Feb २५, २०१८ १२:३१ Asia/Kolkata

हज़रत मुहम्मद (स) ने " यसरब" नगर में इस्लामी शासन की स्थापना करके मानव इतिहास की एक अभूतपूर्व व उदाहरणीय व्यवस्था बनायी। इस शासन में हज़रत मुहम्मद (स) शक्ति व ख्याति के प्रयास में नहीं थे बल्कि वह एक न्यायपूर्ण सरकार की स्थापना के बारे में विचार करते थे ताकि सृष्टि के रचयिता और एक ईश्वर के अलावा किसी और की उपासना न हो।

उन की सरकार में हर जाति व समुदाय के अधिकारों की रक्षा की जाती थी और सब के मध्य प्रेम व भाई चारे का प्रसार किया जाता। 

 

मदीना नगर में हज़रत मुहम्मद (स) द्वारा सरकार की स्थापना के बाद अब लोगों को जीवन शैली के लिए इस्लामी शिक्षाओं का इंतेज़ार होता था। सब लोगों को पता था कि मदीना में नव गठित यह समाज तत्कालीन अरब जगत में प्रचालित आस्थाओं और विचारधाराओं और रीति रिवाजों को नहीं मानते और उनकी जीवन शैली सब से अलग है। इस लिए भी मदीना नगर में लोगों को इस्लामी शिक्षाओं का इंतेज़ार था और यह काम सिर्फ हज़रत मुहम्मद (स) ही कर सकते थे। 

 

हज़रत मुहम्मद (स) ने मदीना नगर में आरंभ से ही  इस्लामी समाज की सुरक्षा के बारे में सोचा था और उसे लागू किया था । हज़रत मुहम्मद (स) ने मदीना नगर में नव गठित मुस्लिम समुदाय के लिए जो उपाय किये थे उनमें से एक उपाय यह था कि मुसलमानों ने एक दूसरे के साथ " भाईचारे की प्रतिज्ञा " ली अर्थात दो दो मुसलमानों ने एक दूसरे को अपना भाई बनाया। लगभग सौ मुसलमानों ने यह काम किया। हज़रत मुहम्मद (स) ने हज़रत अली अलैहिस्लाम के साथ " भाई की प्रतिज्ञा" की । इस तरह से पलायन करके मदीना पहुंचने वाले और मदीना नगर में रहने वाले अर्थात" मुहाजिर" और " अन्सार" एक दूसरे के भाई बन गये और अपने पास मौजूद हर चीज़ एक आधी आधी बांट ली। 

मोमिन एक दूसरे के भाई हैं। 

 

मदीना नगर की एक अहम राजनीतिक समस्या, " औस " और " ख़ज़रज" क़बीलों के बीच पुरानी दुश्मनी और लड़ाई थी और इसके साथ ही यह दोनों क़बीलों का, मदीना नगर में रहने वाले यहूदियों से भी गहरे मतभेद थे। 

हज़रत मुहम्मद (स) ने मदीना प्रवेश के पहले साल में ही इस्लामी शिक्षाओं के आधार पर एक समझौता तैयार किया जिसमें मुसलमानों के एक दूसरे के प्रति और अन्य धर्मों के अनुयाइयों के प्रति कर्तव्यों का वर्णन किया गया था। 37 अनुच्छेदों वाले इस दस्तावेज़ में मदीना के सभी मुसलमानों, यहूदियों और अनेश्वरवादियों से हज़रत मुहम्मद (स) का नेतृत्व स्वीकार करने की मांग की गयी थी। इस दस्तावेज़ पर मदीना में रहने वाले सभी समुदाय और धड़ों ने हस्ताक्षर किये । यह समझौता, इस्लामी शासन के केन्द्र यानि मदीना नगर में शांति व स्थिरता में अहम रहा है। 

 

मदीना नगर में इस्लाम के बढ़ते प्रभाव के बाद ऊपर से इस्लाम स्वीकार करने वाले और फिर इस्लाम को नुकसान पहंचाने के लिए उन में एकजुटता भी, मदीना नगर में इस्लाम के लिए एक बड़ी चुनौती थी। इस्लामी इतिहास की " बद्र" " ओहद" और " खंदक" नामक लड़ाइयों पर अगर ध्यान दिया जाए तो अनेकेश्वरवादियों के खिलाफ लड़ी जाने वाली इन सब लड़ाइयों में ऊपरी दिल से इस्लाम स्वीकार करने वाली इन साज़िशी तत्थों की  जिन्हें " मुनाफ़िक़" कहा जाता है, दुष्टता को महसूस किया जा सकता है। यह लोग इस्लाम स्वीकार कर चुके थे लेकिन खुफिया रूप से उनके संबंध, इस्लाम के दुश्मनों से थे और उनकी साज़िशों को मदीना नगर में व्यवहारिक बनाते थे। 

