Nov १७, २०१८ १७:३१ Asia/Kolkata

हमने कहा था कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम दिल से न चाहने के बावजूद मदीना से ख़ुरासान आये और नीशापुर में बहुत अधिक लोगों की उपस्थिति में उन्होंने इस्लाम की मौलिक शिक्षाओं को बयान किया।

एक रवायत के अनुसार चार हज़ार और दूसरी रवायत के अनुसार 20 हज़ार लोगों ने इमाम के उस कथन को लिखा है जिसमें इमाम ने फरमाया है कि ईश्वर के अलावा कोई पूज्य नहीं है और यह वाक्य मेरा यानी ईश्वर का दुर्ग है तो जो भी मेरे दुर्ग में प्रवेश कर गया वह मेरे प्रकोप से सुरक्षित हो गया।“ यह कहने के बाद इमाम कुछ क़दम चले और कहा, इसकी कुछ शर्तें हैं और मैं उसकी शर्तों में से हूं” यानी अगर कोई व्यक्ति यह कहे कि ईश्वर के अलावा कोई पूज्य नहीं है और उसके दिल में पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों का प्रेम न हो तो वह न तो ईश्वरीय दुर्ग में दाखिल होगा और न ही ईश्वरीय प्रकोप से सुरक्षित रहेगा। इसी प्रकार इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने अपने इस कथन से बता दिया कि सरकार इमाम के दिशा- निर्देशन में होनी चाहिये। इस तरह इमाम ने अत्याचारी शासक मामून की सरकार पर वैधता का प्रश्न चिन्ह लगा दिया।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का काफिला नीशापुर से निकलने के बाद मामून की योजना के अनुसार 201 हिजरी कमरी में मामून की सरकार की राजधानी मर्व पहुंचा। इमाम का काफिला मर्व पहुंचने से पहले कुछ किलोमीटर की दूरी पर था कि पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा अब्बास के परिवार की कुछ हस्तियां, कुछ अलवी, स्वयं मामून और उसके मंत्री इमाम के स्वागत के लिए आये। जब इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के मर्व में रहते हुए कई दिन बीत गये तो मामून ने पहले से तैयार कार्यक्रम के अनुसार इमाम से अपनी बात- चीत शुरू की और आम जनमत को धोखा देने के लिए उसने सबसे पहले इमाम से कहा कि वह ख़िलाफत को स्वीकार करके सरकार की बाग़डोर अपने हाथ में ले लें। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम मामून की शैतानी चालों से बहुत अच्छी तरह अवगत थे इसलिए उन्होंने मामून के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। मामून यह चाहता था कि जब इमाम उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लेंगे तो इससे वह इमाम की छवि को ख़राब करेगा। इमाम ने यह समझाने के लिए” कि मामून का प्रस्ताव एक चाल है” उसके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और स्पष्ट शब्दों में कहा कि अगर ख़िलाफत तेरा अधिकार है तो तू दूसरों को नहीं दे सकता और अगर तेरा अधिकार नहीं है तो जो चीज़ तेरी नहीं है वह तू मुझे कैसे दे सकता है?

मामून अपने षडयंत्रों को व्यवहारिक बनाना चाहता था इसके अलावा वह कुछ नहीं सोचता था। इमाम ने जब स्पष्ट शब्दों में उसके प्रस्ताव को रद्द कर दिया तो उसने कहा कि आप मेरे प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए मजबूर हैं। इमाम ने फिर उसके प्रस्ताव को रद्द कर दिया और उसे स्वीकार नहीं किया।

