Apr ०५, २०१६ १६:१६ Asia/Kolkata

इस्लामी देशों की कुछ तानाशाही सरकारें ईरान की इस्लामी क्रांति के प्रभावों के फैलने से चिंतित थीं इसीलिए उन्होंने इसके प्रभाव को रोकने व सीमित करने का यथासंभव प्रयास किया।

 इसी परिप्रेक्ष्य में शीयों से डराने और शीयों से शत्रुता व उनके विरुद्ध दुष्प्रचार को मज़बूत करने के लिए सलफी धड़ों को मज़बूत किया गया। सलफी गुटों के सक्रिय होने का दूसरा कारण अमेरिका द्वारा पूर्व सोवियत संघ का मुकाबला करने के लिए इस गुट का हथकंडे के रूप में प्रयोग था। पूर्व सोवियत संघ ने 1980 के दशक के आरंभ में अफ़ग़ानिस्तान का अतिग्रहण कर लिया था। पश्चिम का कहना था कि पूर्व सोवियत संघ ने भारतीय उपमहाद्वीप और मध्यपूर्व में कम्युनिस्ट विचार धारा फैलाने के लिए अफग़ानिस्तान का अतिग्रहण किया है।



इस मध्य अमेरिका ने अपने सामने दो चुनौतियां देखीं एक ओर ईरान की इस्लामी क्रांति की सफलता थी जिसने मध्यपूर्व में उसके प्रभाव और शक्ति के समक्ष चुनौती खड़ी कर दी थी और दूसरी ओर अफ़ग़ानिस्तान पर रूस के अतिग्रहण से दक्षिण एशिया में शक्ति का समीकरण परिवर्तित हो गया था। यह स्थिति थी जिसमें सलफी गुटों ने अरब देशों में सैनिक तैयार करना शुरु कर दिया ताकि उन्हें पूर्व सोवियत संघ के सैनिकों से लड़ने के लिए अफ़ग़ानिस्तान भेजा जा सके। यहां पर अमेरिका ने चालाकी यह की कि इस लड़ाई में उसने अपने एक भी सैनिक को शामिल नहीं किया और अरब, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के जो व्यक्ति पूर्व सोवियत संघ की सेना से लड़ने के लिए गये थे उन्हें हर प्रकार के हथियारों से लैस किया और इस तरह उसने दक्षिण एशिया और भारतीय उपमहाद्वीप में पूर्व सोवियत संघ से मुकाबला किया किन्तु जब अफग़ानिस्तान का अतिग्रहण समाप्त हो गया तो अमेरिका और अरब देशों ने सलफी गुटों का हथकंडे के रूप में प्रयोग को समाप्त नहीं किया। यह बहस किसी दूसरे समय करेंगे कि अलक़ायदा का गठन कैसे हुआ। यहां हम विभिन्न सलफ़ी गुटों की क़िसभों की ओर संकेत करेंगे। कुछ मत व लोग सलफीवाद को इतना विस्तृत सोचते हैं कि समस्त सुन्नी मुसलमान भी उसमें शामिल हो जाते हैं और उसका संबंध इस्लाम के उदयकाल से बताते हैं और हर अतिवादी विचार रखने वाले को सलफी समझते हैं जबकि कुछ अन्य, सलफीवाद और वहाबियत को समान समझते हैं और सलफीवाद को वही वहाबियत कहते हैं। इसी प्रकार वर्तमान समय में पश्चिम, अपने विरोधी धड़ों को भी सलफी कहता है और वह अपने विरोधी दूसरे इस्लामी गुटों व लोगों को सलफी एवं रूढ़िवादी बताने के प्रयास में है। इस प्रकार से वह इस्लाम धर्म की छवि बिगाड़ कर पेश करना चाहता है और वह इस्लाम धर्म को पश्चिमी जगत में हिंसाप्रेमी एवं रूढ़िवादी धर्म के रूप में पेश करने की चेष्टा में है। इसी चीज़ को बहाना बनाकर वह पश्चिम में मुसलमान के विरुद्ध प्रतिबंधों का औचित्य दर्शाने और अपनी शत्रुतापूर्ण कार्यवाहियों को मानवाधिकार और डेमोक्रसी जैसे लोक लुभावन नारों के अंतर्गत वैध बताने का प्रयास कर रहा है।