 

मक्का नगर से मदीना पलायन के पहले दस बरसों के दौरान कई युद्ध हुए लेकिन वह सब मुसलमानों ने, दुश्मनों की ओर से हमले के बाद अपने बचाव में किये थे। इस संदर्भ में इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई  कहते हैंः " पैग़म्बरे इस्लाम (स) के सभी युद्ध , रक्षात्मक थे लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हर युद्ध के अवसर पर पैग़म्बरे इस्लाम (स) बैठ कर हमला होने का इंतेज़ार करते थे। अगर पैग़म्बरे इस्लाम (स) दुश्मनों का मुक़ाबला करने के लिए पूरी तरह से तैयारी न करते तो निश्चित रूप से इस्लाम, कुरआन, और इस्लामी समाज, आरंभ में ही खत्म कर दिया जाता यही वजह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) हमेशा तैयार रहते थे। 

क़ुरआने मजीद के सूरए आराफ़ की आयत नंबर 158 में कहा गया हैः" कह दो हे लोगो! मैं निश्चित रूप से तुम्हारे लिए ईश्वरीय दूत हूं। " इस आयत के आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम (स) का अभियान, सिर्फ अरब प्रायद्वीप तक ही सीमित नहीं था । इसी लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मक्का से पलायन के सातवें साल यानि सन सात हिजरी क़मरी में बड़े बड़े क़बीलों के सरदारों, विभिन्न देशों के नाम पत्र लिख कर उन्हें इस्लाम स्वीकार करने का निमंत्रण दिया। यह उस समय की बात है जब मदीना नगर में मुसलमानों की स्थिति मज़बूत हो चुकी थी। 

 

पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने इन लोगों के लिए जो पत्र लिखे थे उन्हें पढ़ने के बाद इस्लाम के प्रचार के लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स) की शैली का अंदाज़ा होता है। फिलहाल इस प्रकार के 185 पत्र मौजूद हैं। इन सब से यह पता चलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने इस्लाम के प्रचार के लिए तर्क,प्रमाण, शुभसूचना व चेतावनी का सहारा लिया है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने एक दिन सुबह की नमाज़ के बाद अपने साथियों से इस संदर्भ में सलाह व मशविरा किया और फिर अपने प्रतिनिधियों को बुलाया और उनसे कहाः 

" अल्लाह के बन्दों को समझाएं, जो लोगों का नेता बनता है लेकिन लोगों के मार्गदर्शन की कोशिश नहीं करता अल्लाह उस पर जन्नत की खुशबू भी हराम कर देता है आप सब लोग उठ खडे हों और दुनिया के दूर दराज़ के इलाक़ों में ईश्वरीय दूत का संदेश पहुंचाएं और एकेश्वरवाद की पुकार को लोगों के कानों तक पहुंचाएं।" 

इसके बाद  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने आदेश दिया और उनके लिए मुहर वाली चांदी की अंगूठी बनायी गयी कि जिस पर " मुहम्मदुन रसुल्लाह" खुदा हुआ था।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने सारे खतों पर मोम से उसी अंगूठी से मुहर लगायी और कई दूतों को वह खत देकर विभिन्न इलाकों में भेज दिया।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) के यह सारे दूत एक साथ, ईरान, रोम, हब्शा, मिस्र, यमामा, बहरैन और हैरा, नामक इलाक़ों की ओर रवाना हो गये। 

बड़े-बड़े देशों के राजाओं के नाम  पैग़म्बरे इस्लाम (स) के खतों से यह पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि इस्लाम का संदेश पूरी तरह से तर्क पर आधारित है और यह धर्म लोगों को सोच विचार और चिंता का निमंत्रण देता है।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) की जीवनी का अध्ययन करने वाला इस बिन्दु को पूरी तरह से महसूस करता है। यह  पैग़म्बरे इस्लाम (स) की विशेष शैली थी और मक्का हो या मदीना या फिर विश्व के अन्य इलाक़ों के लिए संदेश, हर अवसर पर  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने तर्क की शैली को ही अपनाया और यही वजह है कि उनके बारे में कहा गया कि "  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मदीना नगर को क़ुरआन से जीत लिया। " 

 

