Feb २४, २०१८ १४:४७ Asia/Kolkata

पैगम्बरे इस्लाम की पैगम्बरी के औपचारिक आरंभ से लेकर मक्का नगर से उनके पलायन करने की तेरह वर्ष की अवधि के दौरान हज़रत मुहम्मद (स) के जीवन में बहुत सी घटनाएं घटीं।

इतिहास में ऐसे अनेक ईश्वरीय दूतों का वर्णन है जिन्होंने मानव समाज को कल्याण तक पहुंचाने के लिए जान की बाज़ी लगा दी। ईश्वरीय दूत हज़रत नूह अलैहिस्सलाम की जीवनी इसकी एक मिसाल है। कई सौ साल तक सच्चाई की ओर बुलाने के बाद जब कुछ लोगों के अलावा बाक़ी लोगों ने उनकी बातों का इन्कार किया तो ईश्वर के प्रकोप के पात्र बने और हज़रत नूह के कुछ साथियों और चुनिंदा चीजों और लोगों के अलावा तूफान में सब कुछ डूब गया। हज़रत नूह का जहाज़, तूफान थमने के बाद जब "जूदी" नामक पहाड़ पर ठहरा तो उनके साथियों ने एक नयी दुनिया बसाने का संकल्प किया। उनके बाद हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने "बाबिल" में लोगों को एक ईश्वर की ओर बुलाया, फिर हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने अपनी चमत्कारी लाठी से, अपने समूदाय को "फ़िरऔन" के अत्याचार से बचाया और उनके बाद हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने पीड़ा से कराहते हुए दासों के मध्य ईश्वरीय वाणी सुनायी और उन्हें दासता से छुटकारा दिलाया और अंतिम ईश्वरीय दूत की सूचना दी और अन्ततः एेसे समय में जब हर ओर बुराइयों का राज था और लोग भांति-भांति की चीज़ों की पूजा करते थे, अंतिम ईश्वरीय दूत, हज़रत मुहम्मद (स) का मक्का नगर में जन्म हुआ और उन्होंने मानवता को प्रेम, संधि व शांति का संदेश दिया। उनके बारे में कुरआने मजीद में कहा गया है कि "जो दूत तुम्हारे लिए भेजा गया है वह ख़ुद तुममें से है जिसके लिए तुम लोगों का दुख, कठिन है और वह तुम सबके मार्गदर्शन पर आग्रह करता है और ईमान वालों के लिए कृपालु व दयालु है।

 

पैगम्बरी की घोषणा से लेकर मदीना पलायन के मध्य तेरह साल की अवधि में हज़रत मुहम्मद (स) ने लोगों को एक ईश्वर की ओर बुलाने की पूरी कोशिश की। इस राह में उन्होंने अपने पारिवारिक संसाधनों का भी प्रयोग किया और इस्लाम के प्रचार की हर तरह से कोशिश की। इस मिशन में उनके चचेरे भाई हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उनका पूरा साथ दिया और उनकी पत्नी हज़रत ख़दीजा ने अपनी धन दौलत और हर चीज़ से उनका साथ दिया। इसी लिए कहा जाता है कि इस्लामी समुदाय की नींव इन तीन लोगों ने रखी, हज़रत मुहम्मद (स), उनकी पत्नी हज़रत ख़दीजा और उनके चचेरे भाई हज़रत अली अलैहिस्सलाम। मक्का में गठित यह समुदाय आगे चलकर पूरी दुनिया में फैल गया और आज भी फैल रहा है।

 

हज़रत मुहम्मद (स) ने इस्लाम के प्रचार के लिए अलग अलग चरणों में अलग अलग नीति अपनायी। मक्का नगर में पैगम्बरी की घोषणा के बाद और मदीना पलायन से पहले के तेरह वर्षों को हज़रत मुहम्मद (स) की जीवनी लिखने वालों ने दो हिस्सों में बांटा है। पहला चरण तीन वर्षों का था और दूसरा दस वर्षों का। पहले तीन वर्षों की सबसे बड़ी ख़ूबी यह थी कि हज़रत मुहम्मद (स) ने अपने मिशन की पूरी तरह से खुल कर घोषणा नहीं की और बहुत खास लोगों को ही इस बारे में बताया। यह "खास" लोग वास्तव में वह लोग होते थे जो अनेकेश्वरवाद से तंग आए होते थे और किसी एेसी विचारधारा की खोज में होते थे जिससे उनके मन को शांति मिल सके। यह लोग हज़रत मुहम्मद (स) के मिशन और धर्म के बारे में सुन कर ही उस पर विश्वास कर लेते और इस्लाम स्वीकार कर लेते।

 

