अल्लाह के ख़ास बन्दे- 30
पिछले हमने इमाम हसन अलैहिस्सलाम के राजनैतिक व सामाजिक जीवन पर प्रकाश डाला था और हमने बताया था कि ख़वारिजों ने अपने प्रभाव से न केवल इमाम हसन अलैहिस्सलाम के सैनिकों में शंका और भ्रांतियां पैदा कर दीं बल्कि उन्होंने इमाम हसन अलैहिस्सलाम के भ्रष्ट और अधर्मी होने का आदेश जारी कर दिया।
इसके परिणाम में इस गुट ने उस तंबू पर हमला कर दिया जिसमें इमाम हसन अलैहिस्सलाम थे और इमाम हसन अलैहिस्सलाम के नीचेसे जा नमाज़ खींच ली। इमाम हसन अलैहिस्सलाम इस हमले में तो बच गये और वह एक घोड़े पर सवार हुए और अपने कुछ निष्ठावान साथियों के साथ उस स्थान से जाने जाने वाले थे कि कुछ ख़वारिजों ने तलवार और भालों से उन पर हमला कर दिया। इस हमले में इमाम हसन अलैहिस्सलाम बुरी तरह घायल हो गये कि एक दुश्मन का चाक़ू उनके पैर की हड्डी तक पहुंच गया था। इमाम हसन के साथी उनके घायल शरीर को मदाएन में हज़रत अली की ओर से तैनात किए गए अधिकारी सईद बिन मसऊद सक़फ़ी के घर ले गये। इसके अलावा क़बीलों के कुछ सरदारों ने मुआविया को पत्र लिखा और गुप्त रूप से उसे इराक़ की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया और उसको यह वचन दिया था कि मुआविया की सेना के निकट होते ही वह इमाम हसन को गिरफ़्तार कर लेंगे और बंधे हाथ उनको मुआविया के हवाले कर देंगे। मुआविया ने इस अवसर से लाभ उठाया और इमाम हसन अलैहिस्सलाम को पत्र लिखा कि इस प्रकार के लोगों पर भरोसा करके आप मुझसे कैसे युद्ध कर सकते हैं?
मुआविया ने अपने कुछ लोगों को जिनपर विदित रूप से लोग विश्वास करते थे, इमाम हसन के पास भेजा। इस गुट ने मदाएन कैंप में इमाम हसन से मुलाक़ात की। जब यह लोग तंबू से बाहर निकले तो उन्होंने लोगों से झूठ बोला और कहा कि ईश्वर ने पैग़म्बरे इस्लाम की संतान के माध्यम से झगड़ों को ख़त्म कर दिया और युद्ध की भड़की आग को बुझा दिया और हसन इब्ने अली ने मुआविया के साथ सुलह करके लोगों के ख़ून की रक्षा की। इस आधार पर इमाम हसन अलैहिस्सलाम के तीन कमान्डर एक के बाद एक धमकी या लालच की वजह से मुआविया से जाकर मिल जाते हैं, ख़्वारिज के प्रभाव और इमाम अलैहिस्सलाम पर अधर्मी होने का आरोप, इमाम हसन के सिपाहियों की सुस्ती, क़बीलों के सरदारों की मुआविया के प्रति वफ़ादारी और दोस्त की आड़ में दुश्मनों का मनोवैज्ञानिक युद्ध जैसी कठिन परिस्थितियों में इमाम हसन अलैहिस्सलाम के पास सुलह करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था।
मुआविया को भी अपने शक्ति और लक्ष्यों को व्यवहारिक बनाने के लिए पहले से अधिक शांति और सुलह के वातावरण की आवश्यकता है। यही कारण था कि उसने इमाम हसन के नाम एक पत्र लिखा जिसे आज की ज़बान में सफ़ेद हस्ताक्षर का नाम देते हैं और उसने पत्र में लिखा कि वह इमाम हसन की समस्त शर्तें और सुझाव स्वीकार करने को तैयार है। इमाम हसन ने भी इस अवसर से लाभ उठाया, उन्होंने मौक़े से फ़ायदा उठाया और महत्वपूर्ण तथा संवेदनशील विषयों को प्राथमिकता दी जो सबसे अहम हैं। उन्होंने सुलह नामे में कुछ बातें लिखीं और मुआविया से वचन लिया कि वह समझौते पर अमल करेगा।
