अपनी देखभाल- 7
हमने अपनी देख-भाल आप के अंतर्गत भावनाओं को नियंत्रित करने और स्वास्थ्य में उसकी भूमिका के बारे में आपको बताया था और इस बात का उल्लेख किया था कि स्वस्थ शरीर और प्रफुल्लित आत्मा के लिए भावनाओं पर नियंत्रण बहुत ज़रूरी है।
बहुत से लोग इस बात में रुचि रखते हैं कि अपनी नकारात्मक भावनाओं और पुरानी आदतों को छोड़ दें और नई शैलियों के साथ जीवन शुरू करें लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो पाते। वे अपना पूरा जीवन और पूरी आयु इस आशा में बिता देते हैं कि किसी दिन उनके जीवन की स्थिति बेहतर होगी। इस प्रकार के लोग हमेशा इस बात की कामना करते हैं कि काश हर चीज़ अधिक सरल और अधिक सादा हो। शायद वे अपनी कल्पनाओं में भी चमत्कार और एक असाधारण संयोग की अपेक्षा में रहते हैं जो उनकी ख़राब स्थिति को ठीक कर दे और उनके जीवन की स्थिति वर्तमान समय से अच्छी हो जाए।
लेकिन वास्तविकता यह है कि लोगों की स्थिति तभी बेहतर होती है जब वे स्वयं परिवर्तन के प्रयास में हों। दूसरे शब्दों में मनुष्य अपने आपको बदलने के बाद ही अपने जीवन के मार्ग को भी बदल सकता है क्योंकि मानव जीवन में एक क़ानून हमेशा से रहा है और आगे भी रहेगा और वह यह है कि ईश्वर ने किसी भी जाति को परिवर्तित नहीं किया जब तक उसने अपने आपको नहीं बदला। यह क़ुरआने मजीद के सूरए रअद की 11वीं आयत है जिससे यह नतीजा निकलता है कि हमें हमेशा परिवर्तन अपने आपसे शुरू करना चाहिए।
परिवर्तन का यह क़ानून, जो इस्लामी विचारधारा और इस्लामी समाजवाद के आधारों में से एक है, हमसे कहता है कि तुम्हारी तक़दीर किसी भी चीज़ और किसी भी व्यक्ति से पहले स्वयं तुम्हारे हाथ में है और मनुष्यों के सौभाग्य व दुर्भाग्य में किसी भी तरह का परिवर्तन पहले चरण में स्वयं उन्हीं की ओर पलटता है। क़िस्मत और संयोग का कोई ठोस आधार नहीं है अतः किसी भी चीज़ को बेहतर बनाने के लिए सबसे पहले हमें अपने आपको बेहतर बनाना होगा। यह वही बिंदु है जिस पर अपनी देख-भाल आप के मामले में भी ध्यान दिया गया है। पिछले कार्यक्रमों में हमने अपनी देख-भाल आप की परिभाषा की थी और कहा था कि यह एक स्वेच्छापूर्ण व्यवहार है जो लोगों के अपने संकल्प और इच्छा से सामने आता है और इसके अंतर्गत मनुष्य पर्याप्त ज्ञान व दक्षता प्राप्त करके अपने स्वास्थ्य की देख-भाल करने में सक्षम होता है। अतः अपनी स्थिति को बदलने और बेहतर बनाने की इच्छा, अपनी देख-भाल में मूल भूमिका रखती है।

अब सवाल यह उठता है कि व्यवहार में बदलाव का क्या लाभ है? और हम अपना व्यवहार क्यों बदलें कि हमार आज कल से बेहतर हो जाए? इस सवाल का जवाब हम पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सालम के एक कथन से दे रहे हैं। उनका कहना है कि जिसके भी दो दिन (मानवीय विकास और जीवन की परिपूर्णता की दृष्टि से) एकसमान हों, उसे घाटा हुआ है और जिसका आज, बीते हुए कल से बेहतर हो दूसरे उससे रश्क करते हैं अर्थात उसके जैसा होने की कामना करते हैं जबकि जिसका आज, बीते हुए कल से बुरा हो वह ईश्वर की दया से वंचित है। जो कोई अपने अस्तित्व में परिपूर्णता और वृद्धि का आभास न करे वह घाटे की ओर बढ़ रहा है और जो घाटे की ओर बढ़ रहा हो उसके लिए मौत, जीवन से बेहतर है।
