Oct १६, २०१८ १६:४० Asia/Kolkata

सन 148 हिजरी क़मरी के ज़ीक़ादा महीने की 11 तारीख़ को आठवें इमाम का जन्म, पवित्र नगर मदीना में हुआ था। 

आपका नाम अली था।  आपको रज़ा की उपाधि दी गई थी।  अपने पिता, इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद लगभग 35 वर्ष की आयु में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने इमामत जैसा अति संवेदनशील काम की ज़िम्मेदारी अपने कांधों पर ली।  हालांकि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम पवित्र नगर मदीना में रहा करते थे किंतु तत्कालीन स्थिति का जायज़ा लेने के उद्देश्य से मक्का, इराक़ और ईरान भी जाया करते थे।  आपकी इमामत अर्थात मार्गदर्शन के ईश्वरीय दायित्व का काल बीस वर्षों तक रहा।

इमाम रज़ा की इमामत के काल को एक हिसाब से तीन हिस्सो में बांटा गया है।  आपकी इमामत का पहला हिस्सा उनकी इमामत के आरंभिक दस साल हैं।  यह वह काल था जब हारून अब्बासी का शासनकाल था।  उसके काल में अत्याचार और अन्याय अपने चरम पर था।  दूसरा हिस्सा, हारून अब्बासी की मृत्यु के बाद से आरंभ होता है।  यह काल पांच वर्षों तक जारी रहा जिसके दौरान हारून अब्बासी के पुत्र अमीन अब्बासी ने सत्ता की बागडोर संभाली।  इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की इमामत के अन्तिम चरण का समय भी पांच वर्ष ही रहा जिसमें मामून अब्बासी शासक बना।  उसने पूरे इस्लामी भू-भाग पर शासन किया।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने अपनी इमामत के काल में तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक परिस्थितियों के हिसाब से बहुत ही दूरदर्शिता के साथ दायित्वों का निर्वाह किया।  इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के काल की सबसे बड़ी समस्या उनके काल के शासकों का भ्रष्ट और अत्याचारी होना था।  यह समस्या उनके पहले वाले इमामों के दौर में भी पाई जाती थी।  उस काल के शासक, इस्लाम का दिखावा बहुत करते थे जबकि व्यवहारिक रूप में वे इस्लामी शिक्षाओं से दूर हो चुके थे।  तत्कालीन शासकों के अधिक से अधिक दबाव और इमाम को लोगों से दूर करने हथकण्डों के बावजूद, जनता दिन-प्रतिदिन इमाम से निकट होती जा रही थी।  ऐसे में लोगों के बीच इमाम की लोकप्रियता में लगातार वृद्धि हो रही थी।

यही कारण था कि अब्बासी शासक जनता के बीच इमाम रज़ा की लोकप्रियता से बहुत भयभीत हो गए थे।  उनको इस बात का भय सताने लगा था कि कहीं ऐसा न हो कि लोग इमाम के साथ मिलकर उनके विरुद्ध कोई विद्रोह कर दें।  क्योंकि उनको अपनी वास्तविकता का पता था इसलिए उनका भय भी दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था।  यही कारण था कि हारून ने सातवें इमाम, मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को मदीने से बग़दाद बुलवाया और उनको जेल में डाल दिया।  बाद में उसने इमाम को ज़हर देकर शहीद करवाया।  इस करतूत के बाद हारून ने अपने पिटठुओं से कहा कि तुम जाकर सबको यह बताओ कि इमाम मूसा काज़िम का स्वर्गवास उनकी स्वभाविक मृत्यु के कारण हुआ है।

 