सुलह समझौते में पांच अनुच्छेद थे जो इस प्रकार थे। हुसैन इब्ने अली सरकार और नेतृत्व को छोड़ देंगे, इस शर्त के साथ कि मुआविया क़ुरआने मजीद और पैग़म्बरे इस्लाम के शिष्टाचार के अनुसार अमल करेगा, मुआविया के बाद सरकार की ज़िम्मेदारी हसन इब्ने अली की होगी और यदि उनके साथ कोई घटना हो जाती है तो मुसलमानों के मामलों की ज़िम्मेदारी हुसैन इब्ने अली के हाथों में होगी और मुआविया को कोई हक़ नहीं है कि वह अपना उतराधिकारी निर्धारित करे। मस्जिदों के मिंबरों पर हज़रत अली को बुरा भला कहने की प्रथा ख़त्म होनी चाहिए और उनको भलाई अलावा किसी और चीज़ से याद न किया जाए। कूफ़ा के राजकोष में जो पैसे हैं उसे मुआविया की सरकार के नियंत्रण से निकलना चाहिए और इसको हसन इब्ने अली की निगरानी में होना चाहिए और मुसलमानों की भलाईयों पर इसे ख़र्च होना चाहिए।
मुआविया को जमल और सिफ़्फ़ीन में अली के साथ मुआविया से युद्ध करने और शहीद होने वालों को मासिक पैसे देने होंगे। मुआविया को वचन देना होगा कि वह सीरिया, इराक, हेजाज़ और यमन के निवासियों सहित समस्त लोग उसके सैनिकों से सुरक्षित रहेंगे और किसी को भी अतीत में सरकार विरोधी कार्यवाही करने के जुर्म में सज़ा नहीं दी जाएगी। इससे बढ़कर मुआविया को चाहिए कि वह दुनिया में अली के चाहने वाले जहां भी रहें सुरक्षित रहें, अली और उनके परिवार और उनके साथियों की जान व माल की रक्षा की जाए। उनके माल ज़ब्त न किए जाएं और हसन इब्ने अली और हुसैन इब्ने अली तथा हज़रत अली की ओर से नियुक्त किए गये लोगों को कोई नुक़सान न पहुंचाया जाए।
इस समझौते पर हस्ताक्षर के बाद मुआविया पर ज़िम्मेदारी थी कि वह इसपर भरपूर अमल करे, उसने इस पर अमल करने के लिए अल्लाह और उस समय के महापुरुषों को इस पर गवाह बनाया था। इस समझौते में वर्णित बातों से पता चलता है कि इमाम हसन ने अपने कमान्डरों और साथियों के विश्वासघात के बावजूद पूरी शक्ति के साथ अपने बात को पेश किया और मनवा लिया। उन्होंने ने मुआविया को विशिष्टता नहीं दी बल्कि उन्होंने समझौते में इस बात पर उल्लेख कर दिया था कि मुआविया कभी भी स्वयं को अमीरल मोमेनीन नहीं कहलवाएगा। यही कारण है कि मुआविया ने सुलह समझौता करने के बाद यह एहसास किया कि वह हर क्षेत्र में निशस्त्र हो गया और अब उसके हाथ में कुछ नहीं रह गया। अब उसे पछतावा हो रहा था और उसने समझौता तोड़ने का फ़ैसला कर लिया। उसने नख़ीला छावनी की ओर चलने का आदेश दिया और नमाज़े जुमा का लोगों के बीच ख़ुतबा दिया और उसमें कहा कि ईश्वर की सौगंध मैंने आप लोगों के साथ तब तक युद्ध नहीं किया जब तक नमाज़ न पढ़ लिया, रोज़ा न रख लिया, हज न कर लिया, ज़कात न दे दिया क्योंकि आप यह काम करते हैं। मैंने आप लोगों से यह इसलिए युद्ध किया कि ताकि सत्ता अपने हाथ में ले लूं और ईश्वर ने मेरी इच्छा स्वीकार भी की, यद्यपि यह आप लोगों के लिए अच्छी नहीं थी किन्तु जान लो कि मैंने हसन इब्ने अली से वचन किया है और उनसे समझौता किया है, उन सबका विरोध करता हूं और सबका उल्लंघन करूंगा।
