पवित्र रमज़ान पर विशेष कार्यक्रम-२
कुरआने मजीद की एक आयत में कहा गया है कि यह रमज़ान का महीना है कि जिस में लोगों का मार्गदर्शन करने वाला और सत्य व असत्य के मध्य अंतर प्रकट करने वाला कुरआन उतारा गया।
कुरआने मजीद की एक आयत में कहा गया है कि यह रमज़ान का महीना है कि जिस में लोगों का मार्गदर्शन करने वाला और सत्य व असत्य के मध्य अंतर प्रकट करने वाला कुरआन उतारा गया। ईश्वर ने कुरआने मजीद में इस आयत द्वारा रमज़ान के महीने की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विशेषता का उल्लेख किया है। इस पवित्र महीने में कुरआन उतरा है और इस पूरे महीने में मुसलमान रोज़ा रखते हैं जिसका तरीक़ा यह होता है कि भोर होने से पूर्व खाना पीना छोड़ देते हैं और फिर पूरे दिन हर प्रकार की खाने पीने की वस्तु से दूर रहते हैं।
रमज़ान के महीने में रोज़ा रखने के बारे में कुरआने मजीद के सूरए बक़रह की आयत नंबर 183 और 184 में कहा गया है कि हे ईमान लाने वालो! रोज़ा तुम पर अनिवार्य किया गया है जैसा कि तुम से पहले वालों के लिए अनिवार्य किया गया था ताकि तुम पापों से बचने वाले हो जाओ।
कुरआने मजीद में इस के बाद की आयत में यह बताया गया है कि यदि तुम में से कोई रोगी हो या फिर यात्रा में हो तो उस पर रोज़ा अनिवार्य नहीं है किंतु इन दोनों आयतों में खास चीज़, रोज़ा रखने का आदेश देने की ईश्वर की शैली है जो वास्तव में सुन्दर शुब्दों से भरी है और इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि रोज़ा रखने का आदेश केवल पैगम्बरे इस्लाम के अनुयाइयों के लिए नहीं है बल्कि उससे पहले भी लोगों पर वाजिब व अनिवार्य था।
रोज़ा इस्लामी नियमों के अनुसार हर बालिग़ के लिए अनिवार्य होता है किंतु इस आदेश में लचक भी बहुत है और इसका उल्लेख खुद कुरआन में किया गया है और बताया गया है कि यदि कोई बीमार हो और दिन भर भूखा और प्यासा रहना उसके लिए ठीक न हो तो वह रोज़ा न रखे या इसी प्रकार यदि व यात्रा में है तो भी रोज़ा न रखे और फिर जब समस्या दूर हो जाए तब रखे।
इसके बाद इसके बाद आयत में रोज़ा रखने के प्रभाव व परिणाम का उल्लेख किया गया है और कहा गया है कि इस प्रकार से तुम लोग पापों से दूर हो जाओगे और यदि देखा जाए तो इससे बड़ा इनाम एक धार्मिक व्यक्ति के लिए कुछ और नहीं हो सकता कि वह पापों से दूर हो जाए क्योंकि पाप, मनुष्य के विनाश का कारण बनता है।
रमज़ान का महीना, अपना हिसाब करने का भी समय होता है । इस महीने में मनुष्य अपने कामों पर विचार कर सकता है, स्वंय से यह सवाल पूछ सकता है कि गत एक वर्ष के दौरान उसने क्या पाया क्या खोया है और इस सृष्टि के रचयता से उसके संबंध कैसे रहे? रमज़ान के महीने में जो विशेषकार्यक्रम हैं और जो विशेष संस्कार हैं वह पूरे महीने में मनुष्य को बार बार यह अवसर प्रदान करते हैं कि वह स्वंय को ईश्वर के समक्ष उपस्थित होने के योग्य बनाए।
