Feb २४, २०१८ १४:१६ Asia/Kolkata

उस रात हज़रत आमेना को कुछ अजीब सा महसूस हो रहा था।

उनके पति हज़रत अब्दुल्लाह की मौत को कुछ ही महीने गुज़रे थे कि वह अपने पति के निधन का शोक मना रही थी और वह उनके बच्चे की पैदाइश का समय था। उनका दिल चाह रहा था कि काश ! इस समय बच्चे के पिता भी होते! ईश्वर की तरफ से किये गये खास इंतेज़ाम के तहत हज़रत मुहम्मद का जन्म हुआ। उनके पिता का नाम अब्दुल्लाह है जिनका निधन हो चुका था और उनके दादा, अब्दुलमुत्तलिब थे और उनकी माता का नाम हज़रत आमेना था जो वहब की बेटी थीं। 

पैगम्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद का जन्म  मक्का नगर में 17 रबीउल अव्वल को  " आमुलफील " में  हुआ। अरब आमुल फील अर्थात " हाथियों का साल " उस साल को कहते हैं जिस साल यमन के राजा " अबरहा" ने हाथियों के साथ काबे पर हमला किया था।  

कहते हैं कि अरबों ने उससे पहले हाथी देखा ही नहीं था। यह घटना सन 570 ईसवी की है। 

 

अरबों में यह पंरपरा थी कि वह अपने बच्चों को दूध पिलाने वाली " दाया " के हवाले कर देते थे। उस समय, मक्का के पूरे क्षेत्र में " बनी सअद" क़बीले की दूध पिलाने वाली दायाएं, बहुत मशहूर थीं। इस क़बीले की महिलाओं को रक़म की ज़रूरत होती थी इस लिए वह एक निर्धारित समय पर मक्का नगर जाती थीं और किसी न किसी बच्चे को दूध पिलाने की ज़िम्मेदारी लेकर उस बच्चे को अपने साथ ले कर चली जाती थीं। 

हज़रत मुहम्मद को भी इसी प्रकार की एक दाया के हवाले किये जाने का फैसला किया गया किंतु उन्होंने किसी दाया के दूध को मुंह ही नहीं लगाया अन्ततः बनी सअद क़बीले की " हलीमा सअदिया" हज़रत मुहम्मद (स) के दरवाज़े पर पहुंची। उनके दादा अब्दुलमुत्तलिब ने पूछाः तुम्हारा क़बीला क्या है? उन्होंने जवाब दिया " बनी सअद" 

उन्होंने फिर पुछा कि तुम्हारा नाम क्या है?  उन्होंने जवाब दिया " हलीमा" हज़रत अब्दुल मुत्तलिब उनके क़बीले और खुद उनका नाम सुन कर खुश हो गये और इस तरह से उन्हें हज़रत मुहम्मद की दाई बनने का मौक़ा मिला। नवजात शिशु भी उनकी गोद में बिल्कुल शांत रहा यह देख कर मां आमेना और दादा अब्दुल्लमुत्तलिब को सूकून मिला, " हलीमा" ने ईश्वर का शुक्र किया और बच्चे को लेकर अपने घर चली गयीं, उनके घर में पैगम्बरे इस्लाम के क़दम पड़ते ही बरकतों की झड़ी लग गयी, उनका घर ही नहीं पूरे क़बीले में खुशहाली आ गयी। प्रसिद्ध इस्लामी इतिहास कार इब्ने शहरे आशूब ने अपनी किताब में लिखा है कि हलीमा कहती हैं कि जब से मुहम्मद मेरे घर में आए हमारे परिवार में खुशहाली बढ़ती गयी और हमारे जानवरों की संख्या ज़्यादा होने लगी। 

 

अब्दुलमुत्लिब का यह बच्चा पांच वर्षों तक " बनी सअद" क़बीले में रहा और फिर उन्हें मक्का और अपने घर लाया गया।  छे साल की उम्र में उनकी मां " आमेना " उन्हें अपने साथ लेकर " यसरब" गयीं जो बाद में " मदीना" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस यात्रा का मक़सद रिश्तेदारों से मिलना था। " यसरब" से वापसी के वक्त रास्ते में ही हज़रत आमेना बीमार हो गयीं और उनका देहान्त हो गया। पिता जन्म से पहले ही चले गये थे और अब छे साल की उम्र में मां की गोद भी छिन गयी। मां के जाने के बाद दादा अब्दुलमुत्तलिब ने अपने यतीम पोते के लालन- पालन की ज़िम्मेदारी संभाली लेकिन यह साया भी हज़रत मुहम्मद के सिर पर ज़्यादा दिनों तक न रह सका और जब वह आठ साल के हुए तो दादा भी चल गये लेकिन जाते - जाते उन्होंने " अपने पोते मुहम्मद की ज़िम्मेदारी अपने बेटे " अबूतालिब " को सौंप दी। मुहम्मद अपने चाचा " अबूतालिब" के घर चले गये और वहीं पले- बढ़े, फले-फूले। 

