अल्लाह के ख़ास बन्दे- 9
इस्लाम के उदय के समय अरब जगत में जो माहौल था उसके बारे में जानकारी निश्चित से पैग़म्बरे इस्लाम (स) के इस महान कार्य के विभिन्न आयामों को उजागर करने में सहायक सिद्ध होगी।
इस्लाम, वास्तव में पैग़म्बरे इस्लाम (स) की अथक कोशिशों और उनके संघर्ष का सबसे बड़ा सुबूत है और उनकी इसी मेहनत की वजह से, इस्लाम को मानव इतिहास का एक अत्यधिक महत्वपूर्ण मोड़ कहा जाता है। इस्लाम धर्म की सबसे साधारण उपलब्धि, सभ्यता व संस्कृति का प्रचार है। इसलाम ने, ज्ञान विज्ञान को इस्लामी जगत में आम किया और फिर उसे स्पेन, इटली, जर्मनी, ब्रिटेन आदि जैसे देशों और यूरोप के विभिन्न क्षेत्रों और फिर विश्व के विभिन्न इलाकों में फैलाया और यह प्रसार इतना व्यापक था कि यह कहा जा सकता है कि इस्लाम के बिना, रोम, मिस्र, और ईरान की प्राचीन सभ्यता, वर्तमान युग में बिल्कुल नहीं पहुंच सकती थी।
फ्रांस के प्रसिद्ध इतिहासकार गुस्ताव लेबॉन ने अपनी किताब "इस्लामी व अरब सभ्यता" में लिखा है कि "इस बात में तो कोई संदेह नहीं है कि इस्लाम का राजनीतिक व सामाजिक प्रभाव अनन्त और महत्वपूर्ण है ... जिस नगर में भी इस्लाम का झंडा फहराया, वहां सभ्यता ने भी आंखों को चुंधिया देने वाली रौशनी के साथ अपना जलवा बिखेरा।"
फ्रांस के ही प्रसिद्ध गणितज्ञ और खगोल शास्त्री "पियरे-साइमन लाप्लास" भी कहते हैंः "हालांकि हम आसमानी धर्मों में विश्वास नहीं रखते लेकिन पैग़म्बरे इस्लाम (स) का धर्म और उनकी शिक्षाएं मानव जीवन के लिए सामाजिक आदर्श हैं। इस आधार पर हम यह स्वीकार करते हैं कि उनके धर्म का उदय और उनकी बुद्धिमत्तापूर्ण शिक्षाएं, मूल्यवान हैं और इसी लिए हमें हज़रत मुहम्मद की शिक्षाओं की ज़रूरत है।"
इस्लाम धर्म अंतिम और सम्पूर्ण धर्म है जिसे पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मानव समाज को उपहार स्वरूप दिया है। यह वही धर्म है कि जिसके बारे में अतीत के ईश्वरीय दूतों ने सूचना दी थी । पैग़म्बरे इस्लाम (स) द्वारा लाए हुए कुरआने मजीद में कहा गया है कि पिछले ईश्वरीय दूतों ने, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बारे में शुभसूचना दी थी यहां तक कि यहूदी और ईसाई धर्मों के अनुयाइयों को पैग़म्बरे इस्लाम (स) के जन्म का इंतेज़ार था। विशेष रूप से हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के उस कथन का उल्लेख किया जाता है जिसमें उन्होंने शुभसूचना दी थी कि एक एेसे ईश्वरीय दूत का जन्म होगा जिसका नाम अहमद होगा।
इ्सलाम धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह दिलों पर राज करता है और इस धर्म ने हमेशा भाईचारे और सौहार्द को बढ़ावा दिया है। इस्लाम का उद्देश्य, मानव कल्याण और मानव समाज को स्वतंतत्रा तक पहुंच़ाना है। इस्लाम की इसी विशेषता की वजह से यह धर्म बड़ी तेज़ी के साथ फैला और फला फूला। यही वजह है कि इस्लाम के बारे में विश्व के बहुत से महान लेखकों ने अपने विचार प्रकट किये हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार अलहसनी लिखते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने कभी किसी को अपना धर्म छोड़ने के लिए विवश नहीं किया। प्रसिद्ध धर्मगुरु शेख मुहम्मद हुसैन काशेफुलगत़ा इस बारे में कहते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) उन लोगों के खिलाफ लड़े जिन्होंने वचन तोड़े थे या फिर एकेश्वरवाद के अभियान की राह में बाधाएं उत्पन्न की थी और यही वजह है कि हम कहते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के युद्धों का धर्म स्वीकार करने से कोई संबंध नहीं था।
मानव सम्मान के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के विचारों में जो चीज़ अन्य लोगों के ध्यान को आकृष्ट करती है उनकी ओर से दी जाने वाली निरंतर चेतावनी है। वे हमेशा उन खतरों की ओर से चेतावनी देते रहे हैं जो मानवीय सम्मान को निशाना बनाते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम (स) का एक कथन है कि ईश्वर के निकट मनुष्य से अधिक सम्मानीय कोई चीज़ नहीं है, लोगों ने पूछा फरिश्ते भी? तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फरमाया, हां क्योंकि फरिश्ते चांद व सूरज की तरह मजबूर हैं मगर इन्सान को आज़ाद पैदा किया गया है।