अपनी इमामत के तीनों कालों में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने तत्कालीन परिस्थतियों के दृष्टिगत समाज का मार्गदर्शन किया।  उन्होंने उस काल में समाज में प्रचलित कुरीतियों और अंधविश्वासों से लोगों को दूर किया जिन्हें "वाक़ेफ़िया" और इसी प्रकार की अन्य विचारधाराओं ने फैलाया था।  उन्होंने अपने निमंत्रण को स्पष्ट किया और उस समय के दो मोर्चों के सामने डट गए।  एक मोर्चा तत्कालीन शासक का था जबकि दूसरा मोर्चा पथभ्रष्ट विचारधाराओं के स्वामियों का था।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का संघर्ष इतना स्पष्ट था जिसके कारण उनके समर्थक भी भयभीत हो गए थे।  अब्बासी शासनकाल के घुटन भरे वातावरण को देखते हुए इमाम के समर्थक उनके जीवन की ओर से बहुत चिंतित रहा करते थे।  उन्होंने इमाम से अनुरोध किया था कि वे इतना अधिक स्पष्ट होकर सामने न आएं बल्कि अपनी शैली में थोड़ी नर्मी लाएं।  इस संबन्ध में इमाम के एक साथी "सफ़वान बिन यहया" कहते हैं कि अपने पिता इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने कुछ एसी बातें कहीं जिससे हम डर गए।  हमने उनकी सेवा में उपस्थित होकर निवेदन किया कि आपने एसी महत्वपूर्ण बातें कहीं जिनके कारण हमें आपके जीवन की ओर से डर लगने लगा है।  इसपर इमाम ने कहा कि वे जो चाहें करें हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।

अपने पिता की मृत्यु के बाद "मुहम्मद अमीन अब्बासी" मुसलमानों का नेता चुना गया।  उसका शासनकाल गंभीर मतभेदों से भरा रहा।  इसी दौरान मुहम्मद अमीर अब्बासी का मतभेद अपने भाई "मामून" से बहुत बढ़ गया।  इमाम रज़ा ने इस अवसर से लाभ उठाते हुए इस्लामी शिक्षाओं का व्यापक स्तर पर प्रचार व प्रसार किया।  आपने लोगों के बीच शुद्ध इस्लामी शिक्षाओं को काफ़ी हद तक पहुंचाया।  इमाम जहां लोगों का उचित मार्गदर्शन करते थे वहीं पर वे कुछ एसी वास्तिवकताओं का उल्लेख भी कर दिया करते थे जिससे आम लोग अनजान थे।  इस बारे में "हुसैन बिन बश्शार" कहते हैं कि एक बार इमाम रज़ा ने मुझसे कहा था कि "अब्दुल्लाह" अर्थात मामून, अपने भाई "मुहम्मद" अर्थात अमीन की हत्या करके रहेगा।  फिर आपने कहा कि ख़ुरासान में रहने वाला अब्दुल्लाह, "ज़ुबैदा" के बेटे मुहम्मद की हत्या ज़रूर करेगा जो बग़दाद में है।  ज़ुबैदा, हारून रशीद की बीवी थी।  अंततः वैसा ही हुआ।  मामून ने अपने भाई की हत्या करके सत्ता हथियाली।

मामून ने अपने भाई की हत्या के बाद इस बात का आभास किया कि अब्बासी के दरबार में एक प्रभावशाली उपस्थिति समाप्त हो गई है।  वह यह सोच रहा था कि चापलूस और मक्कार धर्मगुरूओं को दरबार में बुलाकर इसकी क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती।  उसको यह पता था कि उस काल के इस्लामी समाज के अधिकांश लोग इमाम रज़ा के ही समर्थक हैं।  वे लोग इमाम से विशेष आस्था रखते हैं।  दूसरी ओर लोगों के बीच इमाम का महत्व बहुत अधिक है।  इन्ही बातों के दृष्टिगत मामून ने यह योजना बनाई कि इमाम को अपनी राजधानी मर्व बुलवाया।  इस प्रकार से वह इमाम पर निकट से नज़र रखकर उनकी उपस्थिति का दुरूपयोग करना चाहता था।