पैगम्बरी के ऐलान के तीन साल बाद हज़रत मुहम्मद (स) को आदेश मिला कि अब वे अपने मिशन की घोषणा कर दें और अनेकेश्वरवादियों के खिलाफ़ खुल कर संघर्ष करें। उस वक्त तक लगभग चालीस लोग, इस्लाम स्वीकार कर चुके थे और उनमें से कई लोग अपने अपने क़बीलों को इस्लाम की ओर बुलाने का प्रयास कर रहे थे। मिशन की खुले आम घोषणा का आदेश मिलने के बाद हज़रत मुहम्मद (स) ने सबसे पहले अपने रिश्तेदारों और परिजनों को बुलाया क्योंकि उन्हें आदेश मिला था "अपने क़रीबी रिश्तेदारों को चेतावनी दीजिए ..." इस आयत के आने के बाद हज़रत मुहम्मद (स) ने अपने 45 रिश्तेदारों और परिजनों को खाने की दावत दी और खाने के बाद अपने रिश्तेदारों को अपने मिशन के बारे में बताया लेकिन हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अलावा किसी ने भी उनकी बातों की सच्चाई पर यक़ीन नहीं किया।

 

हज़रत मुहम्मद (स) ने इस्लाम का प्रचार एसे युग में शुरू किया था जो अज्ञानता से भरा था इस लिए ज़ाहिर सी बात है कि अंधविश्वास में डूबे लोग उनका विरोध करते और हज़रत मुहम्मद (स) के साथ एसा ही हुआ। लोगों ने विरोध किया और उनका मज़ाक़ उड़ाया लेकिन ईश्वर ने हज़रत मुहम्मद (स) को आदेश दिया कि वह इन सब की चिंता न करें और अपना मिशन जारी रखें। कुरआने मजीद के सूरए हिज्र की आयत नंबर 94 और 95 में हम पढ़ते हैं। (हे पैग़म्बर! जो आपका मिशन है उसे खुल कर बयान कीजिए, अनेकेश्वरवादियों से मुंह मोड़ लीजिए और हम मज़ाक़ उड़ाने वालों से आपको सुरक्षित रखेंगे।" इस तरह से  हज़रत मुहम्मद (स) ने अपने महान अभियान का औपचारिक रूप से आरंभ किया और मक्का नगर के मशहूर पहाड़ "सफ़ा" के पास खड़े हुए और लोगों को एक ईश्वर की ओर बुलाया। हज़रत मुहम्मद (स) ने कहा "ईश्वर एक है कहोगे तो कल्याण पा जाओगे।"

 

 

"सफ़ा" पहाड़ के पास खड़े होकर सबसे पहले तो हज़रत मुहम्मद (स) ने अपने अतीत के बारे में बात की और लोगों ने उनकी सच्चाई की पुष्टि की और फिर वे इस तरह से बोलेः "आप लोगों के बीच मैं, एक पहरेदार की तरह हूं जो दूर से ही दुश्मन को देख लेता है और अपने लोगों को बचाने के लिए उनकी ओर दौड़ पड़ता है। हे कुरैश के लोगो! खुद को नर्क की आग से बचा लो।" जब हज़रत मुहम्मद (स) ने यह वाक्य कहा तो उनका चाचा, अबू लहब, उठ कर शोर मचाने लगा और उसने सब को वहां से हटा दिया।

 

हज़रत मुहम्मद (स) का यह महान मिशन हर दिन नये चरण में दाखिल हो रहा था और समय के साथ साथ ज़्यादा संवेदनशील हो रहा था। अब कुरैश क़बीले का विरोध पूरी तरह से सामने आ चुका था और उसके लोग हज़रत मुहम्मद (स) के इस मिशन को नाकाम बनाने के लिए नित नये हथकंडे इस्तेमाल करते थे लेकिन उन्हें नाकामी मिली और इस्लाम मक्का नगर की गलियों से शुरू होकर पूरी दुनिया में फैल गया।

 

हज़रत मुहम्मद (स) की पैगम्बरी की घोषणा को सात साल बीत गये। अनेकेश्वरवादियों ने उनका मज़ाक़ उड़ा कर, उन्हें यतानाएं देकर, उन्हें परेशान करके, उन पर जादूगर होने का आरोप लगा कर और कूड़ा तक फेंक कर उन्हें अपने मिशन से भटकाने का प्रयास किया लेकिन हज़रत मुहम्मद (स) और उनके मुट्ठी भर साथियों ने हर स्थिति का संयम व सहनशीलता से सामना किया और ईश्वर के लिए और उसकी राह में हर तकलीफ बर्दाश्त की। दुश्मनों की ओर से दबाव, बहिष्कार और अत्याचार इतना बढ़ा कि हज़रत मुहम्मद (स) के कुछ अनुयायी छुप कर  तत्कालीन "हब्शा" पलायन कर गये जिसे अब "इथोपिया" कहा जाता है। "हब्शा" में हालांकि ईसाई राजा था लेकिन उसने इन लोगों की आव भगत की और उन्हें हर प्रकार की सुविधा दी।

