अल्लाह के ख़ास बन्दे- 32
कूफ़े की मस्जिद में नमाज़ की हालत में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद इमाम हसन अलैहिस्सलाम की इमामत का काल शुरू हुआ।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम इस अत्यंत कठिन व मुसीबत भरे काल में अपने भाई इमाम हसन अलैहिस्सलाम और मुआविया के बीच टकराव और पत्र व्यवहार के साक्षी थे, यहां तक कि इमाम हसन के कुछ साथियों के विश्वासघात, मिथ्याचारियों और बुद्धिहीन ख़वारिज के दबाव के कारण इमाम हसन और मुआविया के बीच संधि समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इस समझौते पर हस्ताक्षर के बाद इमाम हसन कूफ़े से मदीने लौट गए और दस साल तक वहीं रहे जिसके बाद उनकी शहादत हो गई। इमाम हसन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की इमामत का काल शुरू हुआ।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने भी मुआविया के समकालीन बीतने वाले अपने दस वर्षों में बिल्कुल वही नीति अपनाई जो इमाम हसन ने अपनाई थी। सिफ़्फ़ीन की लड़ाई और इमाम हसन की ओर से लोगों को जेहाद के निमंत्रण के अंजाम ने यह बात अच्छी तरह सिद्ध कर दी थी कि जब समाज के अधिकांश लोग मुआविया की नीतियों से धोखा खा गए हों तो युद्ध वह मार्ग नहीं है जिसमें इस्लामी समुदाय का हित हो। संभव था कि अगर एक बार फिर युद्ध की ज्वाला भड़क उठती तो हज़ारों निर्दोष लोगों का ख़ून बिना किसी परिणाम और उपलब्धि के बह जाता और समाज में अराजकता फैल जाती। इस्लाम के कट्टर दुश्मन इसी प्रकार के वातावरण की घात में थे ताकि इस्लाम और मुसलमानों का काम तमाम कर दें।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का यह स्पष्ट कथन कि हसन और हुसैन, इमाम हैं चाहे युद्ध करें या संधि करें, इस मूल बिंदु को बयान करता है कि जो इमाम और नेता ईश्वर की ओर से चुना जाता है, उसमें ईश्वर द्वारा प्रदान किए गए ज्ञानों के अतिरिक्त ऐसी अभूतपूर्व दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता होती है कि वह किसी भी अन्य व्यक्ति से अधिक हर समय और हर काल में इस्लाम और इस्लामी जगत के हितों को समझता है, समय की आवश्यकता के अनुसार नीतियां अपनाता है और जो कुछ आवश्यक होता है उसे अंजाम देता है।
इमाम कभी युद्ध करता है, कभी संधि करता है, कभी मौन धारण करता है, कभी आवाज़ उठाता है, कभी असत्य के ख़िलाफ़ उठ खड़ा होता है और कभी शांतिपूर्ण मार्ग अपनाता है। दूसरे शब्दों में सभी इमामों की रणनीति एक लेकिन शैली अलग अलग थी। इसी विचारधारा के अंतर्गत जब तक मुआविया ज़िंदा था, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने भाई इमाम हसन की तरह शांतिपूर्ण शैलियां अपनाईं। यहां यह भी स्पष्ट रहे कि वे अत्याचार और धर्म में ग़लत बातें शामिल करने थी की कोशिशों पर चुप नहीं रहे बल्कि उन पर भरपूर आपत्ति की लेकिन मुख्य समस्या यह थी कि मुआविया विदित रूप से मुसलमान था और उसने जनमत का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर रखा था और लोगों के सोचने और समझने की शक्ति छीन ली थी।