इस्लामी क्रांति और समाज- 2
संसार की अन्य क्रांतियों की तुलना में ईरान की इस्लामी क्रांति की एक विशेषता उसका भू-राजनैतिक होना है।
ईरान मध्यपूर्व व पश्चिम एशिया में स्थित है। ईरान की इस्लामी क्रांति से पहले इस क्षेत्र में कभी कोई क्रांति नहीं आई थी। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि ईरान की इस्लामी क्रांति, मध्यपूर्व क्षेत्र की पहली क्रांति थी। यह एसा क्षेत्र है जहां पर विदेशियों का अधिक प्रभाव है। भू-राजनैतिक होने का एक बिंदु यह है कि मध्यपूर्व में इस्लामी क्रांति एक एसे देश में आई जो संसार में तेल और गैस के बड़े निर्यातकों में से एक था। गैस और तेल का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर अपना अलग प्रभाव है। ईरान में तेल और गैस की मौजूदगी के ही कारण बड़ी शक्तियों की ईरान पर नज़र है।
यह कहा जा सकता है कि 28 मुरदारद 1332 के विद्रोह, 1329 को तेल के राष्ट्रीय करण तथा ईरान में तेल से ब्रिटेन की भूमिका के समाप्त होने का यह एक महत्वपूर्ण कारक रहा है। इसके अतिरिक्त सन 1970 के दशक में तेल के मूल्यों में वृद्धि ने तत्कालीन अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित किया था। ईरान की इस्लामी क्रांति पुनः तेल के मूल्यों को बढ़ा सकती थी जिसका विश्व की अर्थव्यवस्था में विशेष महत्व है। यह विषय जहां एक ओर ईरान की भू-राजनीति को प्रदर्शित करता है वहीं पर यह भी बताता है कि औद्योगिक देशों को ऊर्जा की आपूर्ति के कारण ईरान की तत्कालीन राजशाही व्यवस्था को बड़ी शक्तियों का विशेष समर्थन प्राप्त था। विशेष बात यह है कि एसी परिस्थितियों में ईरान में इस्लामी क्रांति का आना वास्तव में महत्वपूर्ण है।
संसार की अन्य क्रांतियों की तुलना में ईरान की इस्लामी क्रांति को इसलिए भी विशिष्टता प्राप्त है कि यह संसार की पहली धार्मिक क्रांति थी। इस क्रांति ने ईरान में धर्म को जीवित करने के साथ ही साथ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित किया। ईरान की इस्लामी क्रांति के आगमन से पहले भी संसार के विभिन्न क्षेत्रों में इस्लामी आन्दोलन आरंभ हुए जिन्होंने तानाशाही और वर्चस्ववाद से मुक्ति के लिए आवाज़ भी उठाई। इन आन्दोलनों का या तो दमन कर दिया गया या वे दम तोड़ गए। इसका मुख्य कारण यह है कि हर वह आन्दोलन जो सशक्त आईडियालोजी का स्वामी हो और लोगों को अपने साथ एकजुट कर सके वह सफल हो सकता है।
ईरान की इस्लामी क्रांति ने धार्मिक मूल्यों के साथ अपनी उपयोगिता को सिद्ध कर दिया था। यही कारण है कि यह एक वास्तविक क्रांति के रूप में ईरान में प्रकट हुई। इस्लामी क्रांति ने ईरान के भीतर राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आधारों को ही बदल कर रख दिया। ईरान की इस्लामी क्रांति के बारे में शहीद उस्ताद मुतह्हरी कहते हैं कि यह ईश्वरीय दूतों के आन्दोलनों की ही एक शाखा है। वे कहते हैं कि यह इस्लाम के उदयकाल की क्रांति जैसा है। अपनी एक किताब "पीरामूने इन्क़ेलाबे इस्लामी" में शहीद मुतह्हरी लिखते हैं कि इस्लाम के आरंभिक काल की इस्लामी क्रांति जहां धार्मिक क्रांति थी वहीं पर वह राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक क्रांति भी थी। इसमें आज़ादी, भेदभाव से दूरी, समाज में समानता और न्याय की स्थापना जैसी बातें थीं। उन सभी बातों में से जिनकी ओर हमने संकेत किया कोई भी इस्लाम से अलग नहीं है। इस क्रांति की एक विशेषता यह रही कि वह न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक क्रांति थी बल्कि इसने राजनीति को भी अपने साथ रखा। उदाहरण के लिए इस क्रांति में जहां पर आध्यात्म की बात कही गई है वहीं पर स्वतंत्रता की भी मांग दिखाई देती है।
बहुत से लेखकों ने लिखा है कि संसार की अन्य क्रांतियों की तुलना में ईरान की इस्लामी क्रांति की एक विशिष्टता, उसका धार्मिक होना रहा है। "जलाल दरख़शे" का कहना है कि ईरान की इस्लामी क्रांति, फ़्रांस और रूस की महाक्रांतियों के बिल्कुल विपरीत थी क्योंकि उन क्रांतियों में धर्म और राजनीति को अलग किया गया था जबकि ईरान की इस्लामी क्रांति में धर्म को आधार बनाय गया। बाद में इसी धर्म ने ईरान की इस्लामी क्रांति को सफलता दिलाने में प्रमुख भूमिका निभाई।