 

इस्लाम की ख्याति मक्का की सीमाओं से निकल कर पूरे अरब जगत में फैल चुकी थी और डराने धमकाने की दुश्मनों की नीति विफल हो चुकी थी, इस्लाम किसी उफनती नदी की तरह आगे बढ़ रहा था और अरब के रेगिस्तान में प्यासों को तृप्त कर रहा था। इस्लाम की इस ताक़त से अनेकेश्वरवादी डर गये और उन्होंने वह हथकंडा अपनाया जिसे आज भी दुनिया की बड़ी ताक़तें इस्तेमाल करती हैं। मक्का नगर के अनेकेश्वरवादियों ने मुसलमानों और पैगम्बरे इसलाम (स) पर दबाव डालने के लिए उनके बहिष्कार का फैसला किया। कुरैश के सभी परिवार एकत्रित हुए और सबने मुसलमानों के बायकाॅट का फैसला किया और एक समझौता तैयार किया जिस पर दस्तख़त करके उसे काबे की दीवार पर लटका दिया । इस समझौते के आधार पर मक्का नगर में किसी को भी मुसलमानों के साथ किसी भी प्रकार का संबंध रखने की इजाज़त नहीं थी और न ही उनके साथ कोई किसी प्रकार का लेन-देन कर सकता था। इस तरह से धीरे धीरे पैगम्बरे इसलाम (स) और उनके साथियों पर दबाव बढ़ता गया और मक्का नगर में ज़िदंगी गुज़ारना उनके लिए कठिन हो गया। इन लोगों ने मक्का नगर से बाहर एक पहाड़ के पास बसने का फैसला किया जिसे "शेबे अबूतालिब" कहा जाने लगा।

 

शेबू अबूतालिब का वर्तमान रूप, अब इसे अबूतालिब क़ब्रिस्तान कहा जाता है।

मुसलमानों और पैगम्बरे इसलाम (स) ने इस जगह पर अपने जीवन के अत्यधिक कठिन दिन गुज़ारे और भूख व प्यास से वह बेहद परेशान रहे। इस दौरान हर एक को खाने के लिए सिर्फ एक खजूर ही मिलती थी और कभी कभी तो बच्चों के भूख से रोने की आवाज़ दूर दूर तक सुनी जाती। इस भूख व प्यास में पैगम्बरे इसलाम (स) का साथ उनकी पत्नी हज़रत ख़दीजा भी दे रही थीं जो कभी "अरब की महारानी" के नाम से प्रसिद्ध थीं और जिनके अपार धन का चर्चा पूरे अरब जगत में था। यह कठिन समय पैग़म्बरे इसलाम (स) के लिए और भी कठिन हो गया क्योंकि इसी दौरान उनकी वफ़ादार पत्नी हज़रत ख़दीजा, हमेशा के लिए उन्हें छोड़ कर चली गयीं और ख़दीजा के निधन के कुछ ही दिनों बाद उनके चचा हजरत अबूतालिब का भी स्वर्गवास हो गया। यह दुख इतने बड़े थे कि पैगम्बरे इसलाम (स) ने इस साल का नाम "आमुल हुज़्न" यानी "दुखों का साल" रख दिया।

 

तीन साल गुज़र गए और आखिरकार बहिष्कर भी ख़त्म हो गया, मुसलमान अपने अपने घर लौट गये लेकिन कुरैश के अनेकेश्वरवादियों की ओर से मुसलमानों को परेशान करने का सिलसिला जारी रहा। यहां तक कि हर रास्ता अपनाने और हर बार हारने के बाद उन्होंने पैगम्बरे इसलाम (स) की हत्या की साज़िश रची। इस साज़िश की ख़बर पैगम्बरे इसलाम (स) को मिल गयी और उन्होंने अपने साथियों के साथ "यसरिब" या वर्तमान मदीना नगर पलायन करने का निर्णय लिया और रातों रात "यसरिब" चले गये। पैगम्बरे इसलाम (स) का "यसरब" नगर पलायन, इस्लामी इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय और एक अति महत्वपूर्ण युग का आरंभ है। "यसरिब" को बाद में "मदीनतुन्नबी" या पैग़म्बर का नगर कहा गया जो बाद में केवल मदीना रह गया और आज भी सऊदी अरब में स्थित है। मक्का नगर से यसरिब नगर पैगम्बरे इसलाम (स) का पलायन इतना ही महत्वपूर्ण था कि उसे इस्लामी कैलेन्डर का आरंभ बिन्दु बनाया गया।

 

 

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