Aug २८, २०१९ १५:२८ Asia/Kolkata

इंसान एक सामाजिक प्राणी है यानी वह समाज में रहता है और उसे सामाजिक संबंधों की ज़रूरत होती है।

इंसान के सामाजिक संबंध जितने अच्छे होते हैं उतना ही उसका जीवन सरल व सफल होता है। अच्छे सामाजिक संबंधों के लाभों की गणना नहीं की जा सकती। मानसिक दृष्टि से भी सामाजिक संबंधों के बहुत लाभ हैं। अच्छा व प्रभावी सामाजिक संबंध इंसान को यह क्षमता प्रदान करता है कि वह अपने दृष्टिकोणों, विश्वासों, मांगों और ज़रूरतों को बयान कर सकता है और ज़रूरत पड़ने पर दूसरों से सहायता का आह्वान भी कर सकता है। सामाजिक संबंधों में जो चीज़ें बुनियादी हैं उनमें से एक सच्चाई है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम फरमाते हैं"सच बोलने वाला सफलता के निकट है और झूठ बोलने वाला अपमान की कगार पर है"

समस्त ईश्वरीय दूतों ने जिन चीज़ों का निमंत्रण दिया है उनमें से एक सच्चाई है। यानी सदा सच बोलना और झूठ से दूरी है। सच्चाई वह रत्न है जो आस- पास के लोगों के भरोसे को जीत लेता है। सच्चे इंसान को दूसरे इज़्ज़त व  प्रतिष्ठा की नज़र से देखते हैं और आस- पास के लोग उसके मित्र बन जाते हैं। सच्चाई इंसान के महत्व व स्थान को बड़ा कर देती है और दूसरे उससे प्रेम करने लगते हैं। प्राकृतिक रूप से समस्त इंसान सच बोलने वाले होते हैं और अगर वे अपनी मूल प्रवृत्ति से दूर न हों और अपने दिल को बुराइयों से पवित्र रखें तो कभी भी झूठ नहीं बोलेंगे। इस संबंध में हम एक कहावत की ओर संकेत कर रहे हैं। कहते हैं कि "सच्ची बात बच्चों से सुनें"

चूंकि बच्चों का दिल और आत्मा पवित्र होती है और उनका व्यवहार मूल सृष्टि के अनुरुप होता है इसलिए वे झूठ नहीं बोलते हैं और वे केवल वास्तविकता ही कहते हैं। क्योंकि इंसान की सृष्टि ही सच्चाई, सत्य प्रेम और सच बोलने पर रखी गयी है।

कथनी और करनी दोनों को सच कहा जाता है। केवल सच बोलने को ही सच्चाई नहीं कहते बल्कि व्यवहार को भी सच कहा जाता है। सच्चाई का जो महत्व है उसकी एक वजह यह है कि वह नैतिक परिपूर्णता तक पहुंचने का मार्ग है और उसे आधार बनाकर इंसान स्वयं को नैतिक मूल्यों से सुसज्जित कर सकता है।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि सच बोलने की नीव परिवार में रखी जाती है। पहली जगह परिवार ही है जहां इंसान बड़ा होता है और सच बोलने सहित दूसरे मूल्यों को सीखता है। समस्त मूल्यों में सर्वोपरि सच होता है और माता -पिता पहला उदाहरण होते हैं जिन्हें बच्चे अपना आदर्श बनाते हैं। माता- पिता अपने व्यवहार से बच्चों को सच बोलना सीखा सकते हैं और उसके बाद बच्चे समाज में सच के अर्थ से अधिक अवगत हो सकते हैं। बच्चे सच सहित बहुत से मूल्य अपने बड़ों से सीखते हैं। तेहरान विश्व विद्यालय में अकैडमिक बोर्ड के सदस्य डाक्टर साहिल हिम्मती कहते हैं" बच्चों के साथ सच्चा होना कुछ माता -पिता के लिए कठिन हो सकता है, सच बोलने का अर्थ वास्तव में बच्चे और वास्तविकता के बीच संबंध स्थापित करना है। जब हम बच्चे से वास्तविकता को बयान करते हैं तो वास्तव में उसके साथ सच्चे होते हैं"

यह ऐसी स्थिति में है जब बच्चों के संबंध में किये गये अधिकांश अध्ययन इस बात के सूचक हैं कि लगभग समस्त बच्चों को माता -पिता के दोहरे व्यवहार का सामना है और माता- पिता अपने बच्चों से किये गये वादों को सही तरह से पूरा नहीं करते हैं। जो चीज़ बच्चों को वास्तविकता से निकट करती है वह माता- पिता के कर्म हैं न कि कथन। उदाहरण के तौर पर माता- पिता बच्चों से कहते हैं कि कल खरीद दूंगा यह ऐसा वाक्य है जिससे बच्चा- बच्चा अवगत है और इसका अर्थ यह है कि माता- पिता बच्चों की मांगों को पूरा कर देंगे परंतु इस वाक्य का अधिकांश अर्थ यह होता है कि नहीं खरीदूंगा।

डाक्टर हिम्मती का मानना है कि बच्चों से इधर- उधर की बात करने या उनसे झूठा वादा करने के बजाये बेहतर यह है कि जो चीज़ वे मांग रहे हैं उसके फाएदे व नुकसान को उनके लिए बयान करें और उनके साथ सच्चा रहें।

झूठ परिवार में अविश्वास का बीज बो देता है और उससे आत्मिक व नैतिक आघात पहुंचता है।

ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई पति-पत्नी को सच बोलने के महत्व को बयान करते हुए कहते हैं" अगर पत्नी को यह एहसास हो जाये कि उसका पति उससे झूठ बोल रहा है या पति को यह आभास हो जाये कि उसकी पत्नी उससे झूठ बोल रही है और दोनों को यह आभास हो जाये कि प्रेम करने में वे सच्चे नहीं हैं तो इससे प्रेम का आधार कमज़ोर हो जायेगा। अगर आप प्रेम को बाकी रखना चाहते हैं तो विश्वास व भरोसे को सुरक्षित रखिये और अगर जीवन को मज़बूत व सुदृढ करना चाहते हैं तो प्रेम को सुरक्षित रखिये।

पति- पत्नी के बीच सच्चाई बहुत महत्वपूर्ण है। इससे बुरी कोई चीज़ नहीं है कि इंसान अपने जीवन में सबसे निकट व्यक्ति पर भी यानी अपने जीवन साथी पर भरोसा न कर सके। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि कोई भी व्यक्ति या महिला इस बात को पसंद नहीं करेगी कि उसका जीवन साथी उससे झूठ बोले। झूठ जीवन से शांति को खत्म कर देता है। अच्छा जीवन व्यतीत करने के लिए सच्चाई को आधार बनाना चाहिये।

यह बात संभव है कि जब आप अपने जीवन में पहली बार अपने जीवन साथी से झूठ बोल रहे हों तो वह कोई विशेष प्रतिक्रिया व्यक्त न करे परंतु कुछ समय के बाद धीरे -धीरे उसका आप पर से भरोसा खत्म हो जायेगा या वह कड़ाई से आपका जवाब देगी और इससे बुरा यह है कि शायद उसके दिल से आपके प्रति प्रेम ही समाप्त हो जाये।

एसे बहुत से लोग हैं जब उनके जीवन साथी हमेशा उनसे झूठ बोलते हैं तो वे यह आभास करने लगते हैं कि उनके जीवन साथी के दिल में उनका सम्मान नहीं है और वह उनसे प्रेम नहीं करता है।

जब पति या पत्नी में सच्चाई नहीं होती है तो घर में अविश्वास का वातावरण पैदा हो जाता है और मतभेदों के लिए भूमि प्रशस्त हो जाती है।

इस्लाम की नज़र में उन वचनों पर अमल करना बहुत महत्व रखता है जिनका हम बीवी- बच्चों से करते हैं। रवायत में है कि चार विशेषतायें हैं जिनके अंदर ये विशेषताएं होगीं उसका ईमान पूरा है उसके पाप मिटा दिये जायेंगे, वह अपने पालनहार से ऐसी हालत में मुलाकात करेगा कि उसका पाहलनहार उससे प्रसन्न होगा, जो लोगों से किये गये वादों को पूरा करे, लोग उसकी ज़बान से सुरक्षित हों और जो ईश्वर और लोगों की उपस्थिति में हर बुराई से शर्म करे और अपने परिवार से अच्छा व्यवहार करे।"

           

        

यहां एक प्रश्न यह उठता है कि कुछ लोग झूठ क्यों बोलते हैं?

झूठ बोलने की आदत आमतौर पर बचपने से आरंभ होती है यहां तक कि दो साल का छोटा बच्चा भी आसानी से झूठ बोल सकता है परंतु जब बच्चा यह समझने लगता है कि कुछ बातों व शब्दों के क्या परिणाम हो सकते हैं तो वह जानबूझ कर झूठ बोलने लगता है। इस झूठ के कारण को हमें परिवार में ढूंढ़ना चाहिये। जब माता- पिता आराम से झूठ बोलेंगे तो बच्चे भी आराम से झूठ बोलना सीख जायेंगे और जब वे समाज में जायेंगे और जब वे यह देखेंगे कि उनकी मांग पूरी नहीं हो रही है तो वे वास्तविकता को छिपाने और झूठ बोलने का प्रयास करने लगेंगे।

झूठ बोलना न केवल ग़लत व अनैतिक बात है बल्कि मानवीय व आध्यात्मिक परिपूर्णता तक पहुंचने के मार्ग की बहुत बड़ी बाधा है। झूठ, इंसान के कमज़ोर व तुच्छ व्यक्तित्व का सूचक है। इसी कारण सच्चाई को बहादुरी का चिन्ह बताया गया है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम फरमाते हैं" झूठा इंसान, झूठ नहीं बोलता है किन्तु स्वयं अपने निकट अपनी तुच्छता के कारण"

हज़रत अली अलैहिस्लाम भी फरमाते हैं" झूठे से दोस्ती करने से दूर रहो क्योंकि वह मृगतृष्णा के समान है दूर को नज़दीक और नज़दीक को दूर करता है"

जब एक इंसान सच बोलने लगता है तो वह अपने बचपने के प्रशिक्षण काल से भी आगे बढ़ जाता है। यानी अगर उसने अपने बचपने में झूठ बोलना सीखा हो और अपने जीवन में भी झूठ बोला हो तब भी वह सच बोलने वाला इंसान बन सकता है। सच बोलने के लिए अभ्यास व प्रयास की ज़रूरत है। एक इंसान उस समय झूठ बोलने से मुक्ति पा सकता है जब वह अपने अंदर कमियों को पहचाने और उन्हें दूर करने का प्रयास करे। इस चीज़ के अंदर इस्लाम और दूसरे आसमानी धर्मों में कोई अंतर नहीं है। समस्त धर्म सच बोलने को महत्व देते हैं और वे झूठ को परिपूर्णता के मार्ग की बाधा समझते हैं। अगर इंसान सच बोलने की आदत डाल ले और वास्तविकता को बयान करे तो वह उन बहुत सी चिंताओं से मुक्ति पा जायेगा और उसे आत्मिक शांति प्राप्त होगी जो झूठ बोलने की वजह से अस्तित्व में आती हैं।

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