Dec ०१, २०१९ १७:२७ Asia/Kolkata
  • जीने की कला- 18

परोपकार यानी दूसरों की सहायता करने का बहुत व्यापक व विस्तृत अर्थ है।

इसमें समस्त सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक कार्य शामिल हैं। एक नशेड़ी व्यक्ति को मुक्ति दिलाना, शिक्षा ग्रहण करने में बच्चों और नवजवानों की सहायता करना, जो निर्धन परिवार हैं उनकी आर्थिक सहायता करना, किसी ज़रूरतमंद को अपने शरीर के किसी अंग को उपहार स्वरूप प्रदान कर देना और कभी किसी ज़रूरतमंद के पास बैठ कर उसकी बात सुनना, आदि परोपकार में शामिल हैं।

दूसरे लोगों की सहायता इस्लाम धर्म में बेहतरीन उपासना है। वहि अर्थात ईश्वरीय संदेश और इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार लोगों की सहायता और महान ईश्वर के सामिप्य के बीच घनिष्ठ संबंध है। दूसरों की सहायता करने पर महान ईश्वर ने बहुत बल दिया है यहां तक कि पवित्र कुरआन के सूरे बक़रा की दूसरी और तीसरी आयतों में वह कहता है" यह कुरआन वह किताब है जिसमें कोई संदेह नहीं है और वह सदाचारी लोगों का पथप्रदर्शन करती है, सदाचारी वे लोग हैं जो ग़ैब व बिन देखे पर ईमान रखते हैं और नमाज़ क़ायेम करते हैं और जो नेअमतें हमने उनको दी है उसमें से ख़र्च करते हैं।"

इस आधार पर महान ईश्वर उन लोगों को अपने शहद की मिठास को चखाता है जो ग़ैब पर ईमान रखते हैं, नमाज़ कायम करते हैं और उसकी राह में दूसरों पर खर्च भी करते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम दूसरों की सहायता करने के बारे में फरमाते हैं" लोग ईश्वर की संतान और उसके परिजन हैं ईश्वर के निकट सबसे प्रिय वह इंसान है जो उसके परिजनों को फायदा व लाभ पहुंचाये।"

पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने कथन में इंसान शब्द का प्रयोग किया था न कि मुसलमान। इससे यह बात स्पष्ट है कि समस्त इंसान महान ईश्वर के परिजन हैं और उनकी सहायता उसकी उपासना है।

हर इंसान अपनी परिस्थिति व क्षमता के अनुसार दूसरों की सहायता कर सकता है। हर प्रकार का फायदा पहुंचाना, वित्तीय, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक सहायता भी दूसरों की सहायता में शामिल है और अच्छा कार्य अंजाम देने में आगे- आगे रहना और जल्दी अंजाम देना चाहिये। पैग़म्बरे इस्लाम की हदीस है कि जिसकी ओर नेकी का द्वार खोल दिया गया है उसे चाहिये कि उसे ग़नीमत समझे क्योंकि वह यह नहीं जानता कि यह द्वार कब बंद कर दिया जायेगा।

दूसरों की सहायता करने से इंसान पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं। जो इंसान दूसरों की सहायता करता है सबसे पहला फायदा यह है कि उसे लोग विशेषकर वह व्यक्ति जिसकी वह सहायता करता है उससे निष्छल प्रेम करने लगता है। सहायता का दूसरा फायदा यह है कि समाज में त्याग व परित्याग की भावना मज़बूत होती है और इससे दूसरों के अंदर त्याग व कुर्बानी की भूमि प्रशस्त होती है। इसी प्रकार दूसरों की सहायता करने से समाज में इंसानों के मध्य समरसता की भावना पैदा होती है जो बहुत मूल्यवान है। पवित्र कुरआन की शिक्षाओं के दृष्टिगत नेक कार्य अंजाम देना किसी कबीले, जाति या गुट से विशेष नहीं है और उसे हर इंसान अंजाम दे सकता है। महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरे आले इमरान की 134वीं आयत में कहता है जो लोग कठिनाई और आराम के दिनों में खर्च करते हैं और अपने क्रोध को पी जाते हैं और दूसरों की गलतियों की अनदेखी कर देते हैं तो एसे लोग सदाचारी हैं ईश्वर अच्छा कार्य करने वालों को दोस्त रखता है।" वास्तव में जो लोग हर स्थिति में अच्छा कार्य अंजाम देते हैं उनके इस कार्य से समाज में त्याग व परित्याग की भावना मज़बूत होती है।