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम नहजुल बलाग़ा के ख़ुतबा क्रमांक 50 में इस प्रकार के समय की व्याख्या करते हुए कहते हैं। फ़ित्नों के पैदा होने और सामने आने का समय वह है कि जब आंतरिक इच्छाओं की पालन किया जाने लगे और धार्मिक आदेश भ्रष्टता के चेहरे के साथ सामने आने लगें। ऐसे समय में असत्य से सत्य को अलग करना बहुत मुश्किल हो जाता है। अगर असत्य, सत्य से अलग हो जाए तो सत्य का चेहरा छिपा हुआ नहीं रहेगा और सत्य के खोजी सही मार्ग पर चलने लगेंगे और अगर सत्य को असत्य का चोला नहीं पहना दिया जाता तो धूर्त शत्रुओं की ज़बानें कट जातीं लेकिन सत्य के कुछ भाग को असत्य के कुछ भाग में मिला दिया जाता है जिसके कारण सत्य और असत्य को पहचानना मुश्किल हो जाता है। शैतान अपने मित्रों पर छा जाता है और असत्य की घाटी में गिरने से केवल उन्हीं लोगों को मुक्ति मिलती है जो ईश्वर की दया व कृपा के पात्र बनते हैं।
चीज़ों और बातों का केवल विदित रूप देखने वाले तथाकथित धर्मावलम्बी कि जो धर्म की आत्मा से अज्ञात हैं हमेशा धर्म की विदित बातों से अपना दिल ख़ुश करते हैं। उस काल में भी इस प्रकार के लोगों ने अपने ईश्वरीय नेताओं को भी छोड़ कर मुआविया का साथ दिया। अलबत्ता जो वास्तविक और दूरदर्शी धर्मावलम्बी थे और जो ईश्वरीय कृपा के पात्र थे, एक पल के लिए भी ईश्वर के सीधे रास्ते से नहीं भटके और अपनी दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता से उन्होंने बनी उमैया की चालों और साज़िशों पर नज़र रखी और अपने जीवन के अंतिम क्षण और शहादत तक अपने धार्मिक सिद्धांतों पर डटे रहे।
मुआविया इस प्रकार के लोगों से जिनमें, हुज्र इब्ने अदी किंदी मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं, अत्यधिक ख़तरा महसूस करता था। इसी लिए उसने उन्हें और उनके कुछ साथियों को बड़ी निर्दयता से शहीद करवा दिया। इमाम हुसैन अलैहिसस्सलाम इस कटु, हृदय विदारक और निर्मम घटना पर चुप नहीं रहे और उन्होंने कड़ी आपत्ति की। उनके इस क़दम और जासूसों की मुख़बिरी के बाद मुआविया ने इमाम हुसैन को उनकी गतिविधियों के बारे में एक पत्र लिखा। इमाम ने उसके ख़त के जवाब में लिखाः
तुम्हारा पत्र मुझ तक पहुंचा जिसमें तुमने कहा है कि हमारे बारे में तुम्हें अप्रसन्न करने वाली रिपोर्टें मिली हैं और तुमने कहा है कि इस प्रकार के कार्यों को मेरे लिए उचित नहीं समझते। जान लो कि तुम्हें रिपोर्ट देने वाले लोग ऐसे चापलूस और चुग़लख़ोर हैं जो लोगों के बीच फूट के बीज बो रहे हैं। मैंने तुम्हारे ख़िलाफ़ न तो युद्ध की तैयारी की है और न ही मैं तुम्हारे विरुद्ध उठ खड़ा होना चाहता हूं लेकिन कभी यह मत सोचना कि मैं अपने मौन, तुम्हारी ग़लत सरकार के मुक़ाबले में चुप्पी और जेहाद न करने से प्रसन्न हूं, नहीं बल्कि मैं अपने ईश्वर से डरता हूं और इस बात से डरता हूं कि मैं तेरे और तेरे पथभ्रष्ट व काफ़िर साथियों के बारे में जो विचार रखता हूं वे पाप से भी बुरे हों।
