इस्लामी क्रांति और समाज- 6
जैसाकि हम पिछले कार्यक्रम में बता चुके हैं कि ईरान की इस्लामी क्रांति ने राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने महत्वपूर्ण प्रभाव छोड़े हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके प्रभाव केवल परिवर्तनों तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि इसने क्रांतियों के बारे में प्रचलित वैश्विक दृष्टिकोणों को भी बहुत प्रभावित किया है। ईरान की इस्लामी क्रांति ने कुछ अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोणों को बदलने में भी अपनी भूमिका निभाई है।
हम यह भी बता चुके हैं कि फ़रवरी सन 1979 में ईरान में आने वाली इस्लामी क्रांति ने जहां 2500 वर्ष पुरानी अत्याचारी राजशाही व्यवस्था को समाप्त कर दिया वहीं क्रांतियों के संदर्भ में प्रस्तुत किये जाने वाले दृष्टिकोणों को भी बदला है।
ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता से पहले क्रांतियों के आने के बारे में जो दृष्टिकोण पेश किये जाते थे उनमें अधिकतर आर्थिक, मनोवैज्ञानिक या व्यवस्था के ढांचे पर आधारित होते थे। इन सभी दृष्टिकोणों में क्रांति के आने में धर्म की भूमिका का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है। इन दृष्टिकोणों में यह भी बताया गया है कि तीसरी दुनिया के देशों में भी धर्म, समाज से अलग हो जाएगा। एसे सभी दृष्टिकोणों के बावजूद 70 के दशक की इस्लामी क्रांति ने क्रांति में धर्म की भूमिका को पूर्ण रूप से स्पषट किया।
ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता ने मज़बूत धार्मिक आधार पर वास्तव में उन पश्चिमी विचारकों की विचारधाराओं को रद्द कर दिया जो धर्म में राजनीति के विरोधी हैं। इन विचारधाराओं को दो मुख्य भागों में बांटा गया है मार्कस्वाद और नवीनीकरण। नवीनीकरण की विचारधारा पेश करने वालों का यह प्रयास है कि वे इस बात को सिद्ध करें कि अंततः परंपराएं और पुरानी चीज़ें समाप्त होकर अपना स्थान नवीनीकरण को देदेंगी जिसमें धर्म भी आता है। अर्थात एक दिन धर्म समाप्त हो जाएगा। इस विचारधारा के अनुसार यदि किसी कारणवश धर्म बाक़ी भी रह जाए तो वह एक व्यक्तिगत मुद्दा बनकर रह जाएगा। वे मानते हैं कि संसार के देश नवीनीकरण की ओर बढ़ेंगे। एसी विचारधारा के अनुसार परंपराओं और नवीनीकरण के बीच खुला टकराव पाया जाता है। एसे में जब नवीनीकरण हर ओर छा जाएगा तो स्वभाविक रूप में धर्म का अंत हो जाएगा। उनका मानना है कि एसी प्रक्रिया पश्चिमी समाजों में आरंभ हो चुकी है जिसके परिणाम स्वरूप क्रांतिकारी परिवर्तित हुए। यही प्रक्रिया बाद में तीसरी दुनिया के देशों में भी आरंभ होगी।
इस प्रकार की विचारधारा रखने वालों में से एक "डैनियल लरनर" थे जिन्होंने ईरान, तुर्की, लेबनान, सीरिया, मिस्र और जार्डन जैसे छह देशों के संबन्ध में नवीनीकरण या आधुनिकीकरण की समीक्षा की है। उनका यह मानना है कि इन देशों में जागरूकता, शहरीकरण और शिक्षा के विस्तार से आधुनिकीकरण होगा और धर्म जैसी पारंपरिक चीज़ समाज में एक किनारे लग जाएगी। एसे में धर्म बिल्कुल ही निजी होकर रह जाएगा और राजनीति में इसका कोई स्थान नहीं होगा। लरनर के अनुसार धर्म, देशों के विकास की सबसे बड़ी बाधा है जिसके परिणाम स्वरूप समाज नवीनीकरण से प्रभावित होंगे जिसके कारण सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र विकास की ओर बढ़ेंगे। बाद में पश्चिमी लोकतंत्र के छा जाने के कारण धर्म और धार्मिक मूल्य प्रभावहीन होते चले जाएंगे।
इस प्रकार की विचारधारा, 19वीं शताब्दी के विकासवादी दृष्टिकोण से प्रभावित रही है। यह सोच 1950 और 1960 के व्यवहारिकतावाद को भी दर्शाती है जिसके समर्थक रोस्तो, अल्मोंड और कुछ अन्य विचारक रहे हैं। हालांकि डैनियल लरनर ने जिन देशों के बारे में नवीनीकरण या आधुनिकीकरण की समीक्षा वहां पर तो उनकी बात ग़लत सिद्ध हुई। ईरान में एक धार्मिक नेता के नेतृत्व में इस्लामी क्रांति सफल हुई। तुर्की में इस्लामवादी पूर्ण बहुमत से सत्ता में पहुंचे। मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय है और लेबनान में भी इस्लाम का बोलबाला है। इस प्रकार उन देशों में धर्म और राजनीति में अलगाव पर दृष्टिकोण पूरी तरह से ग़लत सिद्ध हुआ जिनके बारे में डेनियल लरनर का कहना था कि इन देशों में धर्म, समाज में एक किनारे लग जाएगा।
