज्ञानिक भाषा के रूप में प्रचलित रही। हारून और मामून ख़लीफ़ाओं ने विभिन्न विषयों के लिए अनुवादकों को नियुक्त किया था जिनमें से कुछ किताबों को संकलित करने के काम किया करते थे। इस प्रकार से प्राचीन काल की ज्ञात अधिकांश पुस्तकों का अलग-अलग भाषाओं से अनुवाद अरबी में हो चुका था। इस प्रकार मुसलमानों के पास बहुत बड़ी वैज्ञानिक पूंजी पहुंच चुकी थी। इसी ज्ञान के माध्यम से मुसलमानों ने शताब्दियों तक ज्ञान का प्रचार और प्रसार किया। इस दौरान मुसलमानों में बड़े-बड़े विश्व विख्यात विद्वानों ने जन्म लिया।
इस बारे में थोड़ा सा मतभेद पाया जाता है कि मुसलमानों ने जो ज्ञान एकत्रित किया वह उनका अपना था या उसका स्रोत कुछ और था। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि मुसलमानों ने प्राचीन काल में प्रचलित विज्ञान और उस काल की पुस्तकों का अनुवाद करवाया और बाद में सांस्कृतिक आदान-प्रदान के माध्यम से उसे यूरोप तक पहुंचाया। कुछ अन्य विद्वानों का यह कहना है कि ज्ञान वास्वत में एक मशाल की भांति है जिसे मुसलमानों ने विभिन्न स्रोतों से हासिल किया और उसकी रौशनी को बाक़ी रखते हुए उसे दूसरों तक अर्थात यूरोप पहुंचाया। बहुत से विद्वान यह भी कहते हैं कि मुसलमानों ने ज्ञान को विभिन्न स्रोतों से लेकर मात्र उनका अनुवाद ही नहीं किया बल्कि बहुत से विषयों को परिपूर्णता तक पहुंचाया। हालांकि स्वयं यह बात भी अपने आप में महत्वपूर्ण है कि मुसलमानों ने अलग-अलग स्रोतों से ज्ञान को एक स्थान पर एकत्रित करके फिर उसे दूसरों तक पहुंचाया।
जिस काल में मुसलमनों ने ज्ञान को एकत्रित किया और फिर दूसरों तक स्थानांतरित किया उसको स्वर्णिम काल कहा जा सकता है। इसी काल में मुसलमान विद्वानों ने ज्ञान को वर्गीकृत किया। मूल रूप से ज्ञान को इस्लामी और ग़ैर इस्लामी ज्ञान के रूप में वर्गीकृति किया गया। जिन विषयों को इस्लामी ज्ञान की सूचि में रखा गया वे थे क़ेराअत, फ़िक़्ह, उसूल, कलाम, तसव्वुफ़, इरफ़ान, हदीस, पवित्र क़ुरआन की व्याख्या और इस जैसे ज्ञान। ग़ैर इस्लामी ज्ञान में गणित, खगोलशास्त्र, फ़िज़िक्स, कैमेस्ट्री, चिकित्सा विज्ञान, मैकेनिज़्म, इतिहास, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, भूगोल और साहित्य आदि। मुसलमानों के शासक हारून रशीद के बाद उसके बेटे मामून ने विद्वानों को वैज्ञानिक गतिविधियों के लिए प्रेरित किया। उन्होंने जुंदीशापूर में स्थित विज्ञान के केन्द्र के आधार पर बग़दाद में एक बहुत ही भव्य वैज्ञानिक केन्द्र की स्थापना की जिसका नाम था, “बैतुल हिक्मा”। इसके भीतर अनुवाद का केन्द्र, पुस्तकालय और वेघशाला स्थित थी। इस केन्द्र में बिना किसी भेदभाव के विभिन्न धर्मों के अनुयाई शांतिपूर्ण ढंग से ज्ञान संबन्धी गतिविधियों में व्यस्त रहा करते थे। शासक की ओर से इन्हें । इसके भीतर अनुवाद का केन्द्र, पुस्तकालय और वेघशाला स्थित थी। इस केन्द्र में बिना किसी भेदभाव के विभिन्न धर्मों के अनुयाई शांतिपूर्ण ढंग से ज्ञान संबन्धी गतिविधियों में व्यस्त रहा करते थे। विज्ञान संबन्धी कामों में तेज़ी लाने के उद्देश्य से ख़लीफ़ा की ओर से इन्हें लगातार प्रेरित किया जाता था।

इन बातों से ज्ञात होता है कि शताब्दियों पर आधारित एक कालखण्ड में मुसलमानों ने ज्ञान की दृष्टि से कितनी प्रगति की थी। यही कारण है कि बहुत से विदवानों और जानकारों का कहना है कि वर्तमान पश्चिमी वैज्ञानिक विकास, इस्लामी की वैज्ञानिक सेवाओं का ऋणी है। इस बात को सिद्ध करने के लिए हम आपको बताना चाहते हैं कि विश्व मे पहला अस्पताल सन 88 हिजरी क़मरी में वलीद बिन अब्दुल मलिक के आदेश पर बनाया गया था। उसके बाद अन्य इस्लामी क्षेत्रों में अस्पताल बनाए गए। सबसे बड़ा पहला अस्पताल मिस्र की राजधानी क़ाहिरा में सन 1284 ईसवी में बनाया गया। इस अस्पताल में लगभग 8000 मरीज़ों के लिए जगह थी। यहां पर विभिन्न प्रकार के विशेषज्ञ चिकित्स रोगियों को देखा करते थे। यह वह पहला अस्पताल था जिसमें बीमारों को दिखाने के लिए बनाए स्थान के अतिरिक्त पुस्तकालय, भाषण के लिए हाल, बहुत बड़ा भण्डार और दवाईघर था।
इसी प्रकार मुसलमानों में कैमिस्ट्री आरंभ से प्रचलित रही है। रसायनशास्त्र के क्षेत्र में महान मुसलमान विद्वान जाबिर बिन हय्यान की सेवाओं को कभी भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। उनको रसायनशास्त्र का जनक भी कहा जाता है। जाबिर बिन हय्यान ने बहुत सी उल्लेखनीय पुस्तकें लिखी हैं।
इस्लामी इतिहास के अध्ययन से यह बात पता चलती है कि इस्लामी सभ्यता ने न केवल यह कि यूनान की ज्ञान संबन्धी धरोहर को मिटने नहीं दिया बल्कि उसको एक नया रूप देकर निखार दिया। दूसरी से पांचवी शताब्दी के दौरान के काल को इस्लमी सभ्यता के स्वर्णिम काल में गिना जाता है। इसने यूरोप में मध्ययुगीन काल को प्रकाश देकर उसे प्रजवलि त किया। जिस काल में इस्लाम, ज्ञान की दृष्टि से विश्व में सबसे आगे था उस काल में यूरोप, बहुत अधिक पिछड़ा हुआ था। इस स्वर्णिम काल के बाद से इस्लामी सभ्यता के पतन का काल आरंभ हुआ। अगले कार्यक्रम में हम इस बारे मे विस्तार से चर्चा करेंगे सुनना न भूलिएगा।