May १३, २०१८ १२:१३ Asia/Kolkata

आपको याद होगा कि हमने "हुनैन युद्ध का उल्लेख करते हुए पैग़म्बरे इसलाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) की सुरक्षा में हज़रत अली की ओर से किये गए बलिदान का उल्लेख किया था। 

"तबूक" वह सबसे दूरस्थ स्थल था जहां पर इस्लाम के प्रसार के उद्देश्य से पैग़म्बरे इस्लाम (स) तशरीफ़ ले गए थे।  आपके तबूक जाने के अवसर पर मुनाफ़िक़ों या मिथ्याचारियों की गतिविधियां और उस समय घटने वाली कुछ घटनाएं यह दर्शाती हैं कि वे पैग़म्बरे इस्लाम (स) की नवगठित सरकार को चोट पहुंचाने के प्रयास में थे।  मुनाफ़िक़ों ने यह सोचा कि तबूक युद्ध पर जाने के कारण मदीने में पैग़म्बरे इस्लाम (स) नहीं रहेंगे और यह अवसर उनके लिए अपनी योजना को लागू करने के लिए बहुत ही उचित अवसर है।  वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अपनी अनुपस्थिति में पैग़म्बरे इस्लाम (स) हज़रत अली अलैहिस्सलाम को मदीने में छोड़ जाएंगे।  आपने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से कहा था कि हम दोनों में से किसी एक का मदीने में रहना बहुत ज़रूरी है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) के आदेश पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम मदीने में ठहरे रहे जिसके कारण मुनाफ़िक़ों की योजना विफल हो गई।  अपनी योजना को विफल होता देखकर मुनाफ़िक़ों ने यह दुष्प्रचार आरंभ किया कि पैग़म्बरे इस्लाम के लाख कहने के बावजूद हज़रत अली ने उनकी बात नहीं मानी और वे तबूक युद्ध से बचने के लिए मदीने में रह गए।  इस दुष्प्रचार के फैलते ही हज़रत अली अलैहिस्सलाम, पैग़म्बरे इस्लाम (स) की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने सारी बात उन्हें बताई।  इसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने हज़रत अली के बारे में कहा कि अली का महत्व ऐसा ही है जैसे हारून का मूसा के लिए था।  अंतर केवल इतना है कि मेरे बाद कोई ईश्वरीय दूत नहीं आएगा।  इस प्रकार मुनाफ़िकों का षडयंत्र पूर्ण रूप से विफल हो गया।

मक्के से मदीने पलायन करने के वर्षों बाद तक एकेश्वरवाद के समर्थन और अनेकेश्वरवाद के विरोध का प्रचार लगातार जारी था।  यह संदेश अरब जगत के लोगों तक निरंतर पहुंच रहा था जिससे बड़ी संख्या में लोग प्रभावित हो रहे थे।  इसके बावजूद कुछ उददंडी स्वभाव के लोग एकेश्वरवाद का विरोध व अनेकेश्वरवाद का समर्थन कर रहे थे।  अब पैग़म्बरे इस्लाम ने यह निर्णय लिया कि अनेकेश्वरवाद के समूल विनाश के लिए कार्यक्रम चलाया जाए चाहे इससे अनेकेश्वरवादी नाराज़ ही क्यों न हों।  इस काम के लिए आपने हज जैसी पवित्र इबादत का सहारा लिया।  इस्लाम के उदयकाल में हज के दौरान इसमें भाग लेने वाले अज्ञानता के काल की कुछ परंपराओं को यहां पर अंजाम देते थे जो इस्लामी शिक्षाओं से मेल नहीं खाती थीं।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) चाहते थे कि हज जैसी पवित्र उपासना हर प्रकार के अंधविश्वास और कुरीतियों से दूर रहे।  इसके लिए ईश्वर के घर को सभी बुराइयों से स्वच्छ करना था।  इन्हीं बातों के दृष्टिगत पैग़म्बरे इस्लाम ने सूरे तौबा की आरंभिक आयतों को सुनाने के लिए हज़रत अबूबक्र को एक गुट के साथ मक्के भेजा।  वे लोग अभी कुछ दूर ही गए थे कि ईश्वरीय फ़रिश्ते ने आकर पैग़म्बरे इस्लाम को यह संदेश सुनाया कि "बराअत" का संदेश या वे स्वयं सुनाएं या फिर उनके परिवार का कोई सदस्य जाकर सुनाए।  इसके बाद आपने हज़रत अली(अ) को बुलाकर उनसे कहा कि तुम घोड़े पर सवार होकर मक्का जाओ और मुशरिकों के सामने "बराअत" की आयतें पढ़कर सुनाओं।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने पूरी दृढ़ता के साथ ऊंची आवाज़ में आयतों को पढ़ा।  इन आयतों का ख़ुलासा इस प्रकार था।  मूर्तिपूजक अब के बाद से ईश्वर के घर में प्रविष्ट नहीं हो सकते।  काबे के आदर और सम्मान की रक्षा की जानी चाहिए।  अब कोई बिना कपड़ों के तवाफ़ नहीं कर सकता।  अबसे कोई भी अनेकेश्वरवादी, हज के संस्कारों में भाग नहीं ले सकता।  अनेकेश्वरवादियों के पास अब 4 महीने का समय है कि वे मूर्तियों की पूजा करना छोड़े दें और इस्लामी सरकार के सामने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करें।

