Jul १७, २०१८ १४:१५ Asia/Kolkata

हमने आपको बताया था कि इस्लामी मूल्यों के विरुद्ध कार्यवाहियां उस समय आरंभ हुईं जब इस्लामी समाज की बागडोर कुछ आत्ममुग्ध शासकों के हाथों में आई।

बड़े खेद की बात है कि इन शासकों के शासनकाल में समाज में ऐसी-ऐसी बुराइयां आ गईं जो अब भी बाक़ी हैं।  इसका एक उदाहरण पथभ्रष्ट पंथ वहाबियत का अस्तित्व है।  इस गुट ने अपनी रूढ़ीवादी विचारधारा के आधार पर एक आतंकवादी गुट के माध्यम से सन 1801 ईसवी में इराक़ पर हमला कर दिया।  इस अतिवादी गुट ने पहले पवित्र नगर करबला का परिवेष्टन किया और फिर एक अन्य पवित्र नगर नजफ़ का रुख़ किया।  नजफ़ नगर में वहाबी आतंकवादियों ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के रौज़े का दर्शन करने वाले चार से पांच हज़ार श्रद्धालुओं की हत्या कर दी।  इस जघन्य कार्यवाही के बाद बहाबी आतंकवादियों ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के रौज़े को नष्ट करने का काम आरंभ किया।  इन आतंकियों ने रौज़े के प्रवेश द्वार को आग लगा दी और रौज़े की मूल्यवान वस्तुओं को लूटा।

हालांकि यह बात 1801 की है किंतु जिस विचारधारा ने यह काम किया था वह विचारधारा आज भी दाइश के रूप में मौजूद है।  दाइश के आतंकवादियों ने कई वर्षों तक पवित्र स्थलों और ऐतिहासिक स्मारकों को नष्ट किया।  दाइश के आतंकवादियों ने बड़ी संख्या में निर्दोष लोगों की हत्याएं कीं।  वहाबी विचारधारा से प्रभावित आतंकवादी, अमरीका तथा अवैध ज़ायोनी शासन की सहायता से इस्लाम को क्षति पहुंचा रहे हैं।  दाइश के इन आतंकवादियों ने सुनियोजित ढंग से इस्लाम को बदनाम किया है और कर रहे हैं।

 

वर्तमान समय और इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के काल का मूलभूत अंतर यह है कि उनके काल के मिथ्याचारियों के विपरीत वर्तमान समय में बहुत से लोग एकजुट होकर इस्लाम विरोधी शक्तियों के विरुद्ध उठ खड़े हुए हैं और डटकर संघर्ष कर रहे हैं।  खेद की बात यह है कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन के काल में इस प्रकार की संभावना नहीं थी।  इस संबन्ध में आपने अपने एक साथी से कहा था कि मक्के और मदीने में हमारे 20 वफ़ादार लोग भी नहीं हैं।

उस काल की परिस्थितियों को देखते हुए इमाम सज्जाद के पास सबसे अच्छा विकल्प, लोगों का प्रशिक्षण और क़ुरआन की शिक्षाओं का प्रचार प्रसार था।  यह इसलिए भी आवश्यक हो गया था क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के स्वर्गवास के बाद, विशेषकर उमवी शासन श्रंखला के दौर में इस्लाम के नाम पर इस्लाम विरोधी गतिविधियां बहुत अधिक हो गई थीं।  शिया मुसलमानों के विख्यात धर्मगुरूओं में से एक, शेख तूसी ने अपनी मश्हूर किताब "रेजाल" में ऐसे 170 लोगों के नाम का उल्लेख किया है जिनका प्रशिक्षण इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने स्वयं किया था।  इन लोगों ने इस्लाम के प्रचार प्रसार में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है।  यहां पर हम इमाम सज्जाद से प्रशिक्षण प्राप्त 170 लोगों में से कुछ का बहुत ही संक्षेप में उल्लेख कर रहे हैं।

