Feb २५, २०१८ १७:११ Asia/Kolkata

पैग़म्बरे इस्लाम की सुपुत्री हज़रत फ़ातेमा ज़हरा ने इस नश्वर संसार में बहुत ही कम समय जीवन व्यतीत किया। 

वे इस संसार में दो दशकों से अधिक समय तक नहीं रहीं।  हालांकि उन्होंने बहुत कम समय दुनिया में गुज़ारा लेकिन इसी कम समय में उन्होंने अपनी ऐसी अमिट छाप छोड़ी जो बाद की पीढ़ियों के लिए आदर्श बन गई।  शताब्दियां व्यतीत हो जाने के बावजूद आज भी उनका जीवन हमारे लिए आदर्श है।  अबतक उनके जीवन की अनेक आयामों से समीक्षा की जा चुकी है।  हमने इस कार्यक्रम और बाद वाले कुछ अन्य कार्यक्रमों को हज़रत फ़ातेमा ज़हरा से विशेष किया है।

 

हज़रत फ़ातेमा ज़हरा का जन्म ऐसे परिवार में हुआ था जो अपने काल का अति सम्मानीय परिवार था।  उनके पिता ईश्वर के अन्तिम दूत और पूरी मानवता के मार्गदर्शक हैं।  हज़रत फ़ातेमा के जीवन में उनके पिता की भूमिका बहुत ही स्पष्ट रूप में दिखाई देती है।  उनके प्रशिक्षण में उनके पिता का बहुत बड़ा योगदान रहा।  हज़रत फ़ातेमा ज़हरा के जीवन पर उनकी माता हज़रत ख़दीजा की अमिट छाप भी दिखाई देती है जिन्होंने इस्लाम के प्रचार एवं प्रसार में पैग़म्बरे इस्लाम का पूरा सहयोग किया था।  हज़रत ख़दीजा का संबन्ध क़ुरैश के एक संभ्रांत परिवार से था।  उनके घरवाले एकेश्वरवाद के मानने वाले थे।  हज़रत ख़दीजा के पिता उन लोगों में से थे जिन्होंने यमन के राजा का इसलिए कड़ा विरोध किया था क्योंकि वह काबे से हजरुल असवद को यमन ले जाना चाहता था।  उन्होंने इसका खुलकर विरोध किया।  इस विरोध के कारण अंततः यमन के राजा को अपने फैसले से पीछे हटना पड़ा और हजरूल असवद अपने स्थान पर बाक़ी रहा।

हज़रत ख़दीजा के दादा “असद बिन अब्दुलग़री” “हलफ़ुल फ़ुज़ूल” समझौते के एक सदस्य थे।  इस समझौते के अन्तर्गत यह तय पाया था कि अरब के न्यायप्रिय लोगों के साथ मिलकर पीड़ित लोगों की सहायता की जाए।  बाद में पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने भी इस समझौते का समर्थन किया था।  हज़रत ख़दीजा के चचाज़ाद भाई का नाम “वरक़ा बिन नोफेल” था।  वे अपने समय के प्रतिष्ठित, विद्धान और बहुत ही होशियार व्यक्ति थे।  वे अपनी दूरदर्शिता के लिए मशहूर थे।  बेसत अर्थात हज़रत मुहम्मद को ईश्वर की ओर से आधिकारिक रूप में ईश्वरीय दूत नियुक्त किये जाने के बाद “वरक़ा बिन नोफेल” मस्जिदुल हराम में आए।  उन्होंने वहां पर पैग़म्बरे इस्लाम से मुलाक़ात की।  बाद में उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम से अनुरोध किया कि क्या आप यह बताएंगे कि ईश्वरीय दूत नियुक्त किये जाते समय जिब्रील ने आपसे क्या कहा था।  पैग़म्बरे इस्लाम ने “वरक़ा बिन नोफेल” को पूरी घटना सुनाई।  यह सुनकर उन्होंने कहा कि ईश्वर की सौगंध आप ही ईश्वरीय दूत हैं।  वही फ़रिश्ता जो मूसा और ईसा पर उतरा था वही आपके पास भी आया।  आप होशियार रहिएगा कि आपकी बात को झुठलाया जाएगा, आपको परेशान किया जाएगा, आपको देश निकाला दिया जाएगा और आपसे युद्ध किये जाएंगे।  अगर मैं उस समय तक जीवित रहा तो अवश्य ईश्वर के धर्म की रक्षा करूंगा।  यह कहने के बाद “वरक़ा बिन नोफेल” ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) का माथा चूमा था।

इन बातों से यह पता चलता है कि हज़रत ख़दीजा का जन्म उच्च कुल में हुआ और उनका प्रशिक्षण भी नैतिकता के आधार पर किया गया।  यही कारण है कि उनके भीतर समस्त नैतिक गुण पाए जाते थे।  रवायतों में मिलता है कि जब जिब्रील हज़रत मुहम्मद पर नाज़िल होते थे तो वे उनसे यह कहा करते थे कि ईश्वर के सलाम को ख़दीजा तक पहुंचा दीजिए।

 