दूसरों की सहायता के बारे में इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम फरमाते हैं तीन कार्य हैं जो ईश्वर को बहुत पसंद हैं प्रथम एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को खाना खिलाये और उसे भूख से मुक्ति दिलाये दूसरे उसकी समस्याओं का समाधान करे और तीसरे उसके ऋण का भुगतान करे।" इस आधार पर मुसलमान को दूसरे मुसलमानों और इंसानों की समस्याओं के समाधान से न केवल थकना व ऊबना नहीं चाहिये बल्कि उसे महान ईश्वर की नेअमत समझना चाहिये। महान ईश्वर की नेअमत पर शुक्र अदा करना चाहिये। जो इंसान महान ईश्वर की नेअमत पर शुक्र करता है तो ईश्वर उसकी नेअमतों में और वृद्धि कर देता है। इस आधार पर अगर कोई एसा इंसान है जो लोगों की समस्याओं का समाधान करता है तो उसे इस बात पर खुश होना चाहिये कि महान ईश्वर उसे दोस्त रखता है और अगर लोग अपनी समस्याओं के समाधान के लिए उसके पास नहीं आ रहे हैं तो उसे समझना चाहिये कि वह ईश्वरीय दया व कृपा से वंचित हो गया है और उसे प्रसन्न होने के बजाये दुःखी होना चाहिये।

यहां पर कोई यह कह सकता है कि जो इंसान ग़रीब व अक्षम है वह किस प्रकार दूसरों की सहायता कर सकता है? तो उसका जवाब यह है कि जो इंसान अक्षम व ग़रीब है उसे अपनी क्षमता के अनुसार दूसरों की सहायता करना चाहिये। यहां इस बात को ध्यान रखना चाहिये कि दूसरों की सहायता के लिए ज़रूरी नहीं है कि इंसान के पास धन ही हो तब वह सहायता करे बल्कि संभव है कि किसी इंसान के पास बिल्कुल धन न हो परंतु उसके पास ज्ञान है उसे वह दूसरों को सिखा सकता है इससे वह दूसरों की मदद कर सकता है अच्छी सलाह देकर भी दूसरों की मदद की जा सकती है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम फरमाते हैं कि अच्छे मशवरे से बेहतर कोई मदद नहीं है। वास्तव में महान ईश्वर समाज में लोगों के मध्य त्याग व परित्याग की भावना को मज़बूत करना चाहता है अतः इंसान को चाहिये कि वह अपनी क्षमता के अनुसार अपने पड़ोसियों, सहकर्मियों और अधीनस्थ लोगों की समस्याओं के समाधान के लिए प्रयास  और उनकी सहायता करे। इस प्रकार की भावना का बहुत महत्व है यहां तक कि पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं कि जो यह सुने कि कोई मुसलमान उसे मदद के लिए बुला रहा है और वह न जाये तो वह मुसलमान नहीं है।"

इस्लाम के अनुसार समस्त इंसानों की सेवा बहुत ही अच्छा व पसंदीदा कार्य है। जो ईश्वरीय दूत थे उनका उद्देश्य केवल मुसलमानों या मोमिनों की सहायता नहीं था बल्कि वह मानवता के सहायक थे जिसमें समस्त इंसान शामिल थे।

पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं धर्म के बाद लोगों से दोस्ती और लोगों की भलाई सबसे बड़ी अच्छाई है और यह बुद्धि की अलामत है। इस आधार पर धार्मिक होना बुद्धि की अलामत है और उसकी पूर्ति के लिए लोगों से प्रेम करना चाहिये और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए प्रयास करना चाहिये।