इमाम सज्जाद से जिन लोगों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया था उनमें से एक, "अबू हम्ज़ा सुमाली" भी थे।  उनके संबन्ध में इमाम सज्जाद कहते हैं कि अबू हम्ज़ा अपने काल में वैसे ही थे जैसे हज़रत मुहम्मद (स) के काल में सलमान।  अबू हम्ज़ा सुमाली की एक विशेषता यह भी थी कि उन्होंने इमाम ज़ैनुल आबेदीन के अतिरिक्त इमाम मुहम्मद बाक़िर और इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम का काल भी देखा था।  इमाम ज़ैनुल आबेदीन ने एक दुआ का उल्लेख किया है जो सामान्यतः पवित्र रमज़ान में सहर के समय पढ़ी जाती है जिसका नाम है दुआए अबू हम्ज़ा सुमाली।

 

इमाम ज़ैनुल आबेदीन से प्रशिक्षण हासिल करने वालों में से एक अन्य का नाम है, "सईद बिन जुबैर"।  ज्ञान के क्षेत्र में सईद बिन ज़ुबैर को बहुत ख्याति हासिल है।  उनके ज्ञान का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके बारे में यह कहा जाता था कि शायद ही धरती पर कोई एसा व्यक्ति होगा जिसे सईद बिन ज़ुबैर के ज्ञान की आवश्यकता न हो।  सईद बिन ज़ुबैर, ज्ञानी होने के साथ ही बहुत ही वीर एवं साहसी थे।  उनको इमाम सज्जाद का बहुत ही निकटवर्ती माना जाता था।  एक उमवी तानाशाह, "हज्जाज बिन यूसुफ़ सक़फ़ी" को जब यह पता चला कि सईद बिन ज़ुबैर के इमाम ज़ैनुल आबेदीन बहुत ही घनिष्ठ संबन्ध हैं तो उसने आदेश दिया कि सईद बिन ज़ुबैर को दरबार में हाज़िर किया जाए।  जब हज्जाज ने यह देखा कि सईद बिन ज़ुबैर उसके हर सवाल का मुंहतोड़ जवाब दे रहे हैं तो उसने ग़ुस्से में आकर उनकी हत्या का आदेश दिया।  इस प्रकार इमाम सज्जाद के सहाबी सईद बिन ज़ुबैर शहीद कर दिये गए।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन के संघर्ष की एक अन्य रणनीति थी दुआ।  दुआ को मोमिन का हथियार बताया गया है।  इस्लाम की संस्कृति में दुआ को विशेष महत्व प्राप्त है।  जटिल परिस्थितियों में दुआ, आत्मा को बहुत शांति प्रदान करती है।  मनुष्य की नैतिकता के उत्थान में भी दुआ को बहुत अधिक महत्व हासिल है।  इसी प्रकार से दुआ मनुष्य के लिए उस समय रास्ते ढूंढ निकालती है जब विदित रूप से उसके लिए सारे रास्ते बंद हो जाते हैं।  शायद यही कारण है कि इमाम सज्जाद ने अपने काल में इस्लामी शिक्षाओं के प्रसार के लिए दुआ को हथियार के रूप में प्रयोग किया।  उनकी दुआओं के संकलन को "सहीफ़ए सज्जादिया" के नाम से जाना जाता है।

पवित्र क़ुरआन के मश्हूर व्याख्याकार एवं वरिष्ठ धर्मगुरू शेख तनतावी तफ़सीर की अपनी विख्यात किताब "अलजवाहिर" कहते हैं कि जब क़ुम के शिक्षण केन्द्र की ओर से उनके लिए सहीफए सज्जादिया भेजी गई तो उसका अध्धयन करने के बाद शैख़ तनतावी ने लिखा कि मैंने इस किताब को बड़े सम्मान से लिया और उसका अध्धयन किया।  मुझको ऐसा लगा कि मैंने जिस किताब को पढ़ा है उस जैसी किताब तत्वदर्शिता और ज्ञान के क्षेत्र में नहीं के बराबर है।  वे लिखते हैं कि यह हमारा दुर्भाग्य ही कहिए कि सहीफए सज्जादिया जैसी महान पुस्तक से अबतक हम वंचित रहे।  मैंने इस किताब का जितना भी अध्ययन किया तो पाया कि वास्तव में यह एक अद्वितीय पुस्तक है।

