May १८, २०१९ १४:४३ Asia/Kolkata

पवित्र रमज़ान का महीना सभी मुसलमानों को यह अवसर देता है कि वह ख़ुद और अपने आस-पास के समाज को परिपूर्णतः तक पहुंचाने के बारे में सोचे।

रोज़ा आत्मशुद्धि, अपनी इच्छाओं पर क़ाबू पाने और बुरी इच्छाओं से संघर्ष करने का अभ्यास है। रोज़ा इंसान के जीवन के सबसे अहम उद्देश्य अर्थात परिपूर्णतः और ईश्वर का सामिप्य पाने जैसे उद्देश्य की प्राप्ति में बहुत प्रभावी तत्व है। ईश्वर ने पवित्र रमज़ान के महीने में रोज़ा अनिवार्य करके इन्सान को यह अवसर दिया है कि वह अपनी निहित क्षमता को ईश्वर का सामिप्य प्राप्त करने की दिशा में सक्रिय करे। रोज़े का उद्देश्य इंसान का आध्यात्मिक प्रशिक्षण करते हुए उस मार्ग पर ले जाना है जिस पर चलकर वह सदाचारी बन सकता है।

रोज़ा के जहां और भी फ़ायदे वहीं यह अपने मन की शक्ति को प्रदर्शित करने व आत्मबोध का भी साधन है। जब रोज़ादार एक निर्धारित समय तक अपनी सभी शारीरिक ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ करते हुए, भूखा व प्यासा रहता है तो उसे यह विश्वास हो जाता है कि वर्जित चीज़ों से ख़ुद को बचाए रखना मुमकिन है। इस तरह इच्छाओं के मुक़ाबले में प्रतिरोध का द्वार उसके लिए खुल जाता है और वह ख़ुद को अनिवार्य व ग़ैर अनिवार्य कर्म के लिए तय्यार कर सकता है। रोज़े के शारीरिक, नैतिक व सामाजिक फ़ायदे इंसान को धर्मपरायणता के मार्ग पर ले जाते हैं। जैसा कि पवित्र क़ुरआन इस बारे में कहता हैः "हे ईश्वर पर आस्था रखने वालो! तुम्हारे लिए रोज़ा रखना अनिवार्य है जिस तरह तुमसे पहले वालों पर अनिवार्य था ताकि तुम सदाचारी बन सको।"

पवित्र रमज़ान का रोज़ा इंसान को शारीरिक व आत्मिक फ़ायदे के अलावा एक और अहम शिक्षा देता है, वह यह कि रोज़ा रखने वाला भूख और वंचिता का अनुभव करता है। इस तरह उसके मन में ज़रूरतमंद लोगों के प्रति एक तरह की हमदर्दी पैदा होती है।

पैग़म्बरे इस्लाम के ग्यारहवें उत्तराधिकारी इमाम हसन अस्करी अलैहिस्सलाम से जब पूछा गया कि रोज़ा क्यों अनिवार्य है? आपने फ़रमाया कि धनवान भूख की पीड़ा को महसूस करे और निर्धनो पर ध्यान दे। पैग़म्बरे इस्लाम के छठे उत्तराधिकारी हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के शिष्य हेशाम ने जब उनसे रोज़े अनिवार्य होने की वजह पूछी तो आपने फ़रमायाः "ईश्वर ने रोज़ा अनिवार्य किया ताकि धनवान और निर्धन एक समान हो जाएं इस आयाम से कि धनवान भूख की पीड़ा को महसूस करके निर्धन पर कृपा करे। अगर ऐसा न होता तो धनवान निर्धनों व वंचितों पर दया नहीं करते।"