 

हज़रत मुहम्मद (स) युवास्था में ही ऐसे गुणों के स्वामी थे जो उन्हें, तमाम युवाओं से अलग कर देते थे वह इस उम्र की सभी बुराइयों से कोसों दूर थे और समाज के प्रति कटिबद्धता उस दौर में भी उनमें कूट- कूट कर भरी थी। इस सिलसिले में इतिहास कारों ने एक ऐसी घटना का ज़िक्र किया है जिस का उल्लेख खुद हज़रत मुहम्मद (स) भी अपने जीवन में कई बार कर चुके हैं।  घटना इस प्रकार बयान की गयी है कि यमन का एक व्यापारी अपना सामान लेकर मक्का गया और वहां बाज़ार में उसने मक्का नगर के एक रहने वाले को सामान बेचा। मक्का नगर में " कुरैश" नामक कब़ीला रहता था  जिसका बड़ा सम्मान था। हज़रत मुहम्मद (स) भी उसी क़बीले से थे। मक्का नगर में लोग उस पर अत्याचर करते थे जिसका मक्का नगर में कोई न हो। इस यमनी व्यापारी का सामान तो मक्का वासी ने लिया लेकिन उसकी क़ीमत चुकाने से इन्कार कर दिया। इस नगर में उस यमनी व्यापारी का कोई नहीं था। वह काबे के पास गया और देखा कि वहां  " कुरैश "  क़बीले के कुछ लोग बैठे हैं, उसने उनसे गुहार लगायी और मदद की अपील  की। इस घटना के बाद " कुरैश" के कुछ बड़े लोग एक घर में एकत्रित हुए और यह तय किया गया कि पीड़ित और शोषित लोगों की मदद की जाएगी।  यह युवाओं की पहल थे और सब ने आपस में प्रतिज्ञा ली कि वह सब पीड़ितों की मदद करेंगे। इस प्रतिज्ञा को  इस्लामी इतिहास में " हलफुल फुज़ूल" कहा जाता है। प्रतिज्ञा लेने वाले युवाओं में हज़रत मुहम्मद (स) भी शामिल थे । यह उस काल में ली जाने वाली सब से अधिक सराहनीय प्रतिज्ञा थी। 

पैगम्बरे इस्लाम, अपनी पैगम्बरी की घोषणा से बहुत पहले ही मक्का में  " सच्चे और अमानतदार " मशहूर हो गये थे। इस संदर्भ में पैगम्बरे इस्लाम के जीवन की एक घटना इतिहास में बहुत प्रसिद्ध है। मक्का के बड़े लोगों ने काबे के विस्तार का का फैसला किया इसके लिए इमारत को नये सिरे से बनाने का फैसला किया गया। इसके लिए काबे की दीवार पर लगा पवित्र पत्थर " हजरे असवद" निकाला गया लेकिन जब उसे फिर से लगाने की बारी आयी तो मक्का के सरदारों और बड़े परिवारों में विवाद पैदा हो गया। क्योंकि हरेक यह चाहता था कि काबे में इस पवित्र पत्थर को लगाने का गौरव उसे प्राप्त हो। इस के लिए कब़ीलों के सरदारों में तलवारें निकल आयीं । इस अवसर पर एक अत्यन्त बूढा और अनुभवी अरब मौजूद था, उसका नाम " अबू उमैया बिन मुगैरा मख़ज़ूमी" था। उसने कहा कि आपस में लड़ना झगड़ना छोड़ कर मेरी बात सुनें! उसने कहा कि हम सब यह तय करते हैं कि काबे में जो भी, सफा पहाड़ की ओर बने दरवाज़े से सब से पहले घुसेगा वही हमारे मध्य फैसला करेगा। सब ने यह सुझाव मान लिया और उस दरवाज़े पर नज़रे जमा कर बैठक गये। थोड़ी ही देर में उस दरवाज़े से हज़रत मुहम्मद अंदर आए उन्हें देखते ही सब खुश हो गये और कहा हम सब इनके फैसले से सहमत हैं। लोगों ने हज़रत मुहम्मद (स) को पूरी बात बतायी और उन्होंने सब की बात सुन कर  कमली ज़मीन पर बिछा दी और कहा कि पत्थर को इस के बीच में रख दिया जाए और मक्का के चारों मुख्य सरदार और परिवार के मुखिया चादर का एक एक कोना पकड़ कर उठाएं और जब सब ने एेसा किया तो हज़रत मुहम्मद ने पत्थर उसकी जगह पर लगा दिया। इस तरह से मक्का नगर में एक बहुत बड़ा झगड़ा टल गया। 

काबे की दीवार पर डेढ़ मीटर की ऊंचाई पर " हजरुल असवद" लगा है। 

 

ईश्वर की ओर से विश्व भर में शांति का संदेश पहुंचाने वाले हज़रत मुहम्मद ऐसे थे। यह उस समय की बात है जब उन्होंने अपनी पैगम्बरी का ऐलान भी नहीं किया था। 

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