सहीफ़ए सज्जादिया के महत्व को इस बात से भी समझा जा सकता है कि अब तक इस किताब की 70 से अधिक व्याख्याएं की जा चुकी हैं।  संसार की लगभग सभी चर्चित भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है।  इस्लामी समाज में पवित्र क़ुरआन और नहजुल बलाग़ा के बाद सहीफ़ए सज्जादिया को बहुत ही मान-सम्मान प्राप्त है।  स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी ने इसे "ज़बूरे आले मुहम्मद" का नाम दिया है।  कुछ विद्वान इसे "इंजीले अहले बैत" के नाम से जानते हैं।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन की दुआओं के संकलन सहीफ़ए सज्जादिया की एक अन्य विशेषता यह है कि यह मनुष्य के भीतर ईश्वर की आस्था को अधिक गहराई तक ले जाती है।  ईश्वर तथा सृष्टि के बीच यह बहुत अच्छे पुल की भांति है।  इस किताब की अहम दुआओं में से एक वह दुआ जिसपर नैतिक शास्त्र के ज्ञाता अधिक ध्यान देते हैं इस किताब की बीसवीं दुआ है।  यह दुआ "मकारेमुल अख़लाक़" के नाम से मश्हूर है।  विद्वानों ने इस इस दुआ की बहुत अधिक व्याख्याएं की हैं।

मकारेमुल अख़लाक नामक दुआ का आरंभ इस प्रकार से होता है कि हे ईश्वरः मुहम्मद व आले मुहम्मद पर सलाम भेज।  मेरे ईमान को अत्यधिक मज़बूत कर दे।  मेरे विश्वास को सुदृढ कर।  मेरी नीयत और अच्छी नीयत और मेरे ज्ञान को व्यवहार के परिधान में ढाल दे।  इस दुआ की विशेषता यह है कि इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम, ईश्वर से बेहरतीन ईमान, विश्वास, नियत और व्यवहार की दुआ करते हैं।  इस प्रकार से वे लोगों को यह समझाना चाहते हैं कि तुम सफलता के शिखर पर नज़र रखो और उसी के मार्ग की ओर बढ़ो।  ठीक उसी प्रकार से बढ़ो जिस प्रकार से पर्वतारोही, पर्वत की चोटी तक पहुंचने का प्रयास करता है।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने अपने पीछे जो मूल्यवान धरोहरें छोड़ी हैं उनमें से एक पुस्तक, "रेसालए हुक़ूक़" है।  इसकी स्पष्ट विशेषता यह है कि इसमें आपने ईश्वर और बंदों के बीच के अधिकारों का व्याख्या के साथ ही उन अधिकारों का भी उल्लेख किया है जो हर मनुष्य पर समाज, परिवार, शिक्षा, अर्थव्यवस्था और जीवन के अन्य क्षेत्रों पर अनिवार्य हैं।

इन विषयों के अतिरिक्त चौथे इमाम ने मनुष्य के शरीर के अंगों के प्रति उसके अधिकारों का भी उल्लेख किया है जैसे ज़बान, कान, आंख, हांथ और पैर आदि।  अधिकार की बहुत सी पुस्तकों में इनका इस प्रकार से वर्णन नहीं किया गया है।  इमाम सज्जाद की उपाधियों में से एक, सैयदुस्साजेदीन अर्थात सजदा करने वालों के सरदार और एक अन्य ज़ैनुलआबेदीन अर्थात उपासकों के श्रंगाट है।  इसका मूल कारण यह है कि उनके काल में आपकी उपासना के बारे में सारे लोग जानते थे इसीलिए वे उनको इन उपाधियों से पुकारा करते थे।  सहीफ़ए सज्जादिया में इमाम सज्जाद ने जिन दुआओं का उल्लेख किया है उसके अतिरिक्त भी आपकी कुछ अन्य धरोहरें भी हैं जैसे "पंद्रह दुआए"।  यह दुआओ का ऐसा संकलन है जिसमें अध्यात्म को अधिक प्रदर्शित किया गया है जिसके माध्यम से मनुष्य अपनी आत्मा पर लगे ज़ंग को सरलता से हटा सकता है।