पवित्र रमज़ान महीने के रोज़े का एक सामाजिक फ़ायदा अपव्यय या ग़ैर ज़रूरी उपभोग से बचना है। रोज़ा अपव्यव के मुक़ाबले में एक ढाल है। रोज़ा एक तरह से विभिन्न वर्गों के बीच आर्थिक दृष्टि से खाई को रोकता है क्योंकि जिस समाज में दान-दक्षिणा होगी वह कभी भी निर्धनता का शिकार नहीं होगा।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैः निर्धनता सबसे बड़ी मौत है। क्योंकि मौत की कठिनाई एक बार है जबकि निर्धनता से उत्पन्न कठिनाई बहुत ज़्यादा होती हैं। रोज़ा इसलिए अनिवार्य है ताकि मुसलमान ख़ुद को भौतिकवाद व लालच में डूबने से बचाए। रोज़ा इंसान को सिखाता है कि वह दूसरों की मुश्किलों के बारे में भी सोचे। अपनी शारीरिक इच्छाओं पर क़ाबू रखे, ज़रूरत भर पर किफ़ायत करे और अपव्यव से दूर रहे। मितव्ययता से इंसान में दानशीलता जैसी विशेषता पैदा होती है। मितव्ययी व्यक्ति दूसरों से आवश्यक्तामुक्त होता है। दूसरों की ओर हाथ नहीं बढ़ाता। जिस समाज में किफ़ायत व मितव्ययता जैसी विशेषता प्रचलित हो जाए वह आत्म निर्भर होगा। ऐसा समाज अनुचित उपभोग से दूर रह कर अपने पांव पर खड़ा हो सकता है।

पवित्र रमज़ान के रोज़े की एक विशेषता संयुक्त धार्मिक अनुभव की प्राप्ति है। रोज़ा समाज के लोगों में संयुक्त धार्मिक अनुभव की प्राप्ति का साधन है। धार्मिक अनुभव ही धर्मपरायणता का आधार है। यह न सिर्फ़ व्यक्ति के विचार में बदलाव लाता है बल्कि उसके सामाजिक संबंध को बेहतर बनाने में भी प्रभावी है। रोज़े का एक अहम सामाजिक आयाम, सामाजिक न्याय को मज़बूत करना है। क्योंकि पवित्र रमज़ान के महीने में समाज के हर वर्ग का व्यक्ति निर्धारित घंटों के लिए एक पहर के भोजन से वंचित रहता है। यह चीज़ धनवान लोगों को समाज के निर्धन व वंचित लोगों को याद करने के लिए प्रेरित करती है जो पूरे साल भूख सहन करते हैं। इस तरह सामाजिक स्तर पर सहानुभूति की भावना मज़बूत होती है।

पवित्र रमज़ान के महीने में एक और सुंदर दृष्य जो नज़र आता है वह सार्वजनिक स्थलों व मस्जिदों में इफ़्तार की व्यवस्था है। निर्धन व धनवान एक ही दस्तरख़ान पर बैठ कर रोज़ा इफ़्तार करते और इफ़्तार के बाद एक साथ सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ते हैं। रमज़ान में समाज के विभिन्न वर्ग एक दूसरे के निकट होते हैं और मस्जिद जैसी धार्मिकि संस्थाओं के ज़रिए सामाजिक तानाबाना मज़बूत होता है।

पवित्र रमज़ान से समाज में नैतिक व सामाजिक मानदंड मज़बूत होता है। पवित्र रमज़ान में सच्चाई, ईमानदारी और सामाजिक स्वास्थ्य के बेहतर होने का मार्ग समतल होता है जिससे समाज मज़बूत होता है और सामाजिक स्तर पर विश्वास की भावना मज़बूत होती है। बहुत से उचित सामाजिक मानदंड जिन्हें आम दिनों में नज़रअंदाज़ किया जाता है, पवित्र रमज़ान में मज़बूत होते हैं। मिसाल के तौर पर अगर कोई व्यक्ति झूठ और पीठ पीछे दूसरों की बुराई से बचता है तो दूसरी बहुत सी बुराइयों का मार्ग उसके लिए बंद हो जाता है। इस तरह पवित्र रमज़ान माहौल के प्रभाव में सामाजिक माहौल बेहतर हो जाता है और व्यक्तिगत क्रियाएं उचित मानदंड की ओर उन्मुख होती हैं।            

