अल्लाह के ख़ास बन्दे - 58
इस्लाम के सभी मार्गदर्शक कि जिनके बारे में पैग़म्बरे इस्लाम बता चुके थे, सैद्धांतिक व तार्किक नीति के ज़रिए अपने उद्देश्य को हासिल करने की कोशिश करते थे।
कभी राजनैतिक दृष्टिकोण, कभी सामाजिक शैलियों और कभी बुद्धिजीवियों व विद्वानों के साथ बातचीत व शास्त्रार्थ के ज़रिए आम लोगों को जागरुक बनाने की कोशिश करते और सबसे ज़्यादा सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए कोशिश करते थे। इसी परिप्रेक्ष्य में वे अपने मूल्यवान उपदेशों को भाषणों के रूप में पेश किया करते थे। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने भी अन्य मार्गदर्शकों की तरह इसी सैद्धांतिक नीति का पालन करते हुए मूल्यवान उपदेश दिए हैं जिनमें से कुछ की समीक्षा करेंगे।
इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम किसी इंसान की बात का दूसरे इंसान के मन व आत्मा पर पड़ने वाले असर के बारे में फ़रमाते थे कि " किसी की बात पर ध्यान देने वाला ऐसा ही है जैसे उसने उसकी पूजा की हो। अगर कहने वाला ख़ुदा की बात करे तो ईश्वर की उपासना की और अगर वह शैतान के बारे में बात करे मानो उसने शैतान की पूजा की है।"
आज का दौर मीडिया का दौर है, इसलिए किसी भी दौर की तुलना में आज के दौर में इस अहम उपदेश के प्रचार-प्रसार के लिए अधिक प्रयास की ज़रूरत है। आज मीडिया का बड़ा भाग शैतानों का प्रचारक बन चुका है कि जिसका लक्ष्य जनमत को सीधे मार्ग से भटकाने के सिवा कुछ और नहीं है और वे धर्म विरोधी विचारधाराओं का खुल कर समर्थन करते तथा शैतानी विचारों को लोगों के मन में बिठाते हैं। इस तरह के मीडिया के जाल में फंसने से बचने के लिए ईश्वरीय व इंसानी मूल्यों की रक्षा करने के लिए किस तरह की शैली अपनाएं। इस बारे में इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सला का बहुत ही सुंदर उपदेश है। आप फ़रमाते हैः "ईश्वर पर आस्था रखने वाले मोमिन बंदे को तीन विशेषताओं की ज़रूरत है, एक ईश्वर की ओर से मदद, नसीहत करने वाली चेतना और नसीहत करने वाले की बात क़ुबूल करना।"
इस बात में शक नहीं कि जब शैतानी प्रलोभन, मन की इच्छा और धोखा देने वाली बातों का सामना होता है तो जो चीज़ हमें पतन में जाने से बचाने में सबसे बड़ा रोल अदा करती है वह ईश्वर की ओर से होने वाली मदद है कि जिसके बिना हमारी कोशिश का कोई नतीजा नहीं निकलेगा। इसके साथ ही इंसान को अपनी आत्मा की आवाज़ को भी सुनना चाहिए। अपने कान को प्रायश्चित करने वाली चेतना की ओर केन्द्रित करना चाहिए और उसकी नसीहतों की ओर से उदासीन नहीं होना चाहिए बल्कि उसकी नसीहत को गंभीरता से लेना चाहिए ताकि ईश्वर की मदद और अपने जागरुक मन के ज़रिए रास्ता भटकने से बच जाए। कभी ईश्वर की ओर से मदद नहीं मिलती और पापों की वजह से चेतना की आवाज़ भी सुनाई नही देती। ऐसी हालत में अगर एक शुभचिन्तक व हमदर्द इंसान नसीहत करे तो उसकी नसीहत को स्वीकार करना चाहिए, भावनात्मक व्यवहार नहीं करना चाहिए बल्कि नसीहत की समीक्षा करनी चाहिए, सैद्धांतिक व तार्किक मार्ग को अपनाना चाहिए ताकि शैतानी बातों के असर से सुरक्षित रहें।
पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के मूल्यवान कथनों पर नज़र डालने से हम इस बात से अवगत होते हैं कि ये हस्तियां कभी अपनी बातें बिना किसी माध्यम के सीधे तौर पर कहती थीं और जब यह दर्शाना होता था कि पैग़म्बरे इस्लाम के सभी उत्तराधिकारियों का आचरण एक जैसा है और उनकी सैद्धान्तिक नीति में कोई अंतर नहीं है, अपनी बातों को अपने पूर्ववर्ती इमामों के हवाले से बयान करते थे। जैसा कि इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के हवाले से फ़रमायाः "जो ईश्वर पर भरोसा करता है ईश्वर उसके ख़ुशी प्रदान करता है, जो उस पर निर्भरता का प्रदर्शन करे, वह उसके लिए काफ़ी हो जाता है। ईश्वर पर आस्था वह क़िला है जिसमें कोई और शरण नहीं ले सकता। धर्म सम्मानित करने वाला, ज्ञान ख़ज़ाना है और ख़ामोशी प्रकाश है। इच्छाओं पर नियंत्रण का अंत ईश्वर से डर है और कोई भी चीज़ धर्म को बिदअत की तरह नुक़सान नहीं पहुंचाती।" बिद्अत का अर्थ है जो चीज़ धर्म में न हो उसे धर्म का भाग बनाना। सत्ताधारी वर्ग के लिए कोई भी चीज़ लालच से अधिक नुक़सानदेह नहीं है। योग्य शासक के ज़रिए लोगों के काम व मामले सुव्यवस्थित होते हैं। जो भी दूसरे की कमियां तलाश करेगा, लोग उसकी कमियां ढूंढेंगे। जो भी गाली बकेगा, उसका जवाब पाएगा। जो भी ईश्वर से डरेगा, उसके फ़ायदे को महसूस करेगा और विपत्तियां उससे दूर रहेंगी। जो भी धैर्य की सवारी पर सवार होगा, वह सफलता के मैदान तक पहुंचेगा।
हर इंसान दुख से मुक्ति और शांति व सुकून से भरा जीवन चाहता है। इसके साथ ही इंसान एक ऐसे शरण की कोशिश में रहता है कि उसके साए में संतोषजनक जीवन बिता सके और ज़माने के हादसों के नुक़सान से सुरक्षित रहें।
इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम दृढ़ता के तीन उपाय पेश करते हुए फ़रमाते हैः "ख़ुशी पाने के लिए ईश्वर पर भरोसा, जीवन के मामलों में पर्याप्तता के लिए ईश्वर पर निर्भरता और एक अजेय दुर्ग में दाख़िल होने तथा हानियों से सुरक्षित रहने के लिए ईश्वर पर आस्था, बेहतरीन नीति है।" हर इंसान की यह इच्छा होती है कि उसे सम्मान मिले और ऐसा ख़ज़ाना हाथ लगे जो कभी ख़त्म न हो, एक प्रकाशमय वातावरण में जीवन बिताए ताकि सदाचारिता के ज़रिए ख़ुद को बुराई व पथभ्रष्टता से दूर रखे। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम इन सभी इच्छाओं के पूरा होने के संबंध में फ़रमाते थेः "सम्मान पाने की कुंजी धर्म की पहचान और धर्मपरायणता है, अथाह ख़ज़ाना पाने के लिए ज्ञान की प्राप्ति, एक प्रकाशमय माहौल में दाख़िल होने के लिए ख़ामोशी, पथभ्रष्टता व बुराई से दूर रहने के लिए ईश्वर से डर और सदाचारिता है।" इसके बाद नवें इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने एक बड़े ख़तरे की ओर इशारा करते हुए फ़रमायाः "जितना बिदअत धर्म को नुक़सान पहुंचाती है उतना कोई चीज़ धर्म को नुक़सान नहीं पहुंचाती।" बिदअत का अर्थ धर्म में ऐसी बातों को फैलाना जो विदित रूप से धार्मिक लगे लेकिन धर्म के मूलग्रन्थों व आधारों जैसे पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के आचरण से उसकी पुष्टि न हो। सबसे पहले बिदअत पाखंडियों और ख़्वारिज नामक धर्म भ्रष्ट गुट के वजूद में आने से प्रकट हुयी जिससे इस्लामी समाज को बहुत गंभीर नुक़सान पहुंचा। आज के दौर में बिद्अत फैलाने वालों ने वहाबियत, बहाइयत, दाइश और तकफ़ीरी विचारधारा को वजूद में दिया। इन मतों ने अपने भ्रष्ट विचारों से इस्लाम धर्म को बहुत अधिक नुक़सान पहुंचाया। यही वजह है कि इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम फ़रमाते थेः "बिदअत फैलाने वालों का वजूद धर्म को तबाह कर सकता है।"
इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने एक अन्य उपदेश में कुछ नैतिक और अनैतिक मूल्यों की ओर इशारा और उनके सार्थक व नकारात्मक नतीजों का उल्लेख करते हुए फ़रमायाः "जो भी दूसरों की कमी ढूंढता है या दूसरों को गाली देता है, तो दूसरे उसमें कमियां ढूंढेंगे और उसे गाली देंगे। इसी तरह जो इंसान ईश्वर से डरता है और धैर्य अपनाता है तो उसका मीठा अंजाम और सफलता पाएगा।" इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम समाज के सत्ताधारी वर्ग को उपदेश देते हुए फ़रमायाः "सत्ताधारियों के लिए लालच से अधिक ख़तरनाक चीज़ कुछ और नहीं है और अच्छे शासक से समाज के सभी मामले सुव्यवस्थित हो जाते हैं।"
इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम इसी तरह समाज का वैचारिक व व्यवहारिक ख़ाका निर्धारित करते थे और उसी के आधार पर अब्बासी शासकों की अयोग्यता को स्पष्ट करते और विकृतियों, अत्याचार, भेदभाव और धर्म से दूरी के पीछे उनके निकम्मे शासन को ज़िम्मेदार बताते हुए फ़रमाते थेः "योग्य शासक के ज़रिए समाज अस्त व्यस्तता से बचता और सुव्यवस्थित होता।"
जी हां इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के दौर में अयोग्य शासक अपने अवैध शासन को मज़बूत करने के अलावा कुछ और नहीं सोचते थे। अब्बासी शासक मामून और उसका भाई मोतसिम इस बात से चिंतित थे कि कहीं इमाम मोहम्मद तक़ी का वजूद उनके शासन के लिए ख़तरा पैदा न कर दे। यही वजह है कि इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को बग़दाद बुलाया गया ताकि उनकी सभी गतिविधियों पर नज़र रखी जा सके। हालांकि वे शास्त्रार्थ और धर्मगुरुओं व विद्वानों की सभाओं के आयोजन के ज़रिए यह दर्शाने की कोशिश करते थे कि वे इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम का सम्मान करते हैं।
इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने अब्बासी शासकों की नीतियों और उनकी ओर से लगायी गयी पाबंदियों के बावजूद, अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए दो मूलभूत क़दम उठाए। एक तो सातवें इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की तरह था। जिस तरह इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने अपने एक निकटवर्ती साथी अली बिन यक़तीन को आदेश दिया कि वे हारून के दरबार में रहें ताकि शाही दरबार की सभी गतिविधियों से अवगत रहें और शियों की सेवा करते रहें। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने भी अपने कुछ अनुयाइयों को आदेश दिया कि वे शास्त्र तंत्र में पैठ बनाएं और संवेदनशील पदों को हासिल करें। जैसा कि इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के एक साथी नूह बिन दर्राज न्याय तंत्र में पैठ बनाने में सफल हुए और वे कूफ़ा व बग़दाद शहरों के न्यायधीश बने। इसी तरह इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने अहवाज़, सीस्तान, रय, क़ुम, बसरा, कूफ़ा और बग़दाद सहित दूसरे अहम केन्द्रों में अपने प्रतिनिधि नियुक्त किए ताकि इस तरह जनता के साथ संपर्क में रहें और क्रान्तिकारी गतिविधियों के प्रवाह में रहें।
अब्बासी शासक मोतसिम ने जो मामून के बाद सत्ता में पहुंचा था, इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की गतिविधियों से कुछ हद तक अवगत था और वह घात लगाए बैठा था कि किसी तरह इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को मंच से निकाल दे ताकि पूरे इतमेनान के साथ अपनी साज़िशों को लागू कर सके। इसलिए उसने इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की बीवी उम्मुल फ़ज़्ल के हाथों उन्हें शहीद करवाने की कोशिश की। खेदजनक है कि उम्मुल फ़ज़्ल मोतसिम की बुरी साज़िश को व्यवहारिक बनाने के लिए तय्यार हो गयी और 220 हिजरी क़मरी के ज़ीक़ादा महीने में उसने इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को जिन्होंने अपने जीवन की सिर्फ़ 25 बहारें देखी थीं, खाने में ज़हर देकर शहीद कर दिया।