इस प्रकार की स्थिति कारण बनी है कि सलफी, सलफीवाद कहने और उसके लिए किसी विशेष मापदंड को दृष्टि में नहीं रखा गया है और पश्चिम की हां में हां मिलाने वाले और स्वयं सलफी बहुत से ग़ैर इस्लामी गुटों को भी सलफी इस्लामी गुटों में शामिल करने का प्रयास कर रहे हैं और इस समय के नये सलफी भी परिस्थिति का लाभ उठा रहे हैं और शीया मुसलमानों को अपना संयुक्त दुश्मन बताकर अपने मध्य बुनियादी मतभेदों पर पर्दा डालना चाहते हैं और इसी प्रकार वे अपने और अपने विरोधियों के मध्य शीया मुसलमानों के मुकाबले में एक प्रकार की समरसता व संयुक्त मोर्चा उत्पन्न करना चाहते हैं जबकि सलफीवाद का जो आधार बताया गया उसके दृष्टिगत सलफी न केवल शीयों के विरोधी हैं बल्कि समस्त इस्लामी सम्प्रदायों के विरोधी हैं और वह केवल शीयों से मुकाबले के लिए दूसरे इस्लामी संप्रदायों का प्रयोग एक हथकंडे के रूप में कर रहे हैं। यह ऐसी स्थिति में है कि जब न केवल सलफियों और सुन्नी मुसलमानों के मध्य आधारभूत मतभेद हैं बल्कि स्वयं सलफियों के मध्य आधारभूत मतभेद व विरोधाभास पाये जाते हैं। यही विषय स्वयं सलफियों के मध्य विभिन्न गुटों व धड़ों के अस्तित्व में आने का कारण बना है। इन गुटों व धड़ों के साथ सही व्यवहार के लिए उनकी पहचान आवश्यक है। इसी तरह इस पहचान से वहाबी और उसके अंदर दूसरे गुटों को पहचाने में सहायता मिलेगी। अलबत्ता यहां पर जो प्रकार बताये जा जायेंगे वह सलफीवाद के हर गुट की सूक्ष्म परिभाषा नहीं है सलफियों के बहुत से गुटों की आस्थाएं एक समान हैं और यही विषय उनके एक दूसरे में गडमड हो जाने का कारण बना है। यहां पर हर सलफी गुट की विशेष विशेषता को उसके मध्य बटवारे का मापदंड क़रार दिया गया है ताकि आज के सलफीवाद का पारदर्शी विश्लेषण किया जा सके और सलफियों के मध्य वहाबियों का स्थान स्पष्ट हो सके।




सलफियों के मध्य मतभेद का एक कारण कुछ आधारों व स्रोतों के बारे में मतभेद है जो उनके मध्य मौजूद है। उदाहरण स्वरूप वहाबी हदीस का प्रयोग एक स्रोत के रूप में करते और उस पर बहुत बल देते हैं जबकि अहले क़ुरआन हदीस पर कोई विशेष ध्यान नहीं देते हैं और सीधे रूप से कुरआन का सहारा लेते हैं और वहाबी सूफीवाद के मुखर विरोधी हैं जबकि देवबंदी दो चीज़ों एक सूफीवाद और दूसरे शरीयत पर कटिबद्धता पर बल देते हैं।