एक और ग्रुप उन विचारकों का है जो धर्म के लिए रूढ़ीवादी भूमिका के पक्षधर हैं। यह गुट इसे सरकार को नियंत्रित करने के हथकण्डे के रूप में देखते हैं। मार्क्सवादी मानते हैं कि धर्म, शासक वर्ग का एक हथकण्डा है जिसे वे जब चाहते हैं प्रयोग करते हैं। वे धर्म के लिए किसी भी प्रकार की क्रांतिकारी भूमिका के पक्षधर नहीं हैं। उनके हिसाब से धर्म, समाज में एक किनारे की चीज़ है। हालांकि ईरान में एक धर्मगुरू के नेतृत्व में इस्लामी क्रांति की सफलता ने इस दृष्टिकोण को रद्द कर दिया। यही कारण था कि मार्कस्वादियों ने ईरान की इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद यह कहना आरंभ कर दिया कि क्रांति, आर्थिक कारणों से आई थी न कि धर्म के आधार पर। इस प्रकार वे इस क्रांति को ग़ैर मज़हबी क्रांति दर्शाना चाहते थे जिसमें उनको विफलता मिली।
जिन लोगों ने क्रांतियों के आने में धर्म की भूमिका का अध्ययन किया है उन्होंने क्रांतियों के लिए धर्म की तीन भूमिकाएं बताई हैं। पहली भूमिका तो यह है कि धर्म क्रांति के दौरान जनता की भागीदारी को बढ़ाता है। दूसरा यह कि बुरी स्थिति के विरुद्ध अप्रसन्नता प्रकट करने में भी इसकी भूमिका है। तीसरी बात यह है कि क्रांति के बाद की परिस्थिति में धर्म, राष्ट्रीय पहचान को बचाए रखने में सहायक होता है। विशेष बात यह है कि ईरान की इस्लामी क्रांति के आने और उसकी सफलता के बाद उसे सुरक्षित रखने में धर्म की तीनों स्थितियों को देखा जा सकता है।
धर्म न केवल ईरान में अत्याचारी राजशाही व्यवसथा के विरुद्ध लोगों को एकजुट करने का प्रमुख कारण रहा बल्कि अत्याचारी सरकार से असंतुष्ट लोगों को एकसाथ करने में धर्मगुरूओं की बहुत अहम भूमिका रही है। हालांकि ईरान की इस्लामी क्रांति में इस देश के समाज के विभिन्न वर्ग, सम्मिलित रहे हैं किंतु विशेष बात यह है कि पहलवी शासन के विरोध के दो केन्द्र रहे हैं एक मस्जिद और दूसरा मदरसा। इन दोनों क्षेत्रों का नेतृत्व धर्मगुरूओं के हाथों में था। इसी के साथ इस्लामी क्रांति के दौरान जनता को एकजुट बनाने में धार्मिक नारों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। इन नारों में न्याय की मांग, वर्चस्व का विरोध, इस्लाम की मांग, मानवीय मूल्यों का समर्थन, अत्याचार ग्रस्तों का समर्थन और स्वतंत्रता की मांग आदि का उल्लेख किया जा सकता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि पहलवी शासन के विरुद्ध असंतोष को विस्तृत करने में धर्मगुरूओं ने प्रभावी भूमिका निभाई जिसके परिणाम स्वरूप ईरान में फ़रवरी सन 1979 में इस्लामी क्रांति सफल हुई।
इस्लामी क्रांति की सफतला के बाद इसकी प्रगति में भी धर्म, महत्वपूर्ण कारक रहा है। धर्म और धार्मिक कार्यक्रमों ने भी जनता को एकजुट करने में बहुत सार्थक काम किया जैसे मुहर्रम की मजलिसें और जुलूस। ईरान की इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद इस्लामी क्रांति के शत्रुओं विशेषकर अमरीका ने इस क्रांति को विफल बनाने के उद्देश्य से बहुत से षडयंत्र रचे किंतु ईरान की जनता ने ईश्वर पर भरोसे के सहारे सभी षडयंत्रों को विफल बना दिया।
इस्लामी क्रांति के बाद ईरान का प्रयास रहा कि वह क्षेत्र में वैज्ञानिक दृष्टि से आगे रहे वैज्ञानिक क्षेत्र में आगे बढ़ता रहे। इस संदर्भ में ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि ज्ञान के क्षेत्र में एसा न हो कि हम पश्चिम के पिछलग्गू बन जाएं। परमाणु तकनीक, नैनो तकनीक, स्टेम सेल्स, चिकित्सा और अन्य क्षेत्रों में ईरान ने एसी स्थिति में प्रगति की है कि जब उसपर प्रतिबंध लगे हुए हैं। प्रतिबंधों के बावजूद ईश्वर पर गहरी आस्था और पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं से लाभ उठाते हुए ईरानी युवाओं ने उल्लेखनीय प्रगति की है।
ईरान में इस्लामी क्रांति की सफतला के बाद से धर्म, समाज में जनता के संबन्धों को मज़बूत करने का भी कारक रहा है। आशूरा, अरबईन और जुमे की नमाज़ जैसे आयोजन भी जनता के एकजुट होने और आस्था के मज़बूत होने का कारण रहे हैं। यह विषय राष्ट्रीय एकता को भी बढ़ावा दे रहा है। ईरान के लोग इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद जहां भौतिक क्षेत्र में विकास की ओर अग्रसर हैं वहीं वे आध्यात्मिक जीवन और परलोक को भी अनदेखा नहीं करते हैं।