मामून ने अपने कुछ सलाहकारों के साथ विचार-विमर्श करके इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को मदीने से मर्व बुलवाने का आदेश जारी किया।  मामून ने जनता को धोखा देने और उन्हें गुमराह करने के उद्देश्य से अपने कुछ लोगों को इमाम को मर्व लाने के लिए भेजा ताकि लोगों यह संदेश जाए कि वह इमाम की कितनी इज़्ज़त करता है।  इमाम जब मदीने से मर्व आ रहे थे तो उन्होंने हेजाज़ से बसरे के बीच पड़ने वाले हर नगर में लोगों से मुलाक़ात की और उन्हें बहुत सी बातें बताईं।  इस प्रकार लोगों को इमाम की यात्रा के बारे में पता चला।  इस दौरान लोग इमाम से भेंट में अधिक से अधिक बातें जानने के इच्छुक थे।  इस सफ़र के दौरान इमाम जो कुछ कहते थे उसे लोग बहुत ही ध्यार से सुना करते थे।

नेशापूर नगर उस समय ज्ञान का केन्द्र था जहां पर बड़ी संख्या में विद्वान रहा करते थे।  यहां के लोग इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए व्याकुल थे।  जब इमाम नेशापूर पहुंचे तो वे बहुत ही साधारण वस्त्र पहने हुए थे।  जिस समय इमाम लोगों के सामने पहुंचे तो वहां पर उपस्थित लोग इमाम रज़ा की बात सुनने के लिए बहुत बेताब थे।  सब लोगों के कान इमाम की ओर लगे हुए थे।  वातावरण में एक प्रकार की शांति थी।  सारे लोग पूरी शांति के साथ इमाम की बातें सुनने के लिए तैयार थे।  एसे में इमाम ने सबसे पहले एकेशवर के बारे में लोगों को बताया।  उन्होंने सबसे पहले ईश्वर पर भरोसा रखने के महत्व का उल्लेख करते हुए एक कथन पेश किया जिसे "सिलसिलए ज़हब" कहा जाता है।  यह एसा कथन है जिसको पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने जिब्रईल से सुना था और जिब्रईल से ईश्वर की ओर से पैग़म्बरे इस्लाम तक पहुंचाया था।  इसी सुनहरे कथन का उल्लेख करते हुए इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने कहा कि ईश्वर कहता है कि "लाइलाहा इल्लल्लाह मेरा दुर्ग है।  जिसने इसे पढ़ा वह मेरे दुर्ग में प्रविष्ट हो गया।  अब जो भी मेरे क़िले में पहुंच गया वह मेरे अज़ाब से सुरक्षित हो गया।

इस कथन की विशेषता यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) से लेकर इमाम रज़ा तक हर इमाम ने इसका उल्लेख किया है अतः इसे सोने की ज़ंजीर कहा जाता है।  जिस समय इमाम रज़ा ने यह कथन लोगों को पढकर सुनाया उस समय चार हज़ार लोगों ने उनके इस कथन को लिखा था।  जब इमाम ने यह कथन लोगों को पढ़कर सुनाया और उसके बाद उनकी सवारी चलने लगी तो इमाम ने चलने से पहले लोगों से कहा कि इस कथन के लिए शर्ते हैं और मैं उसकी शर्त हूं।  इसका अर्थ यह है कि केवल इतना कहना पर्याप्त नहीं है कि ला इलाहा इल्लललाह।  बल्कि उसके लिए पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों पर आस्था भी आवश्यक है क्योंकि वे ही लोगों को बुराइयों और पापों से बचा सकते हैं।

इस प्रकार इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने यह बात कहकर तत्कालीन शासक मामून और ऐसे सभी लोगों की वैधता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के स्वर्गवास के बाद स्वयं को इस्लाम का ठेकेदार बना रखा था।  इन लोगों ने जनता की अज्ञानता का दुरूपयोग करते हुए शुद्ध इस्लाम से लोगों को दूर करके उनको परंपराओं और अंधविश्वासों में लगा दिया था।  एसे लोगों ने पैग़म्बरे इस्लाम के वैध उत्तराधिकारियों के लिए भांति-भांति की समस्याएं उत्पन्न करके उनमे और जनता के बीच दूरियां बढ़ाने के प्रयास किये और अंततः उनको शहीद करवाया।

 

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