कभी ऐसा भी होता है कि सलफियों के दो गुट आस्था यहां तक कि राजनीतिक दृष्टिकोणों में समान दृष्टिकोण रखते हैं परंतु लक्ष्य तक पहुंचने के लिए उनकी शैलियां एक दूसरे से भिन्न होती हैं। उदाहरण स्वरूप “जमइते ओलमाये इस्लाम” नामक सलफी गुट देवबंद के सिद्धांतों का अनुसरण करता है और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए वह राजनीतिक एवं डेमोक्रेटिक मार्गों का सहारा लेता है और वह राजनीति के मैदान में सक्रिय उपस्थिति के लिए प्रयास करता है जबकि सिपाहे सहाबा जैसे दूसरे सलफी गुट अपने लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए हिंसा व हत्या का मार्ग अपनाते हैं या वहाबियों के नये गुट अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रचार की शैलियों का प्रयोग करता है जबकि अतिवादी सलफी गुटों ने हिंसा व हत्या का मार्ग अपना लिया है। इन मतभेदों व अंतरों के दृष्टिगत सलफियों को कई गुटों में बांटा जा सकता है। सलफियों की पहली किस्म तकफीरी सलफी हैं जिनकी यहां समीक्षा की जायेगी। तकफीरी सलफी उन सलफियों को कहते हैं जो अपने विरोधियों को काफिर कहते हैं। उनकी आस्था के अनुसार ईमान के साथ अमल आवश्यक है इस अर्थ में कि अगर कोई ईश्वर पर ईमान रखता है और उससे पाप हो जाता है तो अधर्मी हो जाता है और वह धर्म से निकल जाता है और उसे काफिर समझा जाता है इस प्रकार की आस्था केवल ख़वारिज नामक गुट रखता था। ख़वारिज ईमान के लिए अमल को आवश्यक मानता था और महापाप करने वाले व्यक्ति को वह अधर्मी समझता और उसकी हत्या को न केवल वैध बल्कि अनिवार्य समझता था। इसी कारण वह मुसलमानों के मुकाबले में खड़ा हो गया और गलत व आधारहीन बहानों से उनकी हत्या कर दी। यहां तक कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम को इस बहाने से शहीद कर दिया जबकि उन्होंने स्वयं ख़वारिज द्वारा आग्रह करने पर फ़ैसला करनो को स्वीकार किया था।



उन धर्मभ्रष्ट लोगों की दृष्टि में हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने महापाप किया था। तकफीरी सलफी भी इस प्रकार का विचार व आस्था रखते हैं। इस प्रकार का दृष्टिकोण इस बात का कारण बना है कि अपने धार्मिक कार्यों को अंजाम देने के कारण सलफी उन्हें अनेकेश्वरवादी और उनकी हत्या को वैध समझते हैं। यह गुट भी ख़वारिज की भांति मुसलमानों को उनके जैसा न सोचने के कारण काफिर समझता है। तकफीरी सलफीवाद की महत्वपूर्ण क़िस्म वहाबियत है। वहाबियों ने समस्त लड़ाइयां मुसलमानों से की हैं। वहाबी जिस नगर पर नियंत्रण करते थे वहां के लोगों का खून बहाते थे और जहां तक उनसे संभव हो सकता था लूट- खसोट करते थे। वहाबी लेखक सलाहुद्दीन मुख्तार अपनी किताब “तारीखुल ममलकतिस्सउदीया” के तीसरे खंड में लिखता है वर्ष 1216 हिजरी क़मरी में अमीर सऊद बहुत अधिक सेना के साथ जिसमें नज्द, दक्षिणी हेजाज और तहामेह के क़बीले और दूसरे क्षेत्र के लोग शामिल थे, इराक़ की ओर रवाना हुआ। वह ज़ीक़ादा महीने में कर्बला पहुंचा और उस स्थान का घेराव कर लिया। उसके सिपाहियों ने नगर को बर्बाद कर दिया और शक्ति के बल पर उसमें घुस गये और अधिकांश लोगों की जो गली, रोड, बाज़ार और घर में थे, हत्या कर दी। उसके बाद दोपहर के निकट काफी धन- सम्पत्ति के साथ नगर से निकल गये। वहाबियों ने ज़ियारत व दर्शन करने पर आस्था रखने के कारण न केवल बहुत से शीया मुसलमानों के कर्बला में सिर क़लम कर दिया बल्कि नज्द ,हिजाज़ और सीरिया में सुन्नी मुसलमानों के विरुद्ध भी जघन्य अपराध किया। अलबत्ता तकफीरी वहाबियों का संबंध केवल अतीत से नहीं है बल्कि आज भी वह शीया और सुन्नी मुसलमानों को काफिर समझता है।

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