एक बार जिब्रील, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पास आए।  उन्होंने कहा कि यह ईश्वर का आदेश है कि आप 40 दिन तक लगातार इबादत कीजिए और पत्नी से दूर रहिए।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने वैसा ही किया जैसा उनको आदेश दिया गया था।  चालीसवें दिन एक फ़रिश्ता, स्वर्ग से खाना लेकर पैग़म्बर के पास आया।  उसने कहा कि आप आज की रात यही खाना खाइएगा।  रसूल ख़ुदा ने इबादत करने के बाद उस रात वही खाना खाया।  उसके बाद जिब्रील नाज़िल हुए और उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम को सूचना दी कि ईश्वर आपको संतान देना चाहता है।  उन्होंने कहा कि ईश्वर आपको जो संतान देने जा रहा है उससे ही आपका वंश आगे बढ़ेगा।  आपके बाद आपके उत्तराधिकारियों का वंश आपकी इसी संतान से आगे बढ़ेगा।  बाद में यह बात पैग़म्बरे इस्लाम ने अपनी धर्मपत्नी हज़रत ख़दीजा को बताई।  ईश्वरीय वादे के अनुसार 20 जमादिस्सानी, बेसत के पांचवें साल हज़रत फ़ातेमा ज़हरा के शुभ जन्म दिवस के अवसर पर हज़रत ख़दीजा की सेवा में जन्नत की हूरें उपस्थित हुईं।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने अपनी सुपुत्री का नाम फ़ातेमा रखा।

हमने आपको बताया था कि जब हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) ने अपने ईश्वरीय दूत होने की घोषणा कर दी तो उस समय मक्के के क़ुरैश और अन्य लोगों ने देखा कि इससे तो उनके हितों को बहुत नुक़सा पहुंचेगा।  यही कारण था कि उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम का खुलकर विरोध करना आरंभ कर दिया।  मक्के के इन लोगों ने पैग़म्बरे इस्लाम और उनके मानने वालों को हर प्रकार से सताना आरंभ किया।  वे किसी पर भी दया नहीं करते थे।  मुसलमानों को तरह-तरह की यातनाएं दिया करते थे।  जो भी पैग़म्बरे इस्लाम पर ईमान लाता उसको वे बुरी तरह से यातनाएं देते।  विशेष बात यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम के मानने वालों को जितना सताया और परेशान किया जाता था उतना ही उनके ईमान में वृद्धि होती जाती थी।  जैसे-जैसे कुफ़्फ़ारे क़ुरैश मुसलमानों को सताते और उनको यातनाएं देते वैसे-वैसे मुसलमानों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि होती जाती थी।  अंततः मक्के वाले ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) की हत्या की योजना बनाई।  पैग़म्बरे इस्लाम के चचा और हज़रत अली के पिता, हज़रत अबूतालिब को जब यह सूचना मिली तो उन्होंने अपनी दूरदर्शिता से यह योजना को विफल बना दिया और यह बात अपने भतीजे अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम को भी बता दी थी।  पैग़म्बरे इस्लाम के विरोधी अपनी योजना के विफल हो जाने के बावजूद ख़ामोश नहीं बैठे बल्कि उन्होंने मुसलमानों को परेशान करने का काम जारी रखा।  बाद में उन्होंने मुसलमानों का मक्का के शेबे अबूतालिब नामक स्थान पर 3 वर्षों तक परिवेष्टन किया।  इस दौरान मुसलमानों का पूरी तरह से बायकाट कर दिया गया और वे अलग-थलग पड़ गए।

शेबे अबीतालिब की इन कठिन परिस्थितियों में हज़रत ज़हरा, दूध पीती बच्ची थीं।  इन तीन वर्षों के दौरान वे भी मुसलमनों के बीच वहीं पर रहीं।  वे बहुत ही निकट से समस्याओं को कठिन परिस्थितियों को देख रही थीं।  आपने बचपन से ही कठिनाइयों में रहना सीख लिया था।  तीन वर्षों के बाद शेबे अबूतालिब का आर्थिक परिवेष्टन समाप्त हुआ लेकिन इस दौरान मुसलमानों का मनोबल बिल्कुल नहीं टूटा बल्कि परिवेष्टन के कारण उनका मनोबल बहुत ऊंचा हो गया था।  शेबे अबूतालिब का आर्थिक परिवेष्टन समाप्त हुए अभी कुछ ही समय गुज़रा था कि हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की मां हज़रत ख़दीजा का स्वर्गवास हो गया।

अभी वे अपनी माता के स्वर्गवास का दुख मना ही रही थीं कि इसी बीच पैग़म्बरे इस्लाम के सबसे बड़े संरक्षक हज़रत अबू तालिब के स्वर्गवास की ख़बर ने उनको और दुखी कर दिया।  इन दोनों घटनाओं ने पैग़म्बरे इस्लाम को बहुत अधिक प्रभावित किया आप इन मौतों से इतना प्रभावित हुए कि उस साल को आपने दुख के साल का नाम दिया।  हज़रत अबूतालिब के स्वर्गवास की ख़बर से मक्के वाले कुफ़्फार बहुत खुश हुए।  उन्होंने फिर रसूले ख़ुदा से बदला लेने की ठानी।  उन्होंने फिर से पैग़म्बरे इस्लाम को सताना और परेशान करना आरंभ कर दिया।  अंततः पैग़म्बरे इस्लाम ने मक्के से मदीना जाने का निर्णय लिया।  इस प्रकार इस्लाम में हिजरत नामक एक नए चरण का आरंभ हुआ।  हिज़रत का दौर हज़रत फ़ातेमा के जीवन का एक अन्य चरण था।  इसके बारे में अगले कार्यक्रम में चर्चा करेंगे सुनना न भूलिएगा।

 

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