इस्लामी इतिहास में बार बार बताया गया है कि मुसलमान जब भी किसी नगर पर विजय प्राप्त करते थे तो मुसलमानों की ही भांति अन्य धर्मों के अनुयाइयों को भी आज़ाद जीवन व्यतीत करने का अवसर देते थे। अलबत्ता उनसे एक विशेषकर प्रकार टैक्स लिया जाता था क्योंकि वह इस्लाम में अनिवार्य टैक्स नहीं देते थे क्योंकि वे मुसलमान नहीं थे इस लिए उनकी सुरक्षा और उन्हें सुविधा दिये जाने के बदले इस्लामी सरकार उनसे टैक्स लेती थी। इस्लामी इतिहास का ज्ञान रखने वाले सभी लोगों को इस सच्चाई का पता है यहां तक कि इस्लाम के बारे में किताबें लिखने वाले ईसाई लेखकों ने भी यह स्वीकार किया है। उदाहरण स्वरूप "इस्लाम और अरब सभ्यता" नामक किताब में हम पढ़ते हैं कि अन्य समुदायों के साथ मुसलमानों का व्यवहार इतना अच्छा था कि उनके धर्मगुरुओं को भी धार्मिक सभाएं आयोजित करने की पूरी आज़ादी थी। इस बारे में इतिहास की किताबों में आया है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पास कुछ ईसाई समुदाय के लोग काम आते और अगर उनकी उपासना का समय हो जाता तो वहीं मदीना नगर में और मस्जिदुन्नबी में अपनी उपासना करते।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) का यहूदियों सहित अन्य धर्मों के अनुयाइयों से संपर्क और संबंध, सौहार्द व सहिष्णुता पर आधारित था और वह हर हाल में उनके मानवीय सम्मान की रक्षा करते थे। पैग़म्बरे इस्लाम (स) यहूदियों के दुर्व्यवहार पर संयम का प्रदर्शन करते और उनकी ग़द्दारी की अनदेखी करते थे, उनके धार्मिक संस्कारों का सम्मान करते और उन्हें मुसलमानों जैसे नागरिक अधिकार देते। यहूदियों के साथ किये गये समझौतों का पालन करते और यदि कोई यहूदी समझौते का उल्लंघन करता तो केवल उल्लंग्घन करते वाले के खिलाफ ही कार्यवाही करते जैसा कि " मुसलमानों के साथ ग़द्दारी करने वाले "काब बिन अशरफ़" और " लाम बिन अबी हक़ीक़" के बारे में एेसा ही किया था और अन्य यहूदियों को उनके कृत्य से अलग रखा। वास्तविकता तो यह है कि यहदूियों के साथ पैग़म्बरे इस्लाम (स) का व्यवहार कुरैश और अन्य अरब कबीलों की तुलना में भी अच्छा था।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने हमेशा मनुष्य को कल्याण व सफलता के शिखर पर पहुंचाने का प्रयास किया। क़ुरआने मजीद में कहा गया है कि " निश्चित रूप से तुम में से एक दूत मार्गदर्शन के लिए भेजा गया है जिसके लिए तुमसे अत्यधिक प्रेम की वजह से तुम्हारी निर्धनता, दुख, अज्ञानता अत्यन्त कठिन है और उसे तुम्हारे आराम और कल्याण की बहुत चिंता है और वह ईमान वालों के लिए दयालु व कृपालु है। वास्तव में पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने इन्सानों के लिए हर हानिकारक वस्तु को हराम कहा और हर लाभदायक वस्तु को हलाल किया।
यही वजह है कि इस्लाम ने मनुष्य को सबसे अधिक सम्मानीय रचना बताया है और इसी लिए इस सम्मानीय मनुष्य को यह सिखाया गया है कि वह ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना से दूर रहे, किसी इन्सान के सामने भी सिर न झुकाए, शासकों व राजाओं के सामने नतमस्तक न हो और किसी भी प्रकार के अत्याचार के सामने घुटने न टेके जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने कहा अल्लाह के अलावा किसी के भी बन्दे न बनो।
मनुष्य के शरीर में ईश्वर की आत्मा का प्रभाव है इस लिए वह इस धरती पर बहुत अधिक आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक पहुंच सकता है, इस सीमा तक कि उसे ईश्वरीय गुणों का दपर्ण भी कहा जा सके और चूंकि इस प्रकार का मनुष्य ख़ुद को अपना स्वामी नहीं समझता इस लिए अपने मन और शरीर को किसी एेसे के हवाले नहीं करता जो उसके सम्मान के अनुसार न हो वह जानता है कि यह अस्तित्व सिर्फ ईश्वर के लिए है और इसी लिए उसी में समा जाता है लेकिन अध्यात्म के इस चरण तक पहुंचना इतना सरल भी नहीं है। इस के लिए पवित्रता और शुद्धिकरण की ज़रूरत होती है। खुद को सही रूप से पहचानने की आवश्यकता होती है। इसी लिए आध्यात्मिक गुरुओं का कहना है कि आत्मज्ञान, ईश्वरीय ज्ञान की कुंजी होती है क्योंकि जब आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है तो मन से गंदगी हट जाती है और उस वक्त इन्सान, ईश्वरीय दर्पण बनने की उपलब्धि प्राप्त कर सकता है।