वास्तव में आनंद का आभास मनुष्य के लिए ईश्वर की एक कृपा है किंतु इस सुख के आभास की शैली अलग अलग लोगों में भिन्न भिन्न हो सकती है। कुछ लोगों को स्वादिष्ट भोजन में आनंद आता है तो कुछ लोगों को वैज्ञानिक चर्चा करके मज़ा आता है और कुछ लोगों को दूसरों पर अत्याचार करके आनंद का आभास होता है जो वास्तव में रोगी होते हैं। वास्तव में आध्यात्मिक आनंद मनुष्य का वास्तविक परम आंनद है किंतु आध्यात्मिक आनंद का उसी समय आभास होता है जब मनुष्य अपने भीतर सदगुणों को विकसित करे और बुराइयों से बचे और अन्य लोगों पर अत्याचार न करे यही नहीं बल्कि अपने भीतर शांति को शक्तिशाली बनाए यहां तक कि उसके भीतर किसी भी प्रकार की प्रतिशोध भी भावना किसी भी दशा में पनप न पाए और शक्ति व सामर्थ होने के बावजूद बदला लेने के बजाए उसे क्षमा करने में अधिक आनंद आए जब एसा होने लगे तो आप समझ जाएं कि आप आध्यात्मिक आनंद के चरण में प्रविष्ट हो गये हैं।
रमज़ान का महीना आध्यात्मिक आनंद के लिए स्वंय को तैयार करने और स्वंय को उसका पात्र बनाने का बहुत अच्छा अवसर है क्योंकि रोज़ा रखने से और दिन भर कड़ी गर्मी में भूख व प्यास मनुष्य के मन के बहुत से गलत विचारों को ख़त्म कर देती है इसके साथ ही रमज़ान के महीने में मनुष्य के भीतर स्वंय ही एक प्रकार का आध्यात्म पैदा हो जाता है और चूंकि इस महीने में कुरआन मजीद की तिलावत पर बहुत अधिक बल दिया गया है इस लिए रोज़ा रखने वाले लगभग सारे लोग कुरआन ज़रूर पढ़ते हैं जो स्वंय आध्यात्मिक भाव को गहरा करता है।
कार्यक्रम के इस भाग में हम आप को इस्लाम स्वीकार करने वाले एक अमरीकी नागरिक के रोज़े के संदर्भ में अनुभव सुनाते हैं। सन फ्रांसिस्को के नव मुस्लिम अहमद कहते हैं कि मैं मुसलमान बनने से पहले फ्लोरीडा में एक कैथोलिक स्कूल में पढ़ता था। स्कूल के बाद मैं विभिन्न किताबों का अध्ययन करता था। एक बार एक किताब में मैंने इस्लाम और रोज़े के बारे में पढ़ा और मुझे पता चला कि मुसलमानों के लिए रोज़ा रखना अनिवार्य है। रोज़ा अर्थात भूख प्यास सहन करना, सहनशीलता को बढ़ाना। यह समझना मेरे लिए बहुत कठिन था। इस्लाम स्वीकार करने के बाद जब मैंने पहली बार रोज़ा रखा तो मेरी आयु 19 वर्ष थी। उस दिन मैंने बड़े गर्व से अपने रूम मेट को बताया कि मैं रमज़ान का रोज़ा रखने वाला हूं। यह वह पहला काम था जो मैं अपने माता पिता को खुश करने के लिए या नंबर लेने के लिए नहीं कर रहा था। मैं उस के लिए भूखा व प्यास रह रहा था जिसे मैंने देखा तक नहीं था किंतु अपने पूरे अस्तित्व के साथ उसकी उपस्थिति को महसूस करता था। वह दिन सब से अच्छा और शायद मेरी आयु का सब से महत्वपूर्ण दिन था। मेरे गैर मुस्लिम मित्र यह समझते थे कि रोज़ा रखने वाले के हाथ दिन खत्म होने के बाद केवल भूख व प्यास ही लगती है किंतु जब मैं ने उन्हें मन की शांति व आध्यात्मिक आनंद के बारे में बताया तो उनकी समझ में आया कि मेरे भीतर कितना परिवर्तन हो चुका है। वास्तव में रोज़ा रख कर मुझे एसा आनंद आया जो संभवतः किसी अन्य काम से मुझे कभी नहीं प्राप्त हो सकता था।