परिवर्तन के संबंध में एक अहम बिंदु, समय पर ध्यान देना है। अगर हम अपने जीवन में सकारात्मक ढंग से आगे बढ़ना चाहें तो हमें अपनी अपेक्षाओं को कम करना चाहिए और इस बात को समझ लेना चाहिए कि जीवन, एक उतार-चढ़ाव वाला रास्ता है जिसमें बहुत सारे मोड़ भी आते हैं। अगर हम रास्ते को जानते और पहचानते होंगे तो बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ सकते हैं। ढिलाई, सुस्ती और आज का काम कल पर टालने की आदत छोड़ कर आगे बढ़ने की कला सीखनी चाहिए।
हमें इस बात पर ध्यान रखना चाहिए कि काम शुरू करने के लिए प्रेरणा मिलने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए क्योंकि प्रेरणा, हमेशा काम के बाद होती है और उससे काम मज़बूत होता है। कुछ लोग किसी भी काम के आरंभ में पाई जाने वाली घबराहट और चिंता के कारण विभिन्न बहाने से उस काम को टालते रहते हैं। जबकि वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि कामों को टालने से घबराहट, अस्थायी रूप से तो कम तो होती है लेकिन दीर्घकाल में यह घबराहट और चिंता बढ़ती चली जाती है और मनुष्य में अक्षमता और आत्मसम्मान में कमी की एक भावना पैदा होने लगती है।

अंतिम बात यह है कि आगे की ओर बढ़ने और सकारात्मक परिवर्तन के लिए, प्रयास के अलावा कोई रास्ता नहीं है। हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि जिस प्रकार बचपन में हम चलने के लिए कई बार गिरते थे और फिर उठ कर चलने की कोशिश करते थे उसी तरह आज भी हमें हर काम की शुरुआत में रुकावटों का सामना है। अतः हमें अपनी अपेक्षाओं को कम करना चाहिए। इसी के साथ इस बात पर भी ध्यान रखना चाहिए कि जिन लोगों से हमारा सरोकार है वे हमारे बारे में अलग अलग तरह के विचार रखते होंगे या दूसरे शब्दों में हमारी आलोचना करते होंगे, अतः हमें हमेशा आलोचनाओं को अपने विकास और देख-भाल के लिए सकरात्मक ढंग से लेना चाहिए।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सालम का एक और स्वर्ण कथन है जिसमें वे कहते हैं कि मेरा सबसे प्रिय भाई वह है जो मुझे मेरे अवगुणों का तोहफ़ा दे। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य अधिकतर अपनी बुराइयों, बुरी आदतों और अवगुणों से अवगत नहीं होता। इस लिए आवश्यकता होती है कि कोई दूसरा उसे उन बुराइयों के बारे में बताए क्योंकि जब तक वे बुराइयां उसमें रहेंगी तब तक वह सही ढंग से आगे नहीं बढ़ पाएगा। इसी लिए इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने इसके लिए तोहफ़े का शब्द प्रयोग किया है। अर्थात जो व्यक्ति मुझे मेरी बुराइयों से अगवत करा रहा है मानो वह मुझे तोहफ़ा दे रहा है।
समाज शास्त्र, शिष्टाचार और इसी तरह नैतिकता के विशेषज्ञों का भी कहना है कि मनुष्य के अवगुण उसके विकास की राह में बाधा हैं और उसे अपने आलोचकों से अप्रसन्न नहीं होना चाहिए बल्कि उनकी आलोचनाओं पर सकारात्मक ढंग से सोचना चाहिए और अगर वास्तव में उसमें वह बात पाई जाती है तो उसे दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। इसी स्थिति में वह आगे बढ़ सकता है। अपनी देख-भाल आप के विषय में भी आलोचनाओं पर सकारात्मक ढंग से सोचने की अहम भूमिका है। इस लिए अगर कोई अपने आपमें परिवर्तन लाना चाहता है तो उसे न केवल आलोचनाओं से घबराना और अप्रसन्न नहीं होना चाहिए बल्कि उन पर ध्यान देकर बुराइयों को दूर करने की निरंतर कोशिश करते रहना चाहिए। (HN)