"नेकीकेडी" का मानना है कि ईरान की जनता ने अपने समाज से उस पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से देश में परिवर्तन के लिए क़दम उठाया क्योंकि यह संस्कृति उनपर थोपी गई थी। वे चाहते थे कि उनके देश में इस्लामी शिक्षाओं के आधार पर नई व्यवस्था बने। ईरान में शताब्दियों से इस्लाम का बोलबाला था और वहां पर धर्म की जड़ें बहुत ही गहरी थीं एसे में उस विचारधारा का प्रचार जो धर्म को समाज से अलग करती हो, कभी सफल नहीं हो सकती थी। इसी अधर्मी सोच के मुक़ाबले में इस्लामी क्रांति ने यह प्रयास किया कि धर्म को हर क्षेत्र में जीवित करके देश को धार्मिक पहचान दी जाए।
इसमें कोई शक नहीं है कि ईरान की इस्लामी क्रांति में राजनीति और अर्थनीति की भूमिका है किंतु बहुत से विचारकों का यह मानना है कि वह चीज़ जो लोगों को सड़को पर लाई और जिसके कारण लोगों ने अपनी जान हथेली पर रखकर तत्कालीन राजशाही व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष किया वह थी इस्लामी शिक्षाएं और धार्मिक मूल्य।
इसके अतिरिक्त इस क्रांति ने वास्तव में संसार में धर्म के आदर्श को पेश किया। उदाहरण स्वरूप "एमिल डोरकेम" तथा "मैक्स" के दृष्टिकोणों के अनुसार जब बुद्धिमानी का चलन होता है तो धर्म, समाज में एक किनारे पहुंच जाता है। ऐसे में बुद्धिमानी, उसका स्थान ले लेती है। ईरान की इस्लामी क्रांति की सफलता से इस दृष्टिकोण को कड़ी चुनौती मिली क्योंकि यह क्रांति पूर्ण रूस से धार्मिक शिक्षाओं पर आधारित थी। ईरान की इस्लामी क्रांति ने यह सिद्ध कर दिया कि संसार के राष्ट्र केवल सेक्यूलर बनने के मार्ग में ही क़दम आगे नहीं बढ़ाते बल्कि एसा भी देखा गया है कि कुछ देशों ने पहले सेक्यूलर होने के लिए क़दम आगे बढ़ाए और बाद में वे धर्म की ओर उन्मुख हुए। इस हिसाब से कहा जा सकता है कि इस्लामी क्रांति, मार्कस्वादी विचारधारा को कंडम करती है। मार्कस्वाद के अनुसार धर्म, अफ़ीम है और शासक वर्ग इसको समाज के निचले वर्ग पर अपना वर्चस्व बनाने के लिए प्रयोग करता है।
इस प्रकार पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि संसार की अन्य क्रांतियों के मुक़ाबले में ईरान की इस्लामी क्रांति की विशिष्टता, उसका धार्मिक शिक्षाओं पर आधारित होना था। इसने समाज को धर्म की ओर बढ़ाया। यह क्रांति एसे समय में आई थी जब बहुत से क्षेत्रों में धर्म कमज़ोर हो चुका था या फिर उसे जाबूझकर कमज़ोर किया जा रहा था। कहीं-कहीं पर तो धर्म को बिल्कुल ही समाप्त करने की कोशिशें हो रही थीं। ईरान की इस्लामी क्रांति जहां जनता पर जनता के शासन की पक्षधर है वहीं वह पूरी सृष्टि पर ईश्वर की सत्ता पर भी पूर्ण विश्वास रखती है।
संसार की अन्य क्रांतियों की तुलना में ईरान की इस्लामी क्रांति की एक अन्य विशेषता तत्कालीन आर्थिक व सैन्य परिस्थितियां हैं। यह क्रांति एक एसे देश में आई जो आर्थिक एवं सैन्य शक्ति की दृष्टि से बहुत ही मज़बूत था। पश्चिम और संयुक्त राज्य अमरीका उसको क्षेत्र के रख़वाले के नाम से जानते थे। तेल के मूल्यों में एकदम से हुई वृद्धि के कारण तत्कालीन पहलवी सरकार आर्थिक दृष्टि से बहुत मज़बूत थी। उसने पश्चिम से अत्याधुनिक हथियार ख़रीदकर स्वयं को अधिक से अधिक सशक्त बनाने की कोशिश की थी। तत्कालीन शासन ने न केवल देश के भीतर बल्कि देश के बाहर भी स्वयं को शक्तिशाली प्रदर्शित करने के प्रयास किये थे जिसका उदाहरण ओमान था। ओमान के शासक सुल्तान क़ाबूस के अनुरोध पर इस देश के दक्षिणपंथी प्रथकतावादियों से निबटने के लिए पहलवी शासन के सैनिकों ने "ज़फ़्फ़ार" नामक स्थान पर पहुंचकर प्रथकतावादियों का मुक़ाबला किया था। पहलवी शासन के पास चार लाख से अधिक सैनिक थे। उस समय वह मध्यपूर्व की सबसे बड़ी सेना थी। विशेष बात यह है कि एसी शक्ति के मुक़ाबले में इस्लामी क्रांति सफल हुई थी।
यहां पर यह बात उल्लेखनीय है कि जब फ़्रांस और रूस में महाक्रांतियां आई तो आर्थिक दृष्टि से यह देश कंगाली की कगार पर पहुंच चुके थे। दूसरी ओर सैन्य दृष्टि से भी वे बहुत कमज़ोर हो चुके थे क्योंकि उनको युद्धों में लगातार पराजय का स्वाद चखना पड़ा था। सन 1789 में फ़्रांस की सरकार देश की जनता के लिए खाद्ध पदार्थ उपलब्ध कराने में भी सक्षम नहीं रह गई थी और रूस की तत्कालीन सरकार भी प्रथम विश्व युद्ध के कारण समस्याओं में घिर चुका था और वह राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से अस्थिरता का शिकार बन चुकी थी।