रमज़ान का पवित्र महीना स्वंय को बनाने और संवारने का समय होता है । इस महीने की सब से बड़ी व महत्वपूर्ण उपासना रोज़ा रखना है और रोज़े की जो विशेषताएं हैं वह किसी अन्य उपासना में नहीं हैं। यह उपासना इतनी विशेष है कि ईश्वर का कथन है कि रोज़ा मेरे लिए है और इसका इनाम मैं खुद दूंगा। संभवतः रोज़े के इतने महत्व का एक कारण यह हो कि यह एसी उपासना है जो अन्य उपासनाओं के विपरीत स्वंय मनुष्य के मन व आत्मा से संबंध रखती है अर्थात यह उपासना नज़र नहीं आती बल्कि केवल रोज़ा रखने वाला ही इसे जानता और महसूस करता है । उदाहरण स्वरूप जब एक मुसलमान नमाज़ पढ़ता है तो वह सजदा करता है और उठता बैठता है तो लोग समझ जाते हैं कि वह नमाज़ पढ़ रहा है। या दान दक्षिणा देता है तो भी वह कम से कम लेने वाले के लिए स्पष्ट उपासना होती है किंतु रोज़ा एसा नहीं होता और रोज़ा रखने वाला खामोशी से खान पान छोड़ देता है और अपने सामान्य काम करता रहता है और यदि वह स्वंय न बताए तो किसी को उसकी इस उपासना के बारे में पता नहीं चल सकता और इसकी वजह से उसमें दिखावे आदि की गुंजाइश न होने के बराबर होती है। रोज़ा रखने वाले की इस उपासना का ज्ञान ईश्वर को होता है और इसी लिए कहा गया है कि रोज़ा, ईश्वर के लिए रखा जाता है और वही उसका इनाम देता है।
रोज़े की एक विशेषता जैसा कि हमने बताया आध्यात्मिकता में विस्तार है। क्योंकि इच्छाएं शैतान का हथियार हैं और शैतान, खाने पीने और विभिन्न प्रकार के सुखों को साधन बना कर मनुष्य को बहकाता है और उन्हें पाप करने पर प्रोत्साहित करता है और यह एक वास्तविकता है कि मन की इच्छाएं, खान पान से प्रबल होती हैं । यही कारण है कि पैगम्बरे इस्लाम ने कहा है कि शैतान खून की भांति मनुष्य की रगों में दौड़ता है इस लिए रोज़ा रख कर उसका रास्ता संकरा करो।
वैसे उपासना की भावना भी बहुत महत्व रखती है। इस्लाम धर्म में कोई भी उपासना दिखावे के लिए स्वीकारीय नहीं है और उपासना के समय ईश्वर को प्रसन्न करने के अलावा कोई भी भावना,धार्मिक दृष्टि से स्वीकारीय नहीं है और ईश्वर को प्रसन्न करने के अलावा किसी अन्य भावना के साथ की जाने वाली उपासना का कोई मूल्य नहीं है किंतु ईश्वर के लिए की जाने वाली उपासना के पीछे निहित भावनाएं भी कई प्रकार की होती हैं। कुछ लोग ईश्वर की शुद्ध उपासना, नर्क और उसकी आग के भय से करते हैं जबकि कुछ लोग उसकी उपासना स्वर्ग की लालच में करते हैं किंतु कुछ लोग एस भी होते हैं जो इन दोनों भावनाओं से दूर हट कर ईश्वर की सिर्फ इस लिए उपासना करते हैं क्योंकि वह उसे उपासना योग्य समझते हैं।
इस संदर्भ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि हे ईश्वर मैं तेरी उपसना तेरे नर्क के भय या तेरे स्वर्ग के लोभ में नहीं करता बल्कि मैं ने तुझे उपासना योग्य पाया इस लिए तेरी उपासना करता हूं।