 पैग़म्बरे इस्लाम (स) हिजरत के छठें साल और " ज़िलक़अदा के महीने में, केवल दर्शन के उद्देश्य से मक्का नगर की ओर बढ़े। उनके साथ न सिपाही थे और न ही हथियार। लेकिन मक्का नगर के क़ुरैश कब़ीले के सरदारों को इस्लामी की बढ़ती हुई ताक़त का अच्छी तरह से अंदाज़ा हो चुका था इस लिए उन्होंने मक्का नगर से बाहर ही  पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पड़ाव पर अपने कुछ दूत भेज कर वार्ता और संधि का सुझाव दिया जिसे  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने स्वीकार कर लिया और मक्का नगर से बाहर " हुदैबिया" नामक क्षेत्र में दोनों पक्षों के मध्य संधि हुई जिसे इस्लामी तारीख में " हुदैबिया संधि" के नाम से जाना जाता है। इस समझौते में कहा गया था कि मुसलमान, कुरैश क़बीले के लोगों के खिलाफ और न क़ुरैश क़बीले के लोगों की ओर से मुसलमानों के खिलाफ कोई कार्यवाही की जाएगी। इसी प्रकार यह भी तय हुआ था कि  पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके साथी उस साल सिर्फ  हज करेंगे और अगले साल से हज और उसके अलावा भी काबे के दर्शन के लिए मक्का जा सकेंगे। कुछ बरसों तक यह समझौता चला लेकिन पलायन के आठवें साल यानी समझौते के दो साल बाद कुरैश ने इस समझौते को तोड़ दिया। क़ुरैश क़बीले के लोगों ने मुसलमानों के दुश्मनों की आर्थिक मदद के अलावा, मुसलमानों के साथ घटक एक क़बीले के लोगों पर हमला कर दिया और उनके बीस लोगों को मार डाला। इस कायरता पूर्ण हमले के बाद  पैग़म्बरे इस्लाम (स)  ने अपने साथियों के साथ मक्का नगर की ओर बढ़ने का फैसला किया। 

पैग़म्बरे इस्लाम (स) जब मक्का पहुंचें तो वहां उन्हे विशेष प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा। मुसलमान, हाथों में इस्लामी झंडा उठाए गुटों में मक्का नगर के उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी और पश्चिमी दरवाज़ों से घुसे। इस अवसर पर  पैग़म्बरे इस्लाम (स) क़ुरआने मजीद के सूरए " फत्ह" की तिलावत कर रहे थे। क़ुरैश के सरदार और कभी ताक़तवर समझे जाने वाले लोग, काबे के सामने हाथ बांधे लाइन में खड़े थे। वह डर से कांप रहे थे। क्योंकि अतीत में इन्होंने मुसलमानों पर बहुत अत्याचार किये थे और उन्ही के अत्याचारों की वजह से  पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके साथियों को मक्का छोड़ना पड़ा था। इन्ही लोगों ने  पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके साथियों को तरह तरह की यातनाएं दी थीं, कई बार युद्ध किया था, हमले किया था, सैकड़ों मुसलमानों की हत्या की थी। उन्हें अच्छी तरह से मालूम था कि  पैग़म्बरे इस्लाम (स) अगर उन्हें कड़ी से कड़ी सज़ा दें तब भी ठीक था।  लेकिन  पैग़म्बरे इस्लाम (स) का व्यवहार बिल्कुल अलग था।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने अपने साथियों से कहा कि जो लोग घरों के अंदर बंद हैं, या काबे में शरण लिए हैं या फिर अबू सुफियान के घर में हैं उन्हें कुछ न किया जाए।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने जब कुरैश के सरदारों का चिंता से भरा चेहरा देखा तो फरमायाः " घबराओ न, अल्लाह तुम सब को माफ करेगा और वह अत्याधिक कृपालु और दयावान है, जाएं आप सब को आज़ाद किया जाता है।"

मक्का नगर पर  पैग़म्बरे इस्लाम (स) की विजय के समय लगभग दो हज़ार लोगों ने इस्लाम स्वीकार  किया हालांकि उनमें से किसी को भी इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं किया गया था। वास्तव में मक्का पर विजय अरब प्राय द्वीप में इस्लाम के चौतरफा फैलाव का आरंभ था। बिना एक बूंद खून बहाए यह विजय  पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ही बस की बात थी । आज जो लोग इस्लाम पर हिंसा और तलवार से फैलाए जाने का आरोप लगाते हैं उन्हें इस्लामी इतिहास के आरंभिक काल और मक्का पर विजय जैसी घटनाओं का अध्ययन करना चाहिए। 

 

 पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मदीना नगर में दस साल के दौरान जो कुछ किया वह सब इस्लामी मिशन की राह में और ईश्वरीय मूल्यों को स्थापित करने के लिए था जिसकी वजह से मदीना और अरब जगत में बुनियादी परिवर्तन देखने को मिले और धीरे धीरे इस्लाम की जड़े, अरब जगत और उसके पड़ोस में स्थित इलाक़ों में फैलती और मज़बूत होती चली गयीं। 

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