इस घोषणा के कुछ ही समय के बाद से अनेकेश्वरवादी, गुट-गुट में एकेश्वरवादी बनते चले गए।  दसवीं हिजरी क़मरी तक तत्कालीन अरब जगत में अनेकेश्वरवाद, दम तोड़ चुका था और एकेश्वरवाद का हर ओर बोलबाला हो चुका था।  इस प्रकार इस्लाम के लिए हज़रत अली अलैहिस्सलाम का एक और प्रयास सफल हुआ।

इस्लाम के प्रचार के उद्देश्य से पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने उस काल के कई राष्ट्राध्यक्षों और गणमान्य लोगों के नाम पत्र लिखे।  जिन लोगों को आपने पत्र लिखे थे उनमें से एक नजरान का ईसाई धर्मगुरू भी था।  वह हेजाज़ और यमन की सीमा पर रहता था।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने उसे इस्लाम स्वीकार करने का निमंत्रण दिया।  उनके प्रतिनिधि ने यह ख़त उस ईसाई धर्मगुरू के हवाले किया।  उसने पैग़म्बरे इस्लाम के ख़त को बहुत ध्यान से पढ़ा।  बाद में ईसाई धर्म के कुछ वरिष्ठ लोगों के साथ उन्होंने बैठक की।  बैठक के बाद यह तय पाया कि 60 चुने हुए लोगों को पैग़म्बरे इस्लाम (स) की सेवा में मदीने भेजा जाए। यह लोग निकट से उनसे मिलकर उनके ईश्वरीय दूत होने के तर्कों की समीक्षा करें।  जब यह लोग मदीना पहुंचे तो उन्होंने तार्किक बातों के स्थान पर बहस शुरू कर दी और इस्लाम लाने से इन्कार कर दिया।  इसी बीच ईश्वर का फरिश्ता, "मुबाहले" की आयत लेकर पैग़म्बरे के पास आया।  इसमे कहा गया था कि दोनो पक्ष अपने निकट संबन्धियों को लेकर आएं और हाथ उठाकर झूठे पर लानत भेजें।  उन लोगों ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए मुबाहले में भाग लेने की बात मान ली।

 

मुबाहले के लिए जो स्थान निर्धारित किया गया था वहां पर पैग़म्बरे इस्लाम (स) अपने परिजनों के साथ पहुंचे।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) की गोद में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम थे।  उन्होंने इमाम हसन की उंगली पकड़ रखी थी।  हज़रत अली और हज़रत फ़ातेमा उनके पीछे-पीछे चल रहे थे।  नजरान के जो ईसाई मुबाहले के लिए मदीने आए थे उन्होंने मुबाहले से पहले आपस में यह कहा था कि "मुहम्मद" अगर सांसारिक वैभव के साथ आते हैं तो वे फिर ईश्वर के दूत नहीं हैं।  लेकिन अगर वे पूरी सादगी से आते हैं तो वे वास्तव में ईश्वरीय दूत हैं।  अभी ईसाइयों का शिष्टमण्डल आपस में यह बातें कर ही रहा था कि उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स) को उनके पवित्र परिजनों के साथ आते हुए देखा।  इन पांचों लोगों के मुख से निकलने वाले तेज को देखकर वे सब हैरान हो गए।  वे लोग यह सब देकर अचंभित थे।  इसी बीच ईसाइयों के शिष्टमण्डल के प्रमुख ने कहा कि जिन चेहरों को मैं देख रहा हूं यदि वे अपने हाथ दुआ के लिए उठाएं तो हमारा विनाश हो सकता है।  उचित यह होगा कि हम मुबाहेला न करके वापस चले जाएं।  उन्होंने अपने निर्णय से पैग़म्बरे इस्लाम को अवगत करवाया और उन्होंने ईसाइयों की बात को स्वीकार कर लिया।  मुबाहला की घटना पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के सच्चे होने की पुष्टि करती है।  यह इस्लामी इतिहास की बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है।  इससे संबन्धित आयत का सारांश यह है कि मुबाहले के लिए पैग़म्बरे इस्लाम के साथ आने वाले लोग किस दर्जे के थे?