ईदुल फ़ित्र में सामूहिक भावना का प्रतिबिंबन नज़र आता है क्योंकि समाज के लोग एक जगह पर सामूहिक उपासना के एक सत्र के बाद इकट्ठा होते और अपनी सफलता का जश्न मनाते हैं। वास्तव में ईदुल फ़ित्र रोज़े जैसी अनिवार्य उपासना को अंजाम देने में समाज की सफलता का जश्न है। अनिवार्य उपासना में धर्म का रोल सामाजिक एकता लाने वाले तत्व के रूप में पूरी तरह स्पष्ट है। जैसा कि पवित्र रमज़ान के महीने में सामाजिक एकता अपनी चरम पर होती है। औद्योगिक समाज भौतिक तरक़्क़ी के बाद भी बहुत से अवसर पर शून्य का आभास करता है यहां तक कि इस तरह के समाज के विद्वान भी धर्म के सार्थक रोल को मानते हैं। मिसाल के तौर पर फ़्रांसीसी समाजशास्त्री ऑगस्त कोन्ट का मानना है कि सामाजिक एकता व अनुशासन धर्म में निहित है। समाज को नुक़सान पहुंचाने वाले तत्वों की नज़र से कुछ विचारों की पवित्र रमज़ान के परिप्रेक्ष्य में समीक्षा करें तो बहुत ही अच्छे नतीजे सामने आते हैं। जैसे ख़ुदकुशी का विचार पेश करने वाले विचारक दुर्ख़ेम ने सामाजिक एकता और ख़ुदकुशी के स्तर के बीच संबंध को पेश किया है। उनका मानना है कि जिस समाज के लोगों में एकता ज़्यादा होगी उसमें ख़ुदकुशी का अनुपात उतना ही कम होगा। चूंकि पवित्र रमज़ान के महीने में सामाजिक एकता अपनी चरम पर होती है इसलिए स्पष्ट है कि ख़ुदकुशी का अनुपात भी कम होता है।

शोध के अनुसार, पवित्र रमज़ान के आते ही सामाजिक अपराध में काफ़ी कमी आती है। इस सामाजिक सुधार के राज़ को समाज के लोगों में अध्यात्म की ओर झुकाव और समाज में अध्यात्मिक माहौल में ढूंढना चाहिए। यह महा-अध्यात्मिक उपाय धार्मिक व आत्मिक मामलों के सही तरह से प्रचार व प्रसार द्वारा दूसरी सामाजिक बुराइयों को रोक सकता है। इस्लामी देशों में पवित्र रमज़ान शुरु होते ही बड़ी संख्या में लोग धर्म विरोधी कर्मों से बचने का संकल्प लेते हैं। इसी वजह से इस महीने में साल के दूसरे महीनों की तुलना में अपराध कम होते हैं। इस महीने में लोगों में आत्मसंयम की भावना मज़बूत हो जाती है यहां तक कि यह भावना उन लोगों में भी पैदा होती है जिनके पास बुराई करने का बहुत अवसर होता है। यही वजह है कि समाजशास्त्रियों का मानना है कि इस तरह का आत्म संयम दूसरे तत्वों की तुलना में लोगों के व्यवहार पर अधिक प्रभावी होता है।

पवित्र रमज़ान में रोज़ा सामाजिक उपासना का अभ्यास है। इसलिए रोज़े में अन्य उपासनाओं की तरह न सिर्फ़ व्यक्तिगत फ़ायदे निहित हैं बल्कि इससे इंसान का आत्मोत्थान और सामाजिक आयाम से विकास होता है। सामाजिक एकता, आपसी सहयोग की भावना का मज़बूत होना, सामाजिक अपराध में कमी, व्यक्तिगत व सामाजिक सुरक्षा का बढ़ना, निर्धन व धनवान वर्ग में खाई का कम होना, निर्धनों की मदद, दूसरों के अधिकारों का पालन, एक दूसरे का सम्मान करना कि इनसे सांस्कृतिक, सामाजिक, नैतिक और आर्थिक सुरक्षा क़ायम होती है, रोज़े की उपलब्धियां हैं।

 

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