यहां कोई यह सवाल कर सकता है कि इमाम ने क्यों अवसर से लाभ नहीं उठाया और खिलाफत को क्यों स्वीकार नहीं की? विशेषकर इसलिए कि जब स्वयं मामून ने यह प्रस्ताव दिया था? उसका जवाब यह है कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम बहुत अच्छी तरह जानते थे कि मामून ने जो प्रस्ताव दिया है उसके पीछे उसके कुछ लक्ष्य हैं जिन्हें वह व्यवहारिक बनाना चाहता है। उसके कुछ लक्ष्यों को इस प्रकार बयान किया जा सकता है। पहला लक्ष्य यह था कि अलवी, अब्बासी शासकों के अत्याचारों से थक गये थे जिसकी वजह से उन्होंने अब्बासी शासकों की सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रखा था। मामून चाहता था कि जब इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम खिलाफत को स्वीकार कर लेंगे तो वह बड़ी आसानी से अलवियों के आंदोलन को कुचला जा सकता है। इसी प्रकार अगर इमाम मामून के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते तो वह इमाम के इस कार्य का प्रयोग अपनी खिलाफत को वैध दर्शाने के लिए करता। इसी प्रकार अगर इमाम मामून के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते तो इसका प्रयोग वह लोगों में इमाम की लोकप्रियता को कम करने के लिए करता और कहता कि इमाम सत्ता के भूखे हैं और अभी तक कुछ नहीं किया था तो इसकी वजह यह है कि इसके लिए भूमि उपलब्ध नहीं थी। इसी प्रकार अगर इमाम मामून के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते तो इसका प्रयोग वह अपनी सत्ता की ओर दूसरों को आकृष्ट करने और इसी प्रकार उन लोगों के क्रोध की आग को शांत करने के लिए करता जो अब्बासी शासकों के अत्याचार से तंग आ चुके थे। बहरहाल मामून अपनी सरकार को उन समस्त ख़तरों से सुरक्षित बनाता जिनका उसकी सरकार को सामना था।

इमाम अगर मामून के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते तो उसकी सरकार और सुद्ढ़ व मज़बूत हो जाती। इसके अलावा इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम हारून के समय की कटु घटना को नहीं भूले थे। वह समय इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को अच्छी तरह याद था जब हारून ने इमाम के पिता इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से कहा था कि आप फ़ेदक की सीमा निर्धारित करें और बतायें कि फ़ेदक कहां तक है ताकि मैं उसे वापस कर दूं। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने इस पर कहा था कि तू इस प्रस्ताव को छोड़ दे क्योंकि अगर मैं उसकी सीमा को बयान करूं तो तू उसे नहीं देगा। इस पर हारून ने मामून की तरह आग्रह किया और जब इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने फ़ेदक की सीमा बता दी और उसमें समस्त इस्लामी क्षेत्र आ गये तब हारून ने तिलमिला कर कहा कि तब तो मेरे लिए कुछ बचेगा ही नहीं। इस पर इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने फरमाया कि मैंने तो पहले ही कहा था कि तू इस प्रस्ताव की अनदेखी कर दे। इसके बाद हारून ने इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को शहीद करने का फैसला किया।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने मामून के प्रस्ताव को जो स्वीकार नहीं किया उसका एक कारण यह था कि वह जानते थे कि जो भी मामून की हड़पी सत्ता पर ज़रा भी लोभ की दृष्टि डालेगा उसका अंजाम मामून के सगे भाई अमीन जैसा होगा। मामून ने अपने भाई अमीन को हराने और उसकी हत्या करने के बाद उसके सिर को पूरे ख़ुरासान में घुमाया ताकि दूसरों के लिए सीख हो जाये।

इन समस्त बातों के बावजूद कुछ गुटों के लिए आश्चर्य की बात थी कि क्यों इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने खिलाफत स्वीकार नहीं की यहां तक कि धमकी मिलने के बाद भी इमाम ने उसे स्वीकार नहीं किया? बड़े खेद की बात है कि यह बात उस समय लोगों के लिए स्पष्ट हुई जब मामून ने इमाम को प्रस्ताव दिया कि आप ईद की नमाज़ पढ़ायें। इमाम ने इस शर्त के साथ ईद की नमाज़ पढ़ाना स्वीकार किया कि हम वैसे ही नमाज़ पढ़ायेंगे जैसे पैग़म्बरे इस्लाम पढ़ाते थे। मामून ने इमाम की शर्त स्वीकार कर ली और जब इमाम ईदे फित्र की नमाज़ पढ़ाने के लिए जा रहे थे तो हज़ारों लोग इमाम के पीछे पीछे चलने लगे। मामून के जासूसों ने उसे पूरी घटना की सूचना दी और कहा कि अगर लोग इसी तरह इमाम के साथ आकर मिलते रहे तो तेरी सरकार का अंत हो जायेगा तो मामून को ख़तरे का आभास हुआ और उसने इमाम को रास्ते से ही लौटने का आदेश दिया और इमाम को शहीद करने का षडयंत्र पूरा किसी व्यवहारिक बनाया।