इसके बाद इमाम हुसैन अलैहिसस्सलाम ने हुज्र की शहादत की घटना की ओर संकत किया और अपने पत्र में लिखाः क्या तुम हुज्र इब्ने उदय के हत्यारे नहीं हो? क्या तुमने उनके पवित्र और नमाज़ी साथियों की हत्या नहीं की? वे वही पवित्र लोग थे जो पथभ्रष्टताओं की निंदा करते थे, भलाइयों का आदेश दिया करते थे, बुराइयों से रोकते थे और ईश्वर के मार्ग में किसी धिक्कार करने वाले की धिक्कार की परवाह नहीं करते थे लेकिन उतनी सारी सौगंधों और उनके साथ किए जाने वाले मज़बूत समझौतों के बावजूद तुमने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया और ईश्वर से नहीं डरे और पूरे दुस्साहस से उनकी हत्या कर दी।
इमाम हुसैन अलैहिसस्सलाम इसी पत्र के एक अन्य भाग में मुआविया को संबोधित करते हुए लिखते हैं। तुमने अपने पत्र में कहा था कि अगर मैं अपनी जान के लिए और धर्म तथा (पैग़म्बर) मुहम्मद के समुदाय के लिए शांति से बैठ जाऊं तो यह तुम्हारे विरुद्ध उठ खड़े होने से बेहतर है तो जान लो कि अगर मैं तुम्हारे ख़िलाफ़ खड़े हो जाऊं तो ईश्वर के निकट मेरा बड़ा ऊंचा स्थान होगा और अगर मैंने तुम्हारे ख़िलाफ़ जेहाद छोड़ दिया और चुप बैठा रहा मैं जानता हूं कि मैंने बहुत बड़ा कल्याण खो दिया है और मुझे ईश्वर से क्षमा याचना करनी चाहिए और उससे प्रार्थना करनी चाहिए कि वह मेरे मामले को बेहतर बना दे और कल्याण की ओर मेरा मार्गदर्शन करे। इस पत्र के अंतिम भाग में इमाम हुसैन अलैहिसस्सलाम ने मुआविया को लिखाः अपने आपको ईश्वरीय प्रतिशोध के लिए तैयार करो और जान लो कि ईश्वर अपने न्यायालय में तुम पर मुक़द्दमा चलाएगा और तुम्हें दंडित करेगा। वही न्यायालय जिसने तुम्हारे सभी अमानवीय और धर्म विरोधी कामों को अंकित कर लिया है।
जैसा कि हमने बताया, इमाम हुसैन अलैहिसस्सलाम अपनी रणनैतिक शैलियों से अपने भाई इमाम हसन अलैहिसस्सलाम के ही मार्ग को जारी रखे हुए थे। दूसरे शब्दों में जिस तरह इमाम हसन मुआविया के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने और सशस्त्र संघर्ष को छोड़ने पर विवश हुए थे उसी तरह इमाम हुसैन भी अपनी हार्दिक इच्छा के बावजूद इस्लाम को बचाने, मुसलमानों की एकता की रक्षा करने और निर्दोषों का ख़ून बहने से रोकने के लिए मुआविया जैसे धूर्त के साथ संधि पर विवश थे। क्योंकि इस संबंध में मुआविया ने जो मार्ग अपनाया था वह उसी चाल की याद दिलाता था जो फ़िरऔन ने महान ईश्वरीय पैग़म्बर हज़रत मूसा अलैहिस्सालम के ख़िलाफ़ चली थी फ़िरऔन यह दर्शाता था कि वह धर्म का मानने वाला है और उसे धर्म में परिवर्तन को लेकर चिंता है जबकि मूसा को इसकी चिंता नहीं है। इस तरह से वह लोगों की नज़रों में सुधार का प्रतीक बन जाता है जबकि मूसा को बुराई और तबाही फैलाने का इच्छुक दिखाया जाता है। मुआविया ने भी यही धूर्ततापूर्ण चाल चली और नौबत यहां तक पहुंचा दी कि वह इमाम हुसैन अलैहिसस्सलाम से कहता था कि आप फ़ितना फैलाना बंद कीजिए। यही कारण था कि इमाम ने एक पत्र के माध्यम से उससे कहा था कि तुम मुझसे कह रहे मैं फ़ितना न फैलाऊं? मेरी नज़र में इन लोगों पर तुम्हारे शासन से बड़ा कोई फ़ितना है ही नहीं।