लोगों की सहायता एक अच्छा कार्य है और यह महान ईश्वर के निकट पुण्य है परंतु दूसरों की सहायता करने में इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जब भी इंसान दूसरों की मदद करता है तो उसे एहसान नहीं जताना चाहिये। क्योंकि भलाई करने के बाद उसके एहसान जताने से उसका पुण्य समाप्त हो जाता है। महान ईश्वर इस संबंध में पवित्र कुरआन के सूरे बकरा की 264वीं आयत में कहता है" हे ईमान लाने वालों अपने दान व सदक़े को एहसान जताकर और कष्ट देकर तबाह न करो। गुप्त रूप से दान व सदक़ा देना बहुत अच्छी शैली है और यह वह शैली है जिसे पैग़म्बरों व ईश्वरीय दूतों ने अंजाम दिये हैं पंरतु कहीं कहीं सार्वजनिक रूप से सदक़ा देना ज़रूरी हो जाता है। जहां सार्वजनिक रूप से सदका देना दूसरों के प्रोत्साहन का कारण बनता है वहां दूसरों के सामने सदक़ा देना चाहिये। रवायत में आया है कि एक दिन मुसलमानों का एक कारवां पवित्र नगर मदीना से मक्का रवाना हुआ। मक्का से मदीना के बीच में वह कारवां एक स्थान पर रुका ताकि कारवां वाले कुछ दिन तक विश्राम करें। उस विश्राम स्थल में एक व्यक्ति कारवां से जा मिला ताकि वह पवित्र नगर मक्का जाये। वह व्यक्ति कारवां वालों से बात कर रहा था कि बातचीत के दौरान उसने एक व्यक्ति को उनके बीच देखा जिसके चेहरे से ही ज्ञात था कि वह कोई भला व्यक्ति है और बड़ी स्फूर्ति से लोगों की सेवा और उनका काम कर रहा है। उस व्यक्ति ने पहली ही नज़र में सेवा करने वाले व्यक्ति को पहचान लिया और बड़े आश्चर्य से कारवां वालों से पूछा कि यह आदमी जो काम कर रहा है तुम लोग इसे पहचानते हो? उन लोगों ने कहा नहीं हम इसे नहीं पहचानते हैं परंतु यह अच्छा और सदाचारी इंसान है। हम लोगों ने उससे नहीं कहा है कि वह हमारा काम करे परंतु वह खुद से ही कर रहा है। उस व्यक्ति ने कहा कि मालूम है कि तुम लोग उसे नहीं पहचानते हो अगर पहचानते तो कभी भी इस प्रकार का दुस्साहस न करते और कभी भी उससे नौकरों जैसा काम न लेते। कारवां वालों ने कहा कि वह कौन है? तो उस व्यक्ति ने कहा कि यह हुसैन बिन अली ज़ैनुल आबेदीन हैं। यह सुनना था कि कारवां वाले परेशान हो गये और वे सब क्षमा याचना करने के लिए इमाम की सेवा में गये। उन लोगों ने बड़ी शर्मिन्दगी से इमाम से कहा काश आप अपना परिचय करा देते और बता देते कि हम कौन हैं। संभव था कि हम लोग आपसे कोई अभद्र व्यवहार करके महापाप कर बैठते। इस पर इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने फरमाया मैंने जानबूझ कर तुम लोगों का साथ चुना क्योंकि तुम लोग मुझे नहीं पहचानते थे क्योंकि कभी मैं उन लोगों के साथ यात्रा करता हूं जो मुझे पहचानते हैं तो पैग़म्बरे इस्लाम से मेरा संबंध होने के नाते वे लोग मुझे कुछ नहीं करने देते। इसलिए मैंने यात्रा के लिए एसे लोगों का चयन किया जो मुझे नहीं पहचानते हैं ताकि उनकी सेवा का सौभाग्य प्राप्त कर सकूं।

 

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