बहरहाल अगर इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम लचक दिखाते और मामून ने खिलाफत का जो प्रस्ताव दिया था उसे स्वीकार कर लेते तो उनके सामने केवल दो रास्ते होते।  पहला यह कि इमाम एक क्रांतिकारी कदम उठाते और पूरा सरकारी तंत्र ही बदल डालते, राजकोष की लूट खसोट करने वालों का अंत कर देते, जिन लोगों ने सत्ता में पैठ बना रखी थी उन्हें सत्ता से निकाल बाहर करते। इस स्थिति में इमाम को विरोधियों के षडयंत्रों एवं विरोधों का सामना करना पड़ता। जैसाकि हज़रत अली अलैहिस्सलाम को हुआ। हज़रत अली अलैहिस्सलाम को तीन आंतरिक लड़ाइयां लड़नी पड़ी। एक माओविया के साथ, दूसरी तलहा और ज़ुबैर के साथ और तीसरी ख़वारिज के साथ। इन तीनों लड़ाइयों में विद्रोहियों ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के क्रांतिकारी उद्देश्यों को व्यवहारिक बनने से रोकने का प्रयास किया। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के पास दूसरा रास्ता यह था कि वह मामून द्वारा प्रस्तावित ख़िलाफत को स्वीकार कर लेते और मौन धारण करके बैठ जाते और जो कुछ मामून की सरकार में हो रहा था उसकी पुष्टि करते और उसके खिलाफ किसी प्रकार की कोई कार्यवाही न करते। अगर इमाम ऐसा करते तो यह भी इमाम के महान व उच्च स्थान से विरोधाभास रखता था।

इस आधार पर इमाम ने खिलाफत का प्रस्ताव रद्द करके मामून की खिलाफत की वैधता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया। इमाम ने मामून के प्रस्ताव को रद्द करके मुसलमानों को सिखा दिया कि वे दिखावे के इस्लामी शासकों के छलावे में न आयें।

मामून स्वयं को इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की दूरगामी सोच के सामने हारा हुआ पा रहा था। इसलिए उसने छल- कपट की नई नीति अपनाई और इमाम से कहा कि आपने खिलाफत के मेरे प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया तो मेरे उत्तराधिकार बन जायें और अगर आपने मेरे इस प्रस्ताव को रद्द किया तो आपकी हत्या कर दूंगा।

मामून की सारी चालों का लक्ष्य यह था कि वह अपनी छवि को बेहतर करना और इमाम की आड़ में अपने अवैध कृत्यों को वैधता का वस्त्र पहनाना चाहता था। क्योंकि उस समय लोग अब्बासी शासकों के अत्याचारों और क्रिया- कलापों से थक गये थे और उस समय इमाम की तरह लोकप्रिय कोई दूसरी हस्ती नहीं थी जिसकी सहायता से मामून अपनी छवि को बेहतर बनाता। इसी प्रकार मामून का एक अन्य लक्ष्य यह था कि जब इमाम मामून के उत्तराधिकारी बन जाते तो उनकी राजनीतिक और सांस्कृतिक समस्त गतिविधियों पर नज़र रखना आसान हो जाता और इमाम और लोगों के मध्य जो सम्पर्क था उसे भी ख़त्म कर दिया जाता और समाज एवं लोगों में इमाम का जो स्थान था उसे भी कम कर दिया जाता। इसी प्रकार मामून अपने लक्ष्यों पर पर्दा डालने और लोगों एवं दरबारियों को यह दिखाने के लिए, कि वह केवल इमाम का सम्मान करना चाहता है, विद्वानों को बुलाकर शास्त्रार्थ कराता था। वह चाहता था कि कठिन से कठिन प्रश्नों को इमाम से पूछा जाये और जब इमाम इन प्रश्नों का जवाब नहीं दे सकेंगे तो लोगों में उनकी जो लोकर्काप्रयता है वह कम व खत्म हो जायेगी। दूसरे शब्दों में इमाम की लोकप्रियता से उसकी सरकार के लिए जो ख़तरा था वह टल जाता।

बहरहाल जब मामून ने कहा कि आपको मेरा उत्तराधिकारी बनना पड़ेगा और अगर आपने मेरे इस प्रस्ताव को रद्द किया तो मैं आपकी हत्या कर दूंगा। इमाम मामून के शैतानी लक्ष्यों को बहुत अच्छी तरह समझते थे। इसलिए उसे विफल बनाने के लिए इमाम ने कहा कि अगर मैं इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए मजबूर हूं तो उसे इस शर्त के साथ स्वीकार करता हूं कि मैं सरकार के किसी भी मामले में हस्तक्षेप नहीं करूंगा न तो किसी को नियुक्त करूंगा और न ही किसी को उसके पद से हटाऊंगा।

 

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