मुबाहला का निमंत्रण, पैग़म्बरे (स) की सच्चाई का एक अन्य स्पष्ट चिन्ह है क्योंकि यह बात संभव नहीं है कि जिसे अपने पालनहार से संबंध पर पूर्ण विश्वास न हो वह इस प्रकार के मैदान में आए और अपने विरोधियों को निमंत्रण दे कि वे ईश्वर से झूठे को दंडित करने की प्रार्थना करें। निश्चित रूप से यह अत्यंत ख़तरनाक काम है क्योंकि यदि उस व्यक्ति की प्रार्थना स्वीकार न हो और विरोधी ईश्वरीय दंड में ग्रस्त न हों तो इसका परिणाम उसके घोर अपमान के रूप में ही निकलेगा। कोई भी बुद्धिमान एवं दूरदर्शी व्यक्ति परिणाम पर पूरे विश्वास के बिना ऐसा काम नहीं करेगा। यही कारण था कि जब पैग़म्बर मुबाहला के मैदान में आए तो नजरान के ईसाई उन्हें देख कर, जो बिना किसी ठाठ बाट के केवल अपने नातियों इमाम हसन व हुसैन, सुपुत्री हज़रत फ़ातेमा और दामाद हज़रत अली के साथ आए थे, अत्यधिक भयभीत हो गए और उन्होंने संधि पर अपनी तत्परता जता दी क्योंकि वे अपने हृदय की गहराइयों से पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की सच्चाई को समझ गए थे।

इस्लाम के प्रसार और उसके प्रभाव के कारण पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने एकेश्वरवाद को संसार के कोने-कोने तक पहुंचाने का काम तेज़ कर दिया।  इसी उद्देश्य से आपने अपने एक साथी "मआज़ बिन जबल" को यमन भेजा।  वे एकेश्वरवादी संदेश के साथ यमन गए ताकि यमन वासियों को इससे भलिभांति अवगत करवाया जा सके।  यमन पहुंचने के बाद मआज़ ने वहां के लोगों को संदेश बताने और इस्लामी शिक्षा देने के लिए भरसक प्रयास किये किंतु वे इस काम में पूरी तरह से सफल नहीं हो सके। अंततः वे मदीना वापस आ गए।  इसके बाद इसी उद्देश्य से पैग़म्बरे इस्लाम ने "ख़ालिद बिन वलीद" को यमन भेजा।  खालिद बिन वलीद ने भी यमन में छह महीने गुज़ारे और अपना काम जारी रखा किंतु वे भी प्रभावी काम नहीं कर सके और मदीना वापस आ गए।  अंततः पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने इसी उद्देश्य से हज़रत अली अलैहिस्सलाम को यमन रवाना किया।  हज़रत अली को यमन रवाना करते समय उन्होंने दुआ कि थी कि तुम वहां के लोगों के साथ तार्किक व्यवहार करते हुए उनका सही मार्गदर्शन करो।

 

जिस समय हज़रत अली अलैहिस्सलाम यमन की सीमा पर पहुंचे तो उन्होंने अपने सैनिकों के साथ सबसे पहले सुबह की नमाज़ सामूहिक रूप से पढ़ी।  उसके बाद हज़रत अली ने यमन के "हमदान" क़बीले के लोगों को पैग़म्बरे इस्लाम (स) का पत्र सुनने के लिए आमंत्रित किया।  हमदान क़बीला उस समय यमन का सबसे बड़ा क़बीला था।  हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने ईश्वर की प्रशंसा करते हुए अपनी बात पूरे तर्क के साथ पेश की।  हज़रत अली की बातों से वहां पर उपस्थित लोग बहुत प्रभावित हुए।  यमनवासी हज़रत अली अलैहिस्सलाम की बातों से इतना अधिक प्रभावित हुए कि बहुत ही कम समय में अधिक संख्या में यमनवासी मुसलमान हो गए।  हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने इस घटना की सूचना पत्र के माध्यम से पैग़म्बरे इस्लाम (स) तक पहुंचाई।  इस पत्र को पढ़कर वे बहुत ही प्रसन्न हुए और ईश्वर के समक्ष नतमस्तक हो गए।

 

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