स्पष्ट है कि यदि मुआविया समझौते पर अमल करता तो धीरे धीरे इमाम हसन के लक्ष्य व्यवहारिक होता क्योंकि मुआविया के दृष्टिकोण के विरुद्ध इमाम केवल सत्ता में ही नहीं पहुंचना चाहते थे ब्लकि उनका मुख्य लक्ष्य इस्लामी समाज में इस्लामी नियमों और क़ानूनों को लागू करना तथा इस्लामी समाज का नेतृत्व करना है। इन सबके बावजूद कुछ लोगों ने चाहे वह इमाम हसन के काल में हों या वर्तमान समय में, हमेशा यह प्रयास किया कि वह अपनी सतही सोच के आधार पर इमाम हसन अलैहिस्सलाम के विवेकपूर्ण फ़ैसले पर प्रश्न चिन्ह लगा सकें। इमाम हसन पर लापरवाही बरतने और युद्ध से फ़रार करने का आरोप लगा सकें जबकि इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने जमल और सिफ़्फ़ीन नामक युद्धों में उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि वह एक योद्धा और महान पुरुष हैं। इमाम हसन ने हज़रत अली की शहादत के बाद मुआविया के विरुद्ध युद्ध के लिए बड़ी युक्ति बनाई थी और निसंदेह यदि उनके साथी निष्ठावान होते और उनसे विश्वासघात न करते तो अंतिम सफलता उनको ही मिलती।
मुआविया ने भी दूसरे आलोचकों और टीकाकारों की भांति सोचा कि इमाम हसन ने युद्ध से बचने के लिए सुलह का सुझाव पेश किया है और जब उसे पता चला कि ख़वारिज के एक गुट ने विद्रोह कर दिया हे तो उसने इससे पहले कि इमाम हसन कूफ़ा से मदीना की ओर हरकत करें, इमाम हसन के नाम एक पत्र लिखा और उनसे इन लोगों का दमन करने की अपील की। इमाम हसन अलैहिस्सलाम से प्रस्ताव से बहुत आक्रोषित हुए। उन्होंने मुआविया के पत्र के जवाब में लिखा कि मैंने इस्लाम और मुसलमानों की रक्षा के लिए युद्ध से परहेज़ किया और यह तय नहीं है कि मैं तुम्हारे बदले तुम्हारे दुश्मनों से युद्ध करूं। यदि युद्ध होना है तो मैं तुमसे युद्ध करूंगा और तुमसे युद्ध करना मैं खवारिज से युद्ध से बेहतर समझता हूं और उसको प्राथमिकता देता हूं।
उल्लेखनीय है कि इस्लाम की संस्कृति मेलमिलाप और भाईचारे की है। इस्लाम कहता है कि जहां तक संभव हो युद्ध से बचना चाहिए। यही कारण है कि इमाम हसन अलैहिस्सलाम इस परिणाम तक पहुंचे कि वह युद्ध द्वारा अपने लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सकते तो उन्होंने सुलह का रास्ता अपनाया। इस्लाम धर्म के दुश्मनों ने इस्लामी धरती पर आक्रमण करके इस्लाम और मुसलमानों को तबाह करने की भूमि समतल की किन्तु इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने इस समझौते से मुसलमानों और इस्लामी धरती पर दुश्मनों के षड्यंत्रों को विफल बना दिया। इमाम हसन ने तो समझौते पर पूरी तरह से अमल किया किन्तु मुआविया ने विस्तारवार के आधार पर समझौते का उल्लंघन किया और यज़ीद को जिसमें तनिक भी क्षमता नहीं थी अपना उतराधिकारी बना लिया किन्तु इमाम हसन के रहते हुए यह योजना व्यवहारिक होना असंभव थी इसीलिए मुआविया ने एक चाल चलकर इमाम हसन को उनकी पत्नी जोदा से ज़हर दिलावा दिया। इमाम हसन शहीद हो गये और इस प्रकार इमामत की ज़िम्मेदारी हुसैन इब्ने अली के कंधों पर आ गयी।