Jan १६, २०१८ १३:४२ Asia/Kolkata

पिछले कार्यक्रम में इस बात का उल्लेख किया जा चुका है कि लोगों के लोक-परलोक में लाभ पहुंचाने वाला विषय, अपने भीतर नैतिक गुण पैदा करना और अनैतिकता से बचना है। 

सकारात्मक आलोचनाओं को सुनने और उनपर ध्यान देने से मनुष्य बहुत सी बराइयों से बच सकता है।  वे लोग जो वास्तविकताओं को छिपाते और आलोचनाओं से बचते हैं वे अपने भीतर सुधार करने से वंचित रह जाते हैं।  वे इस बात को भूल जाते हैं कि यदि सकारात्मक आलोचनाएं और टीका टिप्पणियां न हों तो न जाने कितने लोग बुरे कामों में लगकर अपने जीवन और समाज को बहुत क्षति पहुंचा सकते हैं।

 

इस बारे में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि यदि कोई अपने भाई को ग़लत काम करते हुए देखे और उसके भीतर उसे रोकने की क्षमता भी पाई जाती हो और इसके बावजूद वह न रोके बल्कि ख़ामोश रहे तो उसने अपराध किया है।  हज़रत अली अलैहिस्लाम का कहना है कि तुम्हारा हितैषी वह है जो तुम्हारी भलाई चाहे और तुमको बुरे कामों से रोके।

लोगों को बुरे कामों से रोकने और समझाने के दो मार्ग हैं।  एक सार्वजनिक रूप से टोकना और दूसरे अकेले में उसे समझाना।  महापुरूषों का कहना है कि लोगों को अकेले में समझाने-बुझाने के सकारात्मक परिणाम निकलते हैं।  ऐसे में सामने वाला अपनी ग़लतियां सुधारने की कोशिश करता है।  जिनको अकेले में समझाया-बुझाया जाता है वे आसानी से अपनी बुराई सुन लेते हैं और फिर उन्हें दूर करने के प्रयास आरंभ कर देते हैं।  अकेले में किसी को समझाने का एक लाभ यह है कि यदि वह नहीं सुधरता तो कम से कम लड़ने-झगड़ने से बचता है जबकि सार्वजनिक रूप से उपदेश देने में इसकी संभावना अधिक पाई जाती है।

 

हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि सार्वजनिक स्थल पर किसी को टोकना, टोकने वाले के व्यक्तित्व के लिए उचित नहीं होता।  इसी संबन्ध में इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम का कहना है कि जो भी अपने भाई को सबके सामने टोकता है या उपदेश देता है वह उसके लिए अपमान का कारण बनता है जबकि यदि कोई अपने भाई को अकेले में समझाता है तो इससे उसमें सुधार पैदा होता है।  पैग़म्बरे इस्लाम की शैली यह थी कि जब भी कोई उनसे किसी ऐसे व्यक्ति की शिकायत करता था जिसने कोई बुराई की हो तो वे कभी नाम लेकर उसे नहीं टोकते थे बल्कि कहते थे कि क्यों कुछ लोग यह बुरा काम करते हैं।

यदि कोई किसी को केवल ईश्वर की प्रसन्नता के कारण उपदेश देता है तो निश्चित रूप से उसकी बात में असर पैदा होगा।  यहां पर ध्यानयोग्य बात यह है कि उपदेश या नसीहत, सामने वाले की क्षमता के अनुरूप होनी चाहिए।  ऐसा नहीं हो सकता कि हम हर एक को एक ही ढंग से समझाएं-बुझाएं और नसीहत करें।  हमें सामने वाले की आयु, उसकी योग्यताओं, समझ और अन्य विशेषताओं को सामने रखते हुए नसीहत करनी चाहिए।  नसीहत जितनी भी विनम्र ढंग से की जाएगी वह उतनी ही अधिक प्रभावी होगी।  एक बार एक बूढा व्यक्ति मस्जिद में नमाज़ पढ़ने आया।  नमाज़ पढ़ने से पहले उसने वुज़ू किया। बूढ़े का वुज़ू ग़लत था।  इस बात को इमाम हुसैन और इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने देखा।  वे उस बूढ़े को यह समझाना चाहते थे कि तुम्हारा वुज़ू ग़लत है किंतु उसकी आयु को देखते हुए उन्होंने उससे कुछ नहीं कहा बल्कि वे उसके पास गए और बोले कि देखिए हम आपके सामने वुज़ू करते हैं।  आप देखकर बताइए कि हममे से कौन ग़लत वुज़ू कर रहा है।  जब उन्होंने उस बूढ़े व्यक्ति के सामने वुज़ू किया तो उसे समझ में आ गया कि उसका वुज़ू ग़लत था।  बूढ़े ने कहा कि आप दोनों का वुज़ू सही था, मैंने ग़लत वुज़ू किया है।

 

नसीहन करने वाले या उपदेशक को यह बात समझनी चाहिए कि वह अपने उपदेश में किसी प्रकार के शब्दों और किन बातों का प्रयोग करे ताकि सामने वाला पक्ष बात को अच्छी तरह से समझे सके।  दूसरी बात यह है कि जो पूछा जाए उसका ही जवाब दे पूछे गए सवाल से अलग हटकर जवाब नहीं देना चाहिए।  हमको यह भी देखना होगा कि जिसको हम नसीहत कर रहे हैं उसके भीतर यह बातें सुनने और समझने की क्षमता पाई जाती है या नहीं।  यदि वह इस योग्य न हो तो उससे वैसी बातें न की जाएं जिससे वह ऊबने लगे या पीछा छुड़ाने की कोशिश करने लगे।

एक बार एक व्यक्ति पैग़म्बरे इस्लाम (स) की सेवा में उपस्थित हुआ।  वह किसी अरब क़बीले का सरदार था किंतु शिक्षित नहीं था।  वह जहां रहता था वहां पर क़बीलों के बीच मतभेद पाए जाते थे और वे छोटी-छोटी बातों पर लड़ते थे।  यदि उनके क़बीले के किसी भी सदस्य को कोई मार देता तो सब मिलकर मारने वाले के क़बीले पर हमला करते और अधिक से अधिक लोगों की हत्या की कोशिश करते थे।  यह क़बीले का सरदार, पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में उपस्थत हुआ और कहने लगा कि आप मुझको कुछ नसीहत कीजिए।  पैग़म्बर ने कहा कि तुम ग़ुस्सा करना छोड़ दो।  उन्होंने इस सरदार से केवल इतना ही कहा।  इस व्यक्ति का कहना है कि मैंने पैग़म्बरे इस्लाम से तीन बार कहा कि आप मुझको कोई नसीहत कीजिए और हर बार उन्होंने मुझसे यही कहा कि तुम ग़ुस्सा करना छोड़ दो।  उसने कहा कि मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि जब जब मैंने उनसे नसीहत के लिए कहा तो उन्होंने क्यों केवल एक ही वाक्य दोहराया कि  तुम ग़ुस्सा करना छोड़ दो।  इस सरदार ने कहा कि पैग़म्बरे इस्लाम की बात का महत्व मुझे उस समय समझ में आया जब वापस मैं अपने क़बीले गया।  उसने कहा कि जब मैं अपने क़बीले पहुंचा तो पता चला कि किसी क़बीले वाले ने उसके क़बीले के एक व्यक्ति की हत्या कर दी है और मेरे क़बीले के सारे लोग हत्या का बदला लेने के लिए दूसरे क़बीले पर हमला करने जा रहे हैं।  उसका कहना था कि यह सुनते ही मुझको बहुत ग़ुस्सा आया किंतु एकदम से मेरे दिमाग़ में यह बात आई कि पैग़म्बरे ने मुझको नसीहत करते हुए कहा था कि तुम ग़ुस्सा करना छोड़ दो।  बस मैंने ग़ुस्सा थूक दिया और क़बीले वालों को बुलाकर पूरा मामला सुना।  उसे सुनने के बाद मुझको यह बात समझ में आई कि ग़लती हमारे सदस्य की थी।  इस प्रकार क्रोध को कंट्रोल करने से एक बहुत बड़ा युद्ध रुक गया अन्यथा बहुत से निर्दोष लोग मारे जाते।

 

लोगों के बीच पैग़म्बरे इस्लाम (स) की लोकप्रियता का एक कारण उनका विनम्र व्यवहार था।  वे लोगों से बड़े ही विनम्र ढंग से मिलते थे।  उनके इस व्यवहार के ही कारण सदैव उनके इर्दगिर्द लोग एकत्रित रहते थे।  लोगों के दिलों में उनका इतना अधिक स्थान था कि वे उनपर अपनी जानें न्योछावर करने के लिए तैयार रहा करते थे।  इस बारे में पवित्र क़ुरआ में ईश्वर कहता है कि आपके सद व्यवहार के ही कारण लोग आपके आसपास इकट्ठा रहते हैं।  यदि आपका व्यवहार और हृद्य कठोर होते तो लोग पास इकट्ठा न होते।  हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि विनम्रता और सदगुणों के कारण लोग एक-दूसरे से निकट होते हैं और लोगों को आपस में मिलाने में विनम्रता की बहुत बड़ी भूमिका है।

इस्लाम में क़ानून के दायरे में रहते हुए टीका-टिप्पणी या आलोचना करने को वैध बताया गया है।  कुछ स्थानों पर तो इसे आवश्यक तक बताया गया है।  इसके लिए कुछ नियमों का निर्धारण किया गया है ताकि किसी का अपमान या अनादर न होने पाए।  मनुष्य सीख तो लेना चाहता है किंतु उसकी इच्छा यह होती है कि उसे सही ढंग से समझाया जाए।  कोई भी व्यक्ति अच्छी बात या उपदेश को बुरे ढंग में सुनना पसंद नहीं करता।  इसीलिए उपदेश देने वाले को बहुत ही विनम्रता के साथ उपदेश देना चाहिए।  उसे सामने वाले से वहीं बात करनी चाहिए जिसे वह स्वयं भी मानता हो और उसपर अमल करता हो।  ऐसा व्यक्ति कभी भी दूसरों के लिए आदर्श या अच्छा उपदेशक नहीं हो सकता जो ऐसी बात कहता हो जिसपर वह स्वयं अमल नहीं करता।

इस्लाम में नसीहत करने वाले और नसीहत लेने या सुनने वाले के अलग-अलग अधिकार बताए गए हैं।  इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम इस बारे में कहते हैं कि उपदेश देने वाले के लिए यह आवश्यक है कि वह उपदेश सुनने वाले की क्षमता के अनुसार ही बात कहे अर्थात उसकी जितनी बुद्धि और समझ है उसके अनुसार उसे बताए।  इसका कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की